के. सुब्रामण्यम
 शिक्षा नीति सम्बंधी दस्तावेज़ों में बार-बार ज़ोर दिया गया है कि भारत में स्कूली शिक्षा के समक्ष जो चुनौती है वह गुणवत्ता की है। दुनिया भर का अनुभव बताता है कि शिक्षा की गुणवत्ता निर्णायक रूप से सुप्रशिक्षित व उत्साही शिक्षकों पर निर्भर करती है। यह भी माना जाता है कि स्कूली शिक्षा में विश्वविद्यालयों की भूमिका स्कूली शिक्षकों को तैयार करने की है। अलबत्ता, भारत में शिक्षकों को तैयार करने में विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों ने गौण भूमिका ही निभाई है। हमारे यहां शिक्षकों की अधिकांश तैयारी विश्वविद्यालयों के बाहर ही होती है। भारत में इंजीनियरिंग और मेडिकल शिक्षा के समान अध्यापक शिक्षा को भी विश्वविद्यालयों की मुख्य धारा से अलग-थलग करके व्यावसायिक धारा में डाल दिया गया है।
शिक्षा नीति सम्बंधी दस्तावेज़ों में बार-बार ज़ोर दिया गया है कि भारत में स्कूली शिक्षा के समक्ष जो चुनौती है वह गुणवत्ता की है। दुनिया भर का अनुभव बताता है कि शिक्षा की गुणवत्ता निर्णायक रूप से सुप्रशिक्षित व उत्साही शिक्षकों पर निर्भर करती है। यह भी माना जाता है कि स्कूली शिक्षा में विश्वविद्यालयों की भूमिका स्कूली शिक्षकों को तैयार करने की है। अलबत्ता, भारत में शिक्षकों को तैयार करने में विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों ने गौण भूमिका ही निभाई है। हमारे यहां शिक्षकों की अधिकांश तैयारी विश्वविद्यालयों के बाहर ही होती है। भारत में इंजीनियरिंग और मेडिकल शिक्षा के समान अध्यापक शिक्षा को भी विश्वविद्यालयों की मुख्य धारा से अलग-थलग करके व्यावसायिक धारा में डाल दिया गया है।
स्कूलों में दर्ज संख्या में ज़बर्दस्त वृद्धि के चलते पिछले कुछ दशकों में अध्यापक शिक्षा में भी ज़बर्दस्त वृद्धि हुई है। इसमें से अधिकांश वृद्धि निजी क्षेत्र में हुई है - 90 प्रतिशत से ज़्यादा द्वितीयक अध्यापक शिक्षा कॉलेज निजी स्वामित्व में हैं। हाल ही में अध्यापक शिक्षा सम्बंधी न्यायमूर्ति वर्मा आयोग ने अध्यापक शिक्षा संस्थाओं को विश्वविद्यालयपरिसरों से बाहर ‘बंद दायरों’ की संज्ञा दी है और कहा है कि यह अलगाव एक प्रमुख समस्या है। वास्तव में अध्यापक शिक्षा के विश्वविद्यालयकी मुख्यधारा से अलगाव की जड़ें काफी गहरी हो गई हैं और यह स्थिति पूरे शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त है।
विश्वविद्यालयों से अलग-थलग शिक्षा की व्यावसायिक धारा के विकास के साथ व्यापारीकरण के खतरे तो जुड़े ही हैं। इसके साथ गुणवत्ता और ईमानदारी का ह्यास तो अवश्यंभावी है। दूसरा, अन्य व्यावसायिक धाराओं के समान अध्यापक शिक्षा में नवाचार लागू करने के लिए भी विश्वविद्यालय-आधारित विषयों के साथ जीवंत जुड़ाव अनिवार्य है। एक तीसरा कारण और है जिसके चलते विश्वविद्यालयों से अलगाव अध्यापक शिक्षा के लिए नुकसानदेह है।
चिकित्सा व इंजीनियरिंग जैसी व्यावसायिक धाराएं निर्णायक रूप से विज्ञान व गणित की विभिन्न शाखाओं पर आधारित होती हैं, किंतु फिर भी इनके पास ज्ञान का अपना ठोस भंडार है जो व्यवसायिक कामकाज को सहारा देता है। हालांकि शिक्षा को इन धाराओं के समान व्यावसायिक दर्जा हासिल नहीं है किंतु वह एक स्वतंत्र पहचान की चाहत तो रखती है। शिक्षा क्षेत्र का अपना ज्ञान का भंडार है जिसके अंतर्गत शिक्षा के उद्देश्य सम्बंधी दार्शनिक चिंतन और व्यक्ति के विकास और सामाजिक परिवर्तन में शिक्षा की भूमिका सम्बंधी प्रायोगिक व सैद्धांतिक अध्ययन से लेकर शिक्षा पद्धति के सिद्धांत तक शामिल हैं। किंतु चिकित्सा और इंजीनियरिंग के विपरीत, विश्वविद्यालयी विषय-ज्ञान शिक्षा कारोबार के केंद्र में है। स्कूली शिक्षा सिर्फ बच्चे या मनुष्य की शिक्षा नहीं है बल्कि यह विषयों - भाषा और साहित्य, कला, विज्ञान, गणित और सामाजिक विज्ञान - की भी शिक्षा है। यही कारण है कि शिक्षा संस्थाओं को विश्वविद्यालयी ज्ञान के विषयों से अलग-थलग रखना उन्हें पंगु बना सकता है।
स्कूलों (और कॉलेजों) के अधिकांश शिक्षक विषय-शिक्षक होते हैं। वे विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान या भाषा में से कोई एक विषय पढ़ाते हैं। चूंकि शिक्षा एक स्वतंत्र विषय के रूप में विकसित हुई है, इसलिए शिक्षक प्रशिक्षण के पाठ्यक्रमों में यह धारणा व्याप्त हो गई है कि यह एक सामान्य शिक्षा पद्धति है जिसे किसी भी विषय के शिक्षण पर लागू किया जा सकता है। शिक्षक प्रशिक्षण में यह धारणा बन गई है कि शिक्षा पद्धति तकनीकों का एक पिटारा है जिसे किसी भी विषय के शिक्षण में प्रयुक्त किया जा सकता है। किंतु शिक्षा पद्धति को विषयवस्तु से जुदा करने की वजह से विज्ञान व गणित जैसे विषयों को प्रभावी ढंग से पढ़ाने की शिक्षक की क्षमता कमज़ोर पड़ती है। अध्यापक शिक्षा को विश्वविद्यालयसे अलग करने के परिणामस्वरूप शिक्षा पद्धति और विषयवस्तु का पृथक्करण और भी गहरा हुआ है।
1980 के दशक में, एक अमरीकी शिक्षाविद ली शुलमैन ने शिक्षा पद्धति को विषयवस्तु से जुदा करने पर सवाल उठाते हुए एक असरदार लेख लिखा था Shulman, L. S., Educ. Res.,1986, 15(2), 4-14)। उन्होंने स्पष्ट किया था कि किसी विषय के प्रभावी अध्यापन के लिए ज़रूरी है कि शिक्षक विषय को गहराई से समझे। शुलमैन ने ‘शिक्षाशास्त्रीय विषयगत ज्ञान’ शब्द प्रस्तुत किया था। इस शब्द से उनका आशय था, “विषयवस्तु और शिक्षा पद्धति का एक विशिष्ट सम्मिश्रण जो खास तौर से शिक्षकों का परिसर है, जो उनकी विशेष प्रकार की समझ है”।
शिक्षाशास्त्रीय विषयगत ज्ञान (पेडेगॉजिकल कंटेंट नॉलेज या पीसीके) आजकल भारत सहित दुनिया भर में अध्यापक शिक्षा के कई पाठ¬क्रमों का महत्वपूर्ण हिस्सा है। शुलमैन का शोध कार्य शैक्षिक अनुसंधान में एक मील का पत्थर है और इसकी बदौलत इस बात की ज़्यादा सटीक समझ बनी है कि प्रभावी शिक्षण के लिए शिक्षकों को क्या पता होना चाहिए। गणित शिक्षा अनुसंधान में पीसीके की धारणा को कई शोधकर्ताओं ने अधिक विस्तार दिया है। इन शोधकर्ताओं ने वास्तविक कक्षा के कामकाज का अध्ययन करके इस बाबत निष्कर्ष निकाले हैं कि एक शिक्षक के लिए किस तरह के ज्ञान की ज़रूरत होती है।
जो लोग गणित पढ़ाते हैं उन्हें गणितीय विषयवस्तु को उन लोगों की अपेक्षा अलग ढंग से जानना होता है जो गणित का उपयोग करते हैं (जैसे वैज्ञानिक और इंजीनियर)। उदाहरण के लिए शिक्षकों के लिए यह समझना ज़रूरी है कि भिन्नों को किसी आयत के छायादार हिस्सों के रूप में दर्शाने से अशुद्ध भिन्न (improper fractions) को समझने में दिक्कत आ सकती है। शिक्षकों को आंशिक भागफलों का उपयोग करके भाग देने की वैकल्पिक विधियों की उपयुक्तता का आकलन करना होता है। ऐसी विधि एनसीईआरटी की नवीनतम पुस्तकों में दी गई है। ऐसे कार्यों में जिस तरह के ज्ञान से मदद मिलती है उसमें कई तत्व शामिल होते हैं: जैसे, कोई सूत्रविधि काम क्यों करती है, गणितीय अवधारणा के विविध प्रस्तुतीकरण का ज्ञान, और यह जानना कि किसी अवधारणा के प्रस्तुतीकरण विशेष की सामथ्र्य और सीमाएं क्या हैं। शिक्षकों को यह जानना चाहिए कि अंकगणित से परिचय बीजगणित सीखने में बाधक बनता है और यह भी समझना चाहिए कि अंकगणित व बीजगणित को कैसे जोड़ें। उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि किस तरह से स्कूली विज्ञान व गणित की अवधारणाएं उच्च शिक्षा में ज़्यादा उन्नत अवधारणाओं के लिए बुनियाद प्रदान करती हैं। आगे के नज़रिए से स्कूल में पढ़ाई जाने वाली अवधारणाओं पर विचार करने से वे बड़े विचार उजागर होते हैं जिन पर शिक्षण के दौरान ध्यान दिया जाना चाहिए।
जहां विज्ञान व गणित शिक्षा में अनुसंधान इस बात पर प्रकाश डाल रहा है कि कारगर ढंग से पढ़ाने के लिए शिक्षक को क्या पता होना चाहिए, वहीं अध्यापक शिक्षा संस्थानों में इन विचारों को अपनाकर अपने पाठ¬क्रम की पुनर्रचना करने की सीमाएं हैं। इन संस्थानों में पाठ¬क्रम और फैकल्टी का निर्माण यह मानकर हुआ है कि भावी शिक्षक अपनी पूर्व शिक्षा के दम पर विषय का ज्ञान तो पहले से ही रखते हैं। बी.एड. के छात्र पाठ योजना बनाने का या वास्तविक कक्षाओं में शिक्षा पद्धति की तकनीकों के उपयोग करने का अभ्यास करते हैं किंतु वे उस विषयवस्तु पर गहराई से चिंतन नहीं करते जो वे पढ़ा रहे हैं। अध्यापक शिक्षा पाठ¬क्रमों में हाल के संशोधनों में विषयवस्तु और विषय के बुनियादी पहलुओं पर गहराई से विचार-विमर्श को स्थान दिया गया है। अलबत्ता, इस बात में बहुत संदेह है कि अध्यापक शिक्षा संस्थाएं ऐसे विचार-विमर्श के लिए ज़रूरी बौद्धिक संसाधन जुटा पाएंगी।
यह स्थिति कुछ हद तक स्वयं विश्वविद्यालयीन शिक्षा की संरचना का परिणाम है। उच्च शिक्षा संस्थाओं के पाठ¬क्रम स्कूली शिक्षा को ध्यान में रखकर नहीं, उद्योग अथवा शोध में कैरियर को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। दरअसल, विश्वविद्यालयके विभाग इस सुझाव पर हैरत में पड़ जाएंगे कि उन्हें स्कूल शिक्षा की ज़रूरतों को ध्यान में रखना चाहिए। वे कहेंगे कि स्कूली विषयों की विषयवस्तु बहुत प्रारंभिक होती है और वैसे भी छात्र विश्वविद्यालयमें आने से पहले उन पर तो महारत हासिल कर ही चुके होते हैं। उनका मत होगा कि विश्वविद्यालयका काम ज्ञान के अग्रणी मोर्चे से सरोकार रखना है न कि उसके बीते हुए कल से। यह मत विश्वविद्यालयऔर स्कूली शिक्षा के बीच एक गहरी खाई का द्योतक है।
इस तरह के विश्वासों के चलते भावी शिक्षकों को अग्रणी विषयगत ज्ञान की दृष्टि से अपने विषयों को दोहराने का कोई अवसर नहीं मिलता - न तो विश्वविद्यालयों में और न ही अध्यापक शिक्षा के पाठ¬क्रमों में। इसे तभी दुरुस्त किया जा सकता है जब विश्वविद्यालयऔर उनके समान संस्थाएं, जो शिक्षा के पिरामिड के शिखर पर हैं, स्कूली शिक्षा समेत शिक्षा के हर स्तर की ज़िम्मेदार लें। प्रारंभिक शिक्षा की ज़िम्मेदारी सेे पल्ला झाड़ने की वजह से स्कूली शिक्षा कमज़ोर पड़ती है, जिसके परिणामस्वरूप अंतत: स्वयं विश्वविद्यालयकमज़ोर होते हैं। 
भारत में कमज़ोर पड़ चुकी विश्वविद्यालयव्यवस्था को सहारा देने के लिए समय-समय पर विश्वविद्यालयव्यवस्था के बाहर उच्च शिक्षा व अनुसंधान के आभिजात्य संस्थान स्थापित किए जाते रहे हैं, जैसे आइसर और आईआईटी। स्कूली शिक्षा की उपेक्षा सम्बंधी मेरी टिप्पणियां इन संस्थाओं पर भी लागू होती हैं।
 अपना पाठ्यक्रमबनाते समय आइसर और आईआईटी जैसी संस्थाएं अनुसंधान व उद्योग की ज़रूरतों को प्राथमिकता देती हैं किंतु उस ज्ञान की उपेक्षा करती हैं जो शिक्षण के लिए ज़रूरी है। दरअसल, इन संस्थाओं में प्रवेश लेने वाले छात्र शायद ही कभी उम्मीद करते हों कि वे शिक्षण को अपना कैरियर बनाएंगे। कुछ हद तक इसका कारण यह है कि ये संस्थाएं शिक्षण को एक विकल्प के रूप में पेश करने में असफल रहती हैं। हालांकि शिक्षण व्यवसाय मौद्रिक दृष्टि से बहुत आकर्षक नहीं है किंतु यह बौद्धिक व भावनात्मक रूप से काफी संतोषदायक है। युवा और बढ़ते छात्रों के साथ मेलजोल और उनके विकास में कुछ भूमिका अदा करना बहुत आनंददायक हो सकता है। जिस कक्षा में छात्र खुलकर अपनी बात कहते हों, वह बौद्धिक रूप से काफी चुनौतीपूर्ण हो सकती है और न सिर्फ आपको अपनी पसंद के विषय के नज़दीक बने रहने में मदद करती है बल्कि नए-नए विचारों और कड़ियों की खोजबीन करने का अवसर भी देती है। उच्च शिक्षा संस्थाओं को चुनौती और उत्साह की यही भावना उन छात्रों में संचारित करनी चाहिए जो शिक्षण के प्रति रुझान रखते हों। यह तब संभव होगा जब ये संस्थाएं और इनकी फैकल्टी स्कूली शिक्षा में रुचि दर्शाएं।
अपना पाठ्यक्रमबनाते समय आइसर और आईआईटी जैसी संस्थाएं अनुसंधान व उद्योग की ज़रूरतों को प्राथमिकता देती हैं किंतु उस ज्ञान की उपेक्षा करती हैं जो शिक्षण के लिए ज़रूरी है। दरअसल, इन संस्थाओं में प्रवेश लेने वाले छात्र शायद ही कभी उम्मीद करते हों कि वे शिक्षण को अपना कैरियर बनाएंगे। कुछ हद तक इसका कारण यह है कि ये संस्थाएं शिक्षण को एक विकल्प के रूप में पेश करने में असफल रहती हैं। हालांकि शिक्षण व्यवसाय मौद्रिक दृष्टि से बहुत आकर्षक नहीं है किंतु यह बौद्धिक व भावनात्मक रूप से काफी संतोषदायक है। युवा और बढ़ते छात्रों के साथ मेलजोल और उनके विकास में कुछ भूमिका अदा करना बहुत आनंददायक हो सकता है। जिस कक्षा में छात्र खुलकर अपनी बात कहते हों, वह बौद्धिक रूप से काफी चुनौतीपूर्ण हो सकती है और न सिर्फ आपको अपनी पसंद के विषय के नज़दीक बने रहने में मदद करती है बल्कि नए-नए विचारों और कड़ियों की खोजबीन करने का अवसर भी देती है। उच्च शिक्षा संस्थाओं को चुनौती और उत्साह की यही भावना उन छात्रों में संचारित करनी चाहिए जो शिक्षण के प्रति रुझान रखते हों। यह तब संभव होगा जब ये संस्थाएं और इनकी फैकल्टी स्कूली शिक्षा में रुचि दर्शाएं।
लिहाज़ा, यदि उच्च शिक्षा की संस्थाएं स्कूली शिक्षा में गहरी रुचि रखें तो स्कूल स्तर पर गणित व विज्ञान की शिक्षा में बहुत फायदा हो सकता है। अंतरविषयी केंद्रों की स्थापना करके विषय-आधारित शिक्षा में अनुसंधान व आउटरीच कार्यक्रम शुरू किए जा सकते हैं। समय के साथ इनका असर स्कूली शिक्षा पर अवश्य होगा - न सिर्फ अनुसंधान के परिणामों और तैयार की गई सामग्री के ज़रिए बल्कि ऐसे नेतृत्व के विकास के माध्यम से भी जिसके पास शिक्षा और गणित व विज्ञान की विषयवस्तु दोनों का गहरा ज्ञान होगा। (स्रोत फीचर्स)

