कागज़ी सेंट्रीफ्यूज यानी पेपरफ्यूज लगभग 1 लाख 25 हज़ार चक्कर प्रति मिनट की रफ्तार से घूम सकता है और गुरुत्वाकर्षण से 30,000 गुना ज़्यादा बल पैदा कर सकता है। यह किसी भी नैदानिक प्रयोगशाला के लिए उपयुक्त है। और इसकी लागत मात्र 14 रुपए है।


आधुनिक विज्ञान एक नफीस उद्यम है जिसके लिए उच्च कोटि की कुशलता और काफी पैसे की ज़रूरत होती है। यदि विज्ञान के लाभ आम लोगों तक पहुंचाने हैं तो यह एक बड़ा अवरोध साबित होता है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में यह समस्या विशेष रूप से उभरती है। हमारे पास आज ऐसी टेक्नॉलॉजी है जिसकी मदद से हम कई सारे जीवों में जेनेटिक परिवर्तन कर सकते हैं और एक मायने में ईश्वर-ईश्वर खेल सकते हैं। मगर दूर-दराज़ के किसी गांव में अत्यंत सामान्य नैदानिक जांच करने के मामले में हम समस्याओं से घिर जाते हैं।
इसका एक कारण यह है कि आजकल किसी आधुनिक नैदानिक प्रयोगशाला या अस्पताल में जिस ढंग की टेक्नॉलॉजी इस्तेमाल की जाती है वह पोर्टेबल नहीं होती या इतनी महंगी होती है कि उसका उपयोग किसी दूरस्थ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में करना मुश्किल होता है, खास तौर से यदि उपयुक्त हुनर उपलब्ध न हों।

सवाल है कि क्या यह ज़रूरी है कि नैदानिक टेक्नॉलॉजी महंगी और पेचीदा हो? स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के एक इंजीनियर मनु प्रकाश की प्रयोगशाला में इस समस्या का मुकाबला किया जा रहा है। कुछ समय पहले उन्होंने एक सस्ता ओरिगैमी सूक्ष्मदर्शी बनाकर पेश किया था। इसे फोल्डस्कोप नाम दिया गया था। अब उन्होंने एक प्रकाशन में पेपरफ्यूज नामक एक उपकरण का विवरण दिया है। यह कागज़ से बना सेंट्रीफ्यूज उपकरण है।
जैव चिकित्सा प्रयोगशालाओं में सेंट्रीफ्यूज एक महत्वपूर्ण उपकरण होता है। इसमें एक रोटर होता है जो निहायत तेज़ गति से - प्रति मिनट हज़ारों चक्कर की दर से - घूमता है। इसके इस घूर्णन की वजह से बाहर की ओर बल लगता है। इस बल की मदद से किसी मिश्रण के घटकों को उनके वज़न के हिसाब से अलग-अलग किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, रक्त कई किस्म की कोशिकाओं का मिश्रण होता है। सेंट्रीफ्यूज में थोड़ी देर के लिए रक्त को घुमाया जाए, तो इन अलग-अलग कोशिकाओं को अलग-अलग किया जा सकता है।
एक छोटे-से टेबल-टॉप सेंट्रीफ्यूज की कीमत लाखों रुपए हो सकती है और यदि बड़ी मशीन लेना हो, तो कीमत दसियों लाख रुपए तक होती है। ऐसे नफीस सेंट्रीफ्यूज को काफी सावधानीपूर्वक चलाने और रख-रखाव की भी ज़रूरत होती है। इस वजह से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में इनका उपयोग लगभग असंभव ही होता है।

मगर हम सबने चित्र में दिखाया गया लट्टू तो देखा भी होगा और उसके साथ खेले भी होंगे। यह एक गोलाकार चकती होती है जो एक लचीली डोरी को बार-बार खींचने और ढीला छोड़ने पर घूमती है। इसी खिलौने में थोड़ा फेरबदल करके गुब्बारे वाले समुद्र तटों पर बेचते हैं। इसमें तो लाइटें भी लगी होती हैं जो चकती के घूमने के साथ जलती-बुझती रहती हैं। इसे बनाने में बहुत पैसा नहीं लगता और इसे चलाने में किसी खास हुनर की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। ऐसे खिलौने कम से कम 2000 सालों से हमारे साथ रहे हैं।
स्टेनफोर्ड की उपरोक्त प्रयोगशाला के एक पोस्ट-डॉक्टरल फैलो साद भामला और उनके साथियों ने इस खिलौने की मेकेनिक्स को समझा और यह पता किया कि डोरी के तनाव को कैसे एक ऐसे बल में तबदील किया जाता है जो डोरी से जुड़ी चकती को घुमाता है। उन्होंने देखा कि सिद्धांतत: एक उपयुक्त लट्टू खिलौना प्रति मिनट 10 लाख चक्कर तक की गति पैदा कर सकता है। अपनी गणनाओं की बुनियाद पर इन शोधकर्ताओं ने एक लट्टू सेंट्रीफ्यूज (पेपरफ्यूज) डिज़ाइन किया जो 1,25,000 चक्कर प्रति मिनट की गति से घूमता है और गुरुत्व बल से 30,000 गुना ज़्यादा बल उत्पन्न करता है। यह प्रयोगशालाओं और नैदानिक कार्यों के लिए उपयुक्त है। चूंकि यह पूरी तरह कागज़ से बना है, इसकी कीमत मात्र 14 रुपए है।

अपने सिद्धांत के प्रदर्शन के तौर पर भामला और उनके साथियों ने पेपरफ्यूज का उपयोग रक्त में से प्लाज़्मा के पृथक्करण के लिए करके देखा। प्लाज़्मा के पृथक्करण के लिए रक्त के कोशिकीय पदार्थ को तली में बैठा दिया जाता है। ये लोग एक कदम और आगे बढ़े और पेपरफ्यूज का उपयोग करके रक्त में से मलेरिया परजीवी को भी पृथक कर लिया।
अभी इसे आम उपयोग का उपकरण बनने में वक्त लगेगा किंतु इतना तय है कि रोज़मर्रा के एक साधारण से खिलौने को नवाचारी ढंग से प्रयोगशाला के एक उपकरण में बदलने का प्रयास जैव चिकित्सा के इस अत्यंत उपयोगी अस्त्र को दूर-दराज़ के इलाकों में ले जाने में बहुत मददगार हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)