डॉ. अरविन्द गुप्ते
पूरे जंतु जगत में मनुष्य के मस्तिष्क के समान अनोखा अंग शायद ही कोई हो। इस अंग की बदौलत आज मनुष्य ने पूरे संसार में अपना वर्चस्व जमा लिया है। मनुष्य के विकास के संदर्भ में यह एक अहम सवाल है कि आखिर वे कौन-से कारक थे जिनके कारण मनुष्य के मस्तिष्क का ऐसा असाधारण विकास हुआ? इसका सर्वमान्य जवाब यही है कि मनुष्य के द्वारा शाकाहार छोड़ कर मांसाहार अपनाना ही वह कारक था।
मांसाहारी भोजन की कम मात्रा से मनुष्य को अतिरिक्त पोषण मिलने लगा और परिणामस्वरूप उसके मस्तिष्क का तेज़ी से विकास हुआ। शिकार किए गए जानवरों की हड्डियों पर औज़ारों के निशान नहीं पाए जाने के कारण यह माना जा सकता है कि मनुष्य के ऑस्टे्रलोपिथेकस नामक पूर्वज शाकाहारी ही रहे होंगे। इसके विपरीत, पहला आदिमानव, होमो इरेक्टस, शाकाहारी होने के साथ मांसाहारी भी था।
अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में कार्यरत ब्रिटिश मूल के प्रोफेसर रिचर्ड रैंगहैम ने इस विषय पर एक अलग तर्क प्रस्तुत किया है। उन्होंने अफ्रीका के जंगलों में लंबे समय तक रह कर चिम्पैंज़ियों का अध्ययन किया और उनका तर्क इन्हीं अध्ययनों पर आधारित है।
प्रोफेसर रैंगहैम का कहना है कि मनुष्य के मस्तिष्क के विकास का कारण केवल मांसाहार न हो कर आग में पकाए गए भोजन का सेवन भी है। उनका कहना है कि आग पर सेंकने से भोजन में उपस्थित स्टार्च और प्रोटीन के अणुओं का पाचन आसान हो जाता है और उससे इतना पोषण मिलता है कि वह शरीर और मस्तिष्क दोनों को शक्ति प्रदान करता है। इस सिद्धांत के अनुसार पूर्वजों की तुलना में आधुनिक मनुष्य के दांत छोटे और जबड़े कमज़ोर होना भी इस बात का प्रमाण है कि पकाने से भोजन नरम हो जाता है और उसे चबाने में कम ज़ोर लगाना पड़ता है। कच्चे भोजन की तुलना में पके हुए भोजन की कम मात्रा से अधिक पोषण प्राप्त किया जा सकता है और इस कारण पकाने की शुरुआत होने पर मनुष्य के पूर्वजों को भोजन खोजने, चबाने और पचाने में कम समय लगने लगा। इस कारण मनुष्य की आहारनाल छोटी हो गई और अतिरिक्त पोषण से उसके मस्तिष्क का तेज़ी से विकास हुआ।
प्रोफेसर रैंगहैम यह भी मानते हैं कि आग पर नियंत्रण पा लेने से मनुष्य के लिए ठंड से बचाव करने और हिंसक पशुओं से अपनी सुरक्षा करना आसान हो गया। इस कारण उसके लिए पेड़ों पर रहने की बजाय ज़मीन पर रहना संभव हो पाया।
प्रोफेसर रैंगहैम के तर्क के विरोधी भी हैं। उनका कहना है मनुष्य के मस्तिष्क का विकास तो आग के आविष्कार से पहले शुरु हो गया था जब मनुष्य ने शाकाहार छोड़ कर मृत जानवरों के शरीरों को खाना शुरु कर दिया था।
किंतु प्रोफेसर रैंगहैम का कहना है कि पहली बात यह है कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि आग का उपयोग मानव ने कब से करना शुरु किया। दूसरे, उनका यह भी कहना है कि केवल पकाने से ही भोजन की गुणवत्ता में बढ़ोतरी नहीं होती। मनुष्य ने भोजन को पकाने के साथ ही उसे औज़ारों की सहायता से काटना, कूटना और छीलना शुरु किया। इससे भोजन को पचाना और भी आसान हो गया।
इसे ले कर प्रोफेसर रैंगहैम के दो सहयोगियों कैथरीन ज़िंक और डेनियल लीबरमन ने एक रोचक प्रयोग किया जिसका विवरण उन्होंने नेचर पत्रिका में प्रकाशित किया है। उन्होंने होमो इरेक्टस द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले पाषाणकालीन औज़ारों के नमूने बनाए और उस प्रकार का भोजन चुना जो वह आदिमानव खाता रहा होगा यानी कंदमूल (चुकंदर, गाजर, आदि) और बकरे का मांस। इसके बाद वनस्पतियों को चार विधियों से बनाया गया - (1) बिलकुल कच्चे रूप में बिना किसी उपचार के, (2) कच्चा और पत्थर के हथौड़े से छह बार कूट कर, (3) कच्चा और छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर और (4) 15 मिनिट तक भूनकर। बकरे के मांस पर भी चार विधियों से उपचार किया गया: (1) बिलकुल कच्चा बिना किसी उपचार के (2) कच्चा और हथौड़े से पचास बार कूटा हुआ (3) कच्चा और छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा हुआ, और (4) 25 मिनिट तक चूल्हे पर सिका हुआ।
खाने के सभी प्रकार वालंटियर्स के एक-एक समूह को खाने के लिए दिए गए और यह देखा गया कि चबाने के लिए कौन-सा भोजन सबसे आसान है। इसके लिए वालंटियर्स के जबड़ों की त्वचा पर इलेक्ट्रोड लगाए गए थे जो यह नापते थे कि चबाने के लिए उस व्यक्ति को कितना ज़ोर लगाना पड़ता है। वालंटियर्स से कहा गया कि वे दिए गए भोजन को तब तक चबाते रहें जब तक उन्हें यह महसूस न हो कि वह अब निगलने योग्य हो गया है। कभी-कभी चबाए गए भोजन को निगलने की अनुमति दी जाती थी और कभी-कभी उन्हें यह कहा जाता था कि वे भोजन को थूक दें ताकि चबाए हुए भोजन का विश्लेषण किया जा सके। कच्चे मांस को हमेशा थूकने के लिए कहा जाता था ताकि किसी प्रकार का संक्रमण न हो।
डॉ. जिंक और डॉ. लीबरमन ने पाया कि उनके अवलोकन प्रोफेसर रैंगहैम के तर्क के अनुसार ही थे। कच्ची सब्ज़ियों को चबाने की तुलना में पकाई हुई सब्ज़ियों की उतनी ही मात्रा को चबाने के लिए एक-तिहाई कम बल लगाना पड़ता था। सब्ज़ियों के टुकड़े करने से कोई लाभ नहीं होता था किंतु उन्हें कूटने पर लगभग 9 प्रतिशत कम बल लगाना पड़ता था। मांस को कूटने से कोई फर्क नहीं पड़ता था किंतु उसे काट कर टुकड़े करने से पड़ता था। पकाई हुई सब्ज़ियों के समान ही उसमें एक-तिहाई कम बल लगाना पड़ता था। एक आश्चर्यजनक अवलोकन यह रहा कि मांस को सेंकने पर उसे चबाने के लिए अधिक बल लगाना पड़ा। जब दोनों शोधकर्ताओं ने वालंटियर्स द्वारा निगलने के लिए तैयार, उगले हुए भोजन का निरीक्षण किया तो पाया कि बिना कोई प्रक्रिया किया हुआ और कूटा हुआ भोजन एक ऐसे बड़े कौर के रूप में था जिसे पचाना आहार नाल के लिए मुश्किल होता। इसके विपरीत, जब भोजन को काट कर उसके टुकड़े कर दिए जाते थे या उसे पकाया जाता था, वालंटियर्स उसे चबा कर छोटे-छोटे पाचन योग्य टुकड़ों के रूप में बदल सकते थे।
इन सब परिणामों को जोड़ कर देखने पर डॉ. ज़िंक और डॉ. लीबरमन इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि एक-तिहाई मांस के टुकड़े और दो-तिहाई कूटी हुई सब्ज़ियां बिना पकाए चबाने के लिए (जो संभवतया होमो इरेक्टस खाया करते होंगे) केवल बिना कूटी हुई सब्ज़ियां खाने की तुलना में 27 प्रतिशत कम बल लगाना पड़ता है। इसका मतलब यह हुआ कि भोजन को केवल पकाने से ही नहीं बल्कि उसे काटने, छीलने और कूटने से पचाना आसान हो गया और उससे मस्तिष्क के विकास के लिए आवश्यक अतिरिक्त पोषण आदिमानव को मिलने लगा। इसका एक परिणाम यह सामने आया कि होमो इरेक्टस के जबड़े और दांत उसके पूर्वजों की तुलना में छोटे हो गए। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - April 2017
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