साठ साल पहले एला फिट्ज़गैराल्ड गाया करती थी: “परिंदे करते हैं, मधुमक्खियां करती हैं।” हालांकि उनका आशय प्यार करने से था, मगर हम इस पंक्ति में प्यार की जगह नींद भी रख सकते हैं। नींद सभी प्राणियों के दैनिक जीवन का एक ज़रूरी पहलू है। यह न केवल आराम और आरोग्यता देती है बल्कि स्वयं मस्तिष्क को व्यवस्थित करने में भी मदद करती है।
और तो और, मछलियां भी सोती हैं, हालांकि खुली आंखों के साथ। डॉल्फिन जैसी बड़ी मछलियां भी रोज़ाना 10 घंटे से ज़्यादा सोती हैं। नींद की भूमिका की समझ जंतुओं, खासकर स्तनधारियों और अंतत: हम मनुष्यों के विकास के सुराग प्रदान करती है। कुत्ते एक दिन में 12-14 घंटे सोते हैं लेकिन इस दौरान बहुत चौकन्ने रहते हैं। इसे देखकर ही भारतीय मुनियों ने छात्रों के लिए कुत्तों जैसी नींद (श्वान-निद्रा) की सलाह दी है। जैव विकास की सीढ़ी में उससे ऊपर चलें तो बोनट बंदर 12 घंटे या उससे भी ज़्यादा की नींद लेता है। चिंम्पैज़ी (मानव के निकटतम जीव) भी 10 घंटे की नींद लेते हैं जबकि हम मनुष्य दिन में 8 घंटे ही सोते हैं।
दिलचस्प बात है कि बोनट बंदर तो कहीं भी सो जाता है जबकि चिम्पैंज़ी सोने के लिए पेड़ पर बिस्तर (पत्तियों और शाखाओं को इकट्ठा करके) बिछाता है और 10 या ज़्यादा घंटे या उससे ज़्यादा आराम फरमाता है। ओरांगुटान बंदर भी इसी तरह से अपना बिस्तर बिछाता है लेकिन वह रोज़ाना नया बिस्तर बिछाता है और अपने आपको पत्तियों, टहनियों से ढंक लेता है ताकि शिकारियों और रक्त चूसने वाले कीटों से सुरक्षा हो सके। ड्यूक युनिवर्सिटी के डॉ. डेविड आर. सैमसन ने सावधानीपूर्वक इन विकसित वानरों के नींद के घंटे और पैटर्न देखे और उनकी तुलना अफ्रीका के शिकारी-संग्रहकर्ता मनुष्यों और यूएस के आधुनिक मनुष्यों से की।
उन्होंने जंतुओं, वनमानुषों और मनुष्यों की नींद (कितनी लंबी और कितनी गहरी) और संज्ञान क्षमता के बीच सम्बंध बताया। यह तथ्य कि ओरांगुटान और चिम्पैंज़ी बिस्तर बिछाते हैं और अपने आपको सुरक्षित रूप से ढंक लेते हैं ताकि लंबी और गहरी नींद सो सकें, उनकी सोचने, नवाचार करने और स्वयं की रक्षा करने की क्षमता की ओर इशारा करता है। जब सैमसन ने उनके सोने के पैटर्न को देखा तो पाया कि वे नींद के दौरान रेपिड आई मूवमेंट (आरईएम) वाली निद्रा सिर्फ 18 प्रतिशत समय ही सोते हैं। आरईएम निद्रा इंगित करती है कि इस दौरान सपने देखने, यादों को संग्रहित करने और पुनरावृत्ति करने से मस्तिष्क और शरीर को ऊर्जा मिलती है और याददाश्त, सीखना और दूसरे संज्ञानात्मक कार्य होते हैं। और बाकी 10 घंटों की 82 प्रतिशत गहरी और आरामदायक नींद होती है। इसकी तुलना में बोनट बंदर में आरईएम नींद केवल 12 प्रतिशत होती है और बाकी 88 प्रतिशत गैर-आरईएम नींद होती है।
सभी प्रजातियों में आरईएम नींद का प्रतिशत मौटे तौर पर संज्ञान, मस्तिष्क के विकास और उसकी गतिविधि से देखा गया है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण नवजात मनुष्य शिशु में देखा जा सकता है। आरईएम नींद सबसे ज़्यादा बढ़ते नवजातों में होती है (अक्सर 50 प्रतिशत से ज़्यादा) जो यह इंगित करती है कि उनका मस्तिष्क जानकारी के संग्रहण, समेकन, व्यवस्थित करने और उपयोग करने में लगा हुआ है। उम्र के साथ आरईएम नींद कम होती जाती है और 65 की उम्र तक 22 प्रतिशत बच जाती है। (जापानी प्राइमेट वैज्ञानिकों ने आरईएम में उम्र-आधारित ऐसा ही पैटर्न चिम्पैंज़ी में भी देखा है)।
उस समय क्या हुआ होगा जब आदिमानव शिकारी-संग्रहकर्ता समूह गांवों में बसने लगे और आग जलाना, रहने के लिए घर बनाना, खेतीबाड़ी करना आदि तकनीकों की खोज की। सचमुच, इसी के साथ सोने-जागने के पैटर्न भी बदले। डॉ. सैमसन और उनके साथी तंज़ानिया की शिकारी जनजातियों (हाडज़ास का एक समूह जो आज भी अस्तित्व में है) के सोने-जागने के पैटर्न की तुलना यूएस के पश्चिमी आधुनिक मनुष्यों से करने में कामयाब हुए हैं। इससे सम्बंधित पर्चा हाल ही में अमेरिकन जर्नल ऑफ फिज़ियोलॉजी एंड एंथ्रोपोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। ये आदिवासी प्राकृतिक रूप से जीते हैं और इनके शरीर की दैनिक घड़ी सूरज और चांद जैसे रोशनी के स्रोतों से जुड़ी है। इसके विपरित हम आधुनिक मनुष्य कृत्रिम रोशनी का उपयोग करते हैं और बंद कमरे में सोते हैं और मनुष्य-निर्मित दिनचर्या को जीते हैं। इस प्रकार हमारे शरीर की घड़ी प्राकृतिक नहीं रही है।
डॉ. सैमसन और डॉ. नन ने इवॉल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी में 2015 के अपने पर्चे में लिखा था कि जब उन्होंने नींद पैटर्न की तुलना की तो पाया कि हाडज़ास प्रतिदिन केवल 6.25 घंटों की नींद ही ले पाते हैं और उसकी कार्यक्षमता मात्र 69 प्रतिशत होती है। इसकी तुलना में आधुनिक मानव 8 घंटों की लंबी और गहरी नींद सोते हैं, जिसकी कार्यक्षमता 90-94 प्रतिशत होती है। शिकारी-संग्रहकर्ता चौकन्ने होकर सोते हैं। किसी भी गड़बड़ी के प्रति सचेत, जैसे जानवरों से खतरा, आसपास का शोर, मौसमी उतार-चढ़ाव वगैरह। जबकि आधुनिक मनुष्य अपने सुरक्षित परिवेश की बदौलत इन सबसे मुक्त आराम से सोते हैं।
एक मायने में ये आदिमानव श्वान-निद्रा लेते हैं, चौकन्ने और तैयारी के साथ लेकिन जितना हम सोचते हैं उससे बहुत कम समय के लिए। हालांकि वे दोपहर में 90 मिनिट या अधिक की झपकी ले कर इसकी पूर्ति कर लेते हैं। यह एक बात है जिसे हम आधुनिक मनुष्यों को सीखने की ज़रूरत है। शुक्र है कि दोपहर की यह झपकी या स्पेनिश में सिएस्टा अब भी युरोप के कुछ हिस्सों में प्रचलन में है। स्लीप फाउंडेशन संस्था दोपहर की झपकी का गुणगान करती है। उनका कहना है कि झपकी सतर्कता को बहाल करती है, कार्य निष्पादन को बेहतर बनाती है और गलतियों और दुर्घटनाओं को कम करती है। नासा द्वारा फौजी पायलटों और अंतरिक्ष यात्रियों पर किए गए अध्ययन में पाया गया है कि 40 मिनट की झपकी उनके प्रदर्शन को 34 प्रतिशत और सतर्कता को 100 प्रतिशत तक बढ़ा देती है। अंतरिक्ष यात्रियों के लिए सही है तो हमारे लिए भी सही होगा। (स्रोत फीचर्स)