भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने हाल ही में अस्पतालों और चिकित्सकों के लिए एंटीबायोटिक औषधियों के उपयोग सम्बंधी दिशानिर्देश जारी किए हैं।
परिषद द्वारा जारी दिशानिर्देश दस्तावेज़ में कहा गया है कि सूक्ष्मजीव रोधी औषधियों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित होना विश्व स्तर पर एक समस्या के रूप में सामने आया है। ऐसे प्रतिरोधी सूक्ष्मजीवों के चलते न सिर्फ मृत्यु दर व रुग्णता में वृद्धि हुई है, बल्कि स्वास्थ्य सेवा की लागत भी बढ़ी है। प्रतिरोध की यह समस्या मुख्य रूप से एंटीबायोटिक औषधियों के गैर-तार्किक उपयोग के कारण पैदा हुई है।
इस समस्या के मद्दे नज़र परिषद ने सूक्ष्मजीवों में औषधि प्रतिरोध की निगरानी के लिए 2013 में एक नेटवर्क स्थापित किया था जिसमें सरकारी व निजी चिकित्सा विशेषज्ञ शामिल थे। अब इस नेटवर्क की रिपोर्ट के आधार पर दिशानिर्देश विकसित करके चंद अस्पतालों को भेजे गए हैं और उनके फीडबैक के आधार पर अंतिम दिशानिर्देश जारी किए जाएंगे।
दिशानिर्देशों में मुख्य ज़ोर इस बात पर है कि एंटीबायोटिक औषधियों का उपयोग प्रमाण-आधारित हो। खास तौर से यह कहा गया है कि अंतिम हथियार के तौर पर उपलब्ध एंटीबायोटिक कार्बेपेनीम का उपयोग हल्के-फुल्के संक्रमणों के लिए न किया जाए। इनका उपयोग तभी किया जाए जब ज़रूरी हो। इसके लिए प्रयोगशाला जांच के महत्व को रेखांकित किया गया है।
परिषद ने यह भी कहा है कि दवा विक्रेताओं को सख्त हिदायत दी जा रही है कि वे डॉक्टरी पर्ची के बगैर एंटीबायोटिक दवाइयां न बेचें। मरीज़ों द्वारा खुद निर्णय करके एंटीबायोटिक का सेवन करना प्रतिरोध विकसित होने में काफी योगदान देता है।
विशेषज्ञों का मत है कि एंटीबायोटिक उपयोग को लेकर भारत में डॉक्टरों को सही जानकारी व प्रशिक्षण नहीं मिलता है। उनके लिए जानकारी का प्रमुख स्रोत दवा कंपनियों के मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव होते हैं। हालांकि भारत में एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या से निपटने के लिए नीति 2011 से ही अस्तित्व में है किंतु कई अस्पताल, डॉक्टर्स, नर्सिंग होम्स में आज भी एंटीबायोटिक्स का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। (स्रोत फीचर्स)