प्राणि विज्ञान के वरिष्ठ प्राध्यापक प्रोफेसर अशोक शर्मा ने 1975 में पीएच.डी. की उपाधि के लिए अपना शोध प्रबंध (थीसिस) हिंदी भाषा में प्रस्तुत किया था। यह विज्ञान में हिंदी में प्रथम शोध प्रबंध था। इस साल 2025 में उनकी इस उपलब्धि के 50 वर्ष पूरे हो गए हैं। विज्ञान संचारक चक्रेश जैन ने इस प्रसंग पर डॉ. अशोक शर्मा से भेंटवार्ता की। यहां प्रस्तुत है उनसे की गई भेंटवार्ता।

हिंदी में थीसिस लिखने का विचार कैसे आया?
विज्ञान विषयों पर लिखना एक अहम काम है। जिन दिनों मैं कॉलेज पढ़ रहा था, उस समय विज्ञान विषय में हिंदी में अच्छी और स्तरीय पुस्तकें उपलब्ध नहीं थीं, जबकि अंग्रेज़ी में बहुत अच्छी और प्रामाणिक किताबें उपलब्ध होती थीं।
जब मेरा पीएच.डी. का सिलसिला शुरू हुआ, उन दिनों डॉ. वेदप्रताप वैदिक (वरिष्ठ पत्रकार और समाचार एजेंसी पीटीआई में भाषा के पूर्व संपादक) का इंदौर में अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन चल रहा था। शायद उन्होंने थीसिस हिंदी में लिखी थी और इसमें दिक्कत आई थी। इस कारण उनको लगा था कि अंग्रेज़ी हटाकर हिंदी आना चाहिए। यह आंदोलन बहुत अच्छा चला था और इससे मुझे हिंदी में थीसिस लेखन की प्रेरणा मिली थी।
हालांकि मेरा सोचना है कि अंग्रेज़ी हटाओ एक नकारात्मक विचार है। इसकी बजाय क्यों न हिंदी को थोड़ा विकसित और संपन्न किया जाए। मैं शुरू से ही यह मानता रहा हूं कि हिंदी में इतनी क्षमता है कि इसमें स्नातक व स्नातकोत्तर शिक्षा ही नहीं बल्कि पीएच.डी. शोध प्रबंध भी लिखे जा सकते हैं। थोड़े से प्रयास और मेहनत की ज़रूरत है।
हिंदी में शोध मार्गदर्शक मिलने में कोई कठिनाई आई?
विज्ञान में अब तक कोई भी थीसिस हिंदी भाषा में नहीं लिखी गई थी। मुझे लगा कि इस काम को हाथ में लेना चाहिए और एक चुनौती के रूप में लेना चाहिए। तो, मैंने इस बारे में कुछ प्राध्यापकों से विचार-विमर्श किया। संयोग से मुझे एक युवा प्राध्यापक डॉ. सुरेश्वर प्रसाद शर्मा मार्गदर्शन देने के लिए तैयार हो गए। कालान्तर में डॉ. शर्मा रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के वाइस चांसलर भी रहे।
मैंने उनके मार्गदर्शन में शोध प्रबंध लिखना शुरू किया और यह काम 1975 में पूरा हो गया। हालांकि पीएच.डी. अवॉर्ड होने में बहुत समय लगा। क्योंकि हिंदी में लिखी थीसिस को बहुत से लोगों ने मंगवा तो लिया, लेकिन बाद में अस्वीकृत कर वापस लौटा दिया।
दिल्ली विश्वविद्यालय में मेरी थीसिस मूल्यांकन के लिए भेजी गई थी। वहां के तत्कालीन विभाग प्रमुख और प्राध्यापक मेरी थीसिस लगभग एक साल तक अपने पास रखे रहे, जांची भी नहीं और लौटाई भी नहीं। इस सिलसिले में काफी पत्र-व्यवहार करने के बाद ही थीसिस लौटाई। बाद में एक दूसरे प्रोफेसर के पास मूल्यांकन के लिए भेजी गई। उसके बाद पीएच.डी. अवार्ड हुई।

डॉ. अशोक शर्मा लगभग चार दशकों तक प्राणि विज्ञान के प्राध्यापक रहे हैं। एक लंबी अवधि तक होल्कर साइंस कॉलेज, इंदौर में शिक्षण और शोध में सक्रिय रहे डॉ. शर्मा ने धार और बड़वाह के महाविद्यालयों में भी अध्यापन किया है।
वे होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से भी जुड़े रहे हैं। जीवन के उत्तरार्द्ध में वे मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी की प्रकाशन गतिविधियों से जुड़े हुए हैं।


क्या विज्ञान की थीसिस हिंदी में लिखने के पहले हिंदी के जानकारों के साथ चर्चा की थी?
हां, और इसमें दो बातें मददगार रहीं। पहली, मेरी स्वयं की हिंदी बहुत अच्छी है। दूसरी, मेरी थीसिस के गाइड हिंदी के बड़े विद्वान थे।
हालांकि, विज्ञान में हिंदी में थीसिस लिखने में मुझे कुछ अधिक परिश्रम करना पड़ा था, क्योंकि सारे संदर्भ (reference) अंग्रेज़ी में ही मिलते थे। दूसरा, सभी शोध जर्नल्स अंग्रेज़ी भाषा में होते थे। ऐसी स्थिति में सबसे पहले उनको पढ़ा-समझा। और फिर हिंदी में लिखा। काम कठिन तो था ही, लेकिन मेरे युवा और परिश्रमी मार्गदर्शक डॉ. शर्मा के कारण यह संभव हो सका।
हिंदी में थीसिस लिखने पर उसकी प्रामाणिकता को लेकर सवाल हुए?
दरअसल, डॉ. शर्मा का कहना था कि जब तक थीसिस से सम्बंधित शोध लेख किसी अंतर्राष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित नहीं हो जाते, तब तक हम इसे प्रस्तुत नहीं करेंगे। उनका विचार था कि यह प्रामाणिकता के लिए ज़रूरी है। मेरी थीसिस के सभी अध्याय केनेडियन जर्नल ऑफ ज़ुऑलॉजी में प्रकाशित हुए। इसलिए पीएच.डी. अवॉर्ड होने में ज़्यादा कठिनाई नहीं हुई।
थीसिस प्रकाशन को लेकर कुछ प्रयास हुए थे?
मुझे 1977 में थीसिस अवॉर्ड हो गई थी। उसके बाद जब प्रकाशन की बात आई तो कुछ चीज़ें सामने आईं। पहली तो यह है कि विशेष रूप से प्राणि विज्ञान के शोध कार्य में फोटोग्रॉफ बहुत अधिक होते हैं। मैंने रीटा रीटा (Rita rita) नामक मछली की रीप्रोडक्टिव एन्डोक्रॉइनोलॉजी पर शोध किया था। इसमें लगभग 250 फोटोग्रॉफ थे। इतने सारे फोटो की थीसिस का प्रकाशन बहुत महंगा था। कोई भी प्रकाशक इसे छापने के लिए तैयार नहीं हुआ। दूसरा यह है कि इसकी आर्थिक वैल्यू नहीं थी। इन दोनों कारणों से थीसिस प्रकाशित नहीं हुई।
लेकिन, इस पूरे प्रयास में विशेष रूप से जो उल्लेखनीय बात है वह ‘समय’ है। आज के समय बहुत सारी सुविधाएं हैं। अब, हिंदी बहुत ज़्यादा प्रचलित है। ठीक-ठाक साहित्य हिंदी में है। लेकिन उन दिनों हिंदी में विज्ञान का साहित्य बहुत कम था। हिंदी में विज्ञान की पत्र-पत्रिकाएं गिनी-चुनी थीं। अनुसंधान पत्रिकाओं का तो अभाव ही था। कुल मिलाकर कहा जा सकता है आज के दौर में इसका इतना महत्व नहीं है, जितना उन दिनों था।
आपने हिंदी में विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए किस तरह योगदान किया? 
मैंने कुछ लेख लिखे हैं, जो उन दिनों प्रसिद्ध समाचार पत्र ‘नई दुनिया’ में प्रकाशित हुए हैं। विद्यार्थियों को प्राणि विज्ञान विषय समझाने के लिए हिंदी को ही चुना है। मैं लंबे समय तक होल्कर साइंस कॉलेज, इंदौर में प्राध्यापक रहा हूं। यहां हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों माध्यम में विद्यार्थी होते थे। जिन विद्यार्थी की पिछली पूरी पढ़ाई हिंदी माध्यम में हुई थी, उनकी मैंने काफी सहायता की और विषय को सरलतम तरीके से हिंदी में समझाने की पूरी कोशिश की। मैं इस दिशा में किए गए अपने प्रयासों से संतुष्ट हूं। (स्रोत फीचर्स)