अत्यंत ऊर्जावान पराबैंगनी प्रकाश (यूवी-सी) इतना घातक होता है कि लगभग सारी कोशिकाओं को मार डालता है। इसी वजह से इसका इस्तेमाल अस्पतालों में विसंक्रमण के लिए किया जाता है। लेकिन हाल ही में एस्ट्रोबायोलॉजी में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार एक जीव इतना सख्तजान है कि वह यूवी-सी को भी झेल जाता है।
यूवी-सी से बच निकलने वाला यह जीव एक लाइकेन है। लाइकेन दरअसल मिश्रित जीव होते हैं और एक फफूंद तथा एक शैवाल से मिलकर बनते हैं। लगता है कि इस मिश्र-जीव ने यूवी-सी का तोड़ निकाल लिया है।
डेज़र्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के खगोलजीव वैज्ञानिक हेनरी सन ने फील्ड वर्क के दौरान देखा था कि मोजावे के गर्म रेगिस्तान में एक लगभग काला-सा लाइकेन फल-फूल रहा था। सन ने अनुमान लगाया कि शायद इसका काला रंग, जो हरे पर हावी हो गया था, ही इसके रेगिस्तान में ज़िंदा रहने का राज़ है। इस लाइकेन क्लेवेसिडियम लेसिन्यूलेटम (Clavascidium lacinulatum) के नमूने प्रयोगशाला में लाकर अपने एक छात्र तेजिंदर सिंह को उसके अध्ययन में लगा दिया। 
तेजिंदर सिंह ने पहले तो लाइकेन को सुखा दिया। इसके बाद उन्होंने लाइकेन को एक यूवी लैम्प के नीचे रखा और उस पर विकिरण की बौछार की। लाइकेन ठीक-ठाक ही रहा। तब सिंह ने उस पर अत्यंत शक्तिशाली यूवी-सी बरसाया (लगभग उतना जितना मंगल पर उम्मीद की जा सकती है)। ऐसा ही यूवी-सी परीक्षण पृथ्वी पर पाए जाने वाले सर्वाधिक विकिरण रोधी बैक्टीरिया (डाइनोकॉकस रेडियोड्यूरेन्स, Deinococcus radiodurans) पर किया तो वह एक मिनट के अंदर मर गया था। यह मानकर चला जा रहा था कि लाइकेन कुछ घंटे या अधिक से अधिक कुछ दिन जी पाएगा। लेकिन तीन महीने तक परीक्षण करने के बाद जब वह नमूना निकाला गया तो उसमें मौजूद आधी से ज़्यादा शैवाल कोशिकाओं में से अंकुर फूटे और 2 सप्ताह में वहां बढ़िया हरी-भरी बस्ती तैयार हो गई। यानी इतने अत्याचार के बाद भी शैवाल में प्रजनन क्षमता मौजूद थी।
दिलचस्प बात थी कि यह प्रयोग सिर्फ लाइकेन के साबुत नमूने पर ही सफल रहा। यही प्रयोग जब फफूंद के बगैर शैवाल कोशिकाओं की एक मोटी परत पर किया गया तो वे चंद मिनटों में मर गई। अर्थात ऊपरी परत की कोशिकाएं अन्य कोशिकाओं को मात्र विकिरण से सुरक्षा नहीं दे रही थीं।
लाइकेन की इस जीजिविषा का कारण जानने के लिए सन की टीम ने रसायनज्ञों की मदद से लाइकेन में यूवी-अवशोषक पदार्थों की पहचान की। ये रसायन लाइकेन को यूवी से सुरक्षा देते हैं। लेकिन एक सवाल बना रहा कि ये रसायन इस लाइकेन में बनना ही क्यों शुरू हुए। सवाल इसलिए था क्योंकि पृथ्वी की ओज़ोन परत करीब 50 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई मानी जाती है। यानी लाइकेन्स के उद्भव से काफी पहले ओज़ोन परत अस्तित्व में आ चुकी थी और पृथ्वी पर यूवी का आपतन बहुत कम रह गया था। तो यूवी से सुरक्षा की यह व्यवस्था क्यों बनी होगी?
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि लाइकेन्स में यह व्यवस्था खुद को स्वयं पृथ्वी के वातावरण से सुरक्षित रखने के लिए बनी होगी क्योंकि एक समय पर वनस्पतियों के फैलाव की वजह से वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने लगी थी। ऑक्सीजन सजीवों के लिए अनिवार्य तो है लेकिन यह ऐसे क्रियाशील अणु पैदा कर सकती है जो डीएनए को नुकसान पहुंचाते हैं। 
इसी प्रयोग में एक और रोचक बात पता चली। ये सुरक्षात्मक रसायन लाइकेन के अंदरूनी भाग में नहीं बल्कि उसकी ऊपरी सतह पर जमा हो जाते हैं, ठीक सनस्क्रीन की तरह। कई शोधकर्ता लाइकेन की इस खूबी के उपयोग की बात कर रहे हैं। अलबत्ता, मनुष्य के लिए उपयोगी हो न हो, लाइकेन के लिए तो यह सुरक्षा व्यवस्था उपयोगी है ही। (स्रोत फीचर्स)