रोहिणी गोडबोले द्वारा संपादित पुस्तक लीलावती'ज़ डॉटर्स में कई महिला वैज्ञानिकों की जीवनियों के माध्यम से उनके संघर्ष को प्रस्तुत किया गया है। लीलावती प्रसिद्ध गणितज्ञ भास्कराचार्य की पुत्री थी। इसी के आधार पर आजकल की महिला वैज्ञानिकों को लीलावती की बेटियां कहा गया है।

लीलावती के ज़माने से आज लीलावती की बेटियों के लिए बहुत सी चीज़ें बदल गई हैं। बावजूद इसके, उनकी कहानी के कई हिस्से उनकी बेटियों के जीवन में भी झलकते हैं। सबसे पहले ज़िक्र सकारात्मक बदलावों का। कुछ साल पहले तक इस वास्तविकता को चिंताजनक विषय के रूप में देखना तो दूर, इस हकीकत को माना तक नहीं गया था कि विज्ञान के कार्यबल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व (या मौजूदगी) कम है।
लेकिन अब यह स्थिति पूरी तरह से बदल गई है। अब सभी निर्णय लेने वाली संस्थाएं, चाहे वे संस्थान हों, या अकादमियां हों, या सरकारी विभाग हों, इस मुद्दे पर ध्यान देने की ज़रूरत महसूस करते हैं। यह पिछली पीढ़ियों की महिलाओं के अनुभव से काफी अलग है।
आईआईटी बॉम्बे में, जहां मैं सत्तर के दशक में एमएससी की छात्र थी, फैकल्टी इस बात से खुश थे कि एमएससी के कुछ बैचों में लगभग 50 प्रतिशत लड़कियां दाखिल हैं। हमारे शिक्षक भी इस तथ्य से वाकिफ थे कि फैकल्टी स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है (तब भौतिकी विभाग में एक महिला थी)। हालांकि, उन्होंने सोचा कि यह विधि का अपरिवर्तनीय विधान है, और इसमें बदलाव लाना उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी का हिस्सा नहीं समझा। अब ऐसी स्थिति कहीं नहीं है।
मैं प्रवेश स्तर पर महिलाओं को पेश आने वाली समस्याओं के बारे में ज़्यादा नहीं कहूंगी, क्योंकि इनके बारे में तो सबको अच्छी तरह से पता है और इन पर बहुत चर्चा भी होती है। अपने बारे में बात करूं, तो मैंने इस समस्या को बायपास कर दिया, क्योंकि सौभाग्य से मुझे शुरुआती चरण में पुणे विश्वविद्यालय में एक फैकल्टी का पद मिल गया। तब पुणे विश्वविद्यालय में न केवल एक अत्यंत सक्रिय भौतिकी विभाग था, बल्कि वहां महिला फैकल्टी की संख्या दहाई में थी (मैं दसवीं महिला फैकल्टी थी!)।
यह एक अनोखी स्थिति थी, और दुर्भाग्य से (कमोबेश) यही अनोखी स्थिति अब भी बनी हुई है। हालांकि, हममें से जो लोग वहां थे, उन्हें एक-दूसरे से बहुत सहयोग मिला। इसके अलावा, यह बहुत ही खुशमिजाज़ विभाग था जिसमें लोग अपने काम के प्रति महत्वाकांक्षी थे। इसने वास्तव में मुझे अपने शुरुआती वर्षों में आगे बढ़ने में मदद की। और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मुझे ऐसे विषयों पर काम शुरू करने में मदद मिली, जिनकी मैं पहले से कोई जानकार नहीं थी। यहां इस बात को ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह विभाग न तो अच्छी तरह वित्त-पोषित था और न ही कोई प्रसिद्ध विभाग था। इसमें बस ऐसे लोग थे जिनमें ‘हम कर सकते हैं’ का जज़्बा था। और, अंतत: यही मायने रखता है।
यह सब सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन परेशानियां और भी थीं। मैंने और मेरे पति ने दस साल तक अलग-अलग शहरों में काम किया (पुणे और चैन्नई, जो पास-पास तो कदापि नहीं हैं)। यहां भी, मुझे अपने और अपने पति दोनों के परिवार से समर्थन मिला, और मैं इस समर्थन की आभारी हूं। यदि वे हम पर दबाव डालते तो शायद मैं नौकरी छोड़ देती, जैसा कि कई महिलाओं ने किया भी है।
इस बीच, एक ही जगह पर काम करने की कोशिश कर रहे जोड़ों के लिए काम का माहौल बिल्कुल भी मददगार नहीं था। थक-हार कर मैं आईआईटी मद्रास चली गई, और वहां जाना मेरे लिए सौभाग्यशाली साबित हुआ। संस्थान में बहुत बड़े बदलाव हो रहे थे, और मुझे वहां अपना एक अलग मुकाम मिला। हालांकि यह बदलाव पीड़ादायी था।
मुझे मेरे मुनासिब ओहदे पर नहीं रखा गया था, शायद इसलिए क्योंकि मैं अपनी मनवाने की स्थिति में नहीं थी, जैसा कि अक्सर महिलाओं के साथ होता है। मैं जितने रूढ़िवादी और नौकरशाही माहौल की आदी थी, यहां का माहौल उसकी तुलना में कहीं अधिक रूढ़िवादी और नौकरशाही वाला था। बदलाव के दौर के मेरे साथी मेरे शोधार्थी थे, जो मेरे साथ यहां आ गए थे। उन्हें भी अपनी जगह से उखड़ने का एहसास हो रहा था, लेकिन किसी तरह हम एक-दूसरे का हाथ थामकर इस बदलाव के दौर से गुज़रकर उबर आए।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा, जूनियर महिला शिक्षकों द्वारा झेली जाने वाली समस्याओं से सब अब अच्छी तरह वाकिफ हैं, भले ही उनका समाधान अभी तक न हुआ हो। इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य सभी ओहदों पर महिलाओं को अपने हिस्से के संघर्षों का सामना नहीं करना पड़ता। मध्यम स्तर के पदों पर मौजूद महिलाएं, एक व्यक्ति के रूप में और एक पेशेवर के रूप में, अपना सिर पानी से ऊपर रखने के लिए जूझती हैं। वे एक ही समय में वरिष्ठ और कनिष्ठ दोनों हैं! यानी, उन्हें स्वायत्तता दिए बिना ज़िम्मेदारी दी जाती है। वरिष्ठ पदों पर आसीन महिलाओं से अक्सर उनके वरिष्ठ सहकर्मी आज्ञाकारी होने की अपेक्षा रखते हैं, और उनके कनिष्ठ सहकर्मी दब कर रहने की अपेक्षा रखते हैं।
उत्पीड़न के मुद्दे कई जगहों पर हैं, और इनसे शायद ही कभी पेशेवर तरीके से निपटा जाता है। महत्वपूर्ण मुद्दों पर महिलाओं द्वारा उठाए गए गंभीर कदम (आवाज़) को उनके पुरुष सहकर्मियों द्वारा उठाए गए इसी तरह के कदमों से कहीं अधिक नापसंद किया जाता है। ऐसे रोल मॉडल बहुत कम हैं जिन्होंने इन समस्याओं को सफलतापूर्वक संभाला है। हालांकि, कई महिलाएं अपना नेटवर्क विकसित करती हैं और जान-पहचान और दोस्तों से सही सलाह एवं समर्थन से इन स्थितियों से उबरने में कामयाब हो जाती हैं। लीलावती की बेटियां दोस्तों की थोड़ी मदद से काम चला रही हैं।
अंत में, हम इस पीढ़ी की महिलाएं अगली पीढ़ी की महिलाओं के लिए क्या उम्मीद करती हैं? आदर्श स्थिति शायद यह हो कि वे श्रेष्ठ और अनुकूल मुकाम पर पहुंचे, और यदि वे इस मुकाम पर हों तो उन्हें आश्चर्य हो कि हम जो इतनी चिल्लपों कर रहे थे वह किस बात के लिए थी। और तब, हममें से जो लोग उस समय तक जीवित रहें वे उन्हें यह याद दिलाएं कि जिन स्वतंत्रताओं की सावधानीपूर्वक रक्षा नहीं की जाती, वे अक्सर हाथ से फिसल जाती हैं! (स्रोत फीचर्स)