डिजिटल दौर में जन स्वास्थ्य एजेंसियों के सामने एक नई चुनौती खड़ी हो गई है। उन्हें अब सिर्फ बीमारियों के प्रसार से ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर फैल रही भ्रामक जानकारियों और व्यक्तिगत हमलों से भी निपटना पड़ रहा है। एक हालिया अध्ययन बताता है कि यूएस के सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC) जैसी स्वास्थ्य संस्थाओं के खिलाफ सोशल मीडिया पर की गई नकारात्मक टिप्पणियां लोगों के भरोसे को तोड़ रही हैं, उनमें गुस्सा बढ़ा रही हैं।
हाल ही में CDC ने टेक्सास और न्यू मेक्सिको में खसरे के प्रकोप को लेकर एक चेतावनी ट्वीट की थी, जिसमें यात्रियों को टीका लगवाने की सलाह दी गई थी। कुछ लोगों ने इसका समर्थन किया। लेकिन कई लोगों ने इस पर शक जताया, साज़िश के आरोप लगाए और यहां तक कि आपराधिक व्यवहार का इल्ज़ाम तक लगाया। ऐसी तीखी प्रतिक्रियाएं अब आम हो रही हैं।
इसका असर समझने के लिए स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने 6800 अमरीकियों पर अध्ययन किया। प्रतिभागियों को एक काल्पनिक सोशल मीडिया पोस्ट दिखाई, जिसमें CDC जैसी संस्था ने एक दुविधामयी स्वास्थ्य सलाह दी थी - जैसे सबको स्लीप एप्निया की जांच करवाने की सलाह। इसके बाद उन्हें आलोचनात्मक टिप्पणियां दिखाईं, जो असली ऑनलाइन टिप्पणियों की तरह बनाई गई थीं।
इन आलोचनात्मक टिप्पणियों की प्रकृति अलग-अलग थी - कुछ में सलाह से सिर्फ असहमति जताई थी, तो कुछ में संस्था की क्षमता पर या ईमानदारी पर सवाल उठाया था, जैसे राजनीतिक हित या छुपे हुए इरादे होना।
अध्ययन के नतीजे चौंकाने वाले थे। महज़ एक नकारात्मक टिप्पणी - भले ही हल्की-फुल्की ही क्यों न हो - भी लोगों का भरोसा कम कर देती है। लेकिन सबसे ज़्यादा नुकसान वे टिप्पणियां करती हैं जो संस्था की सच्चाई और नैतिकता पर हमला करती हैं। ऐसी टिप्पणियां न सिर्फ भरोसा घटाती हैं, बल्कि लोगों में गुस्सा पैदा करती हैं और उन्हें उसे साझा करने, भावनात्मक प्रतिक्रिया देने या जवाब देने के लिए उकसाती हैं।
दिलचस्प बात यह रही कि यह असर राजनीतिक सोच पर निर्भर नहीं था - चाहे व्यक्ति रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट, संस्था की ईमानदारी पर हमला देखकर दोनों ने समान प्रतिक्रिया दी। इससे पता चलता है कि भरोसे में कमी सिर्फ राजनीति का मसला नहीं, बल्कि इंसानों की सामान्य प्रवृत्ति है। यह अध्ययन दर्शाता है कि हर तरह की आलोचना का असर एक जैसा नहीं होता - किस तरह की आलोचना की जाती है, इससे बहुत फर्क पड़ता है।
हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक जेम्स ड्रकमैन का कहना है कि गुस्से जैसी भावनाओं को सर्वेक्षण के ज़रिए मापना मुश्किल है - जो बात एक व्यक्ति को गुस्से जैसी लगे, वह दूसरे को चिंता जैसी लग सकती है। फिर भी, इस अध्ययन में जो पैटर्न सामने आया है, वह चिंता की बात है।
स्वास्थ्य एजेंसी की तरफ से सफाई देने पर भी लोगों का भरोसा पहले जैसा नहीं लौटा। शोधकर्ता एवं मनोरोग विशेषज्ञ जोनाथन ली का मानना है कि इसका एक कारण यह हो सकता है कि लोग तुरंत सही बात सुनने के लिए तैयार नहीं होते - उन्हें पहले थोड़ा शांत होने के लिए समय की ज़रूरत होती है।
इस अध्ययन से यह बात साफ होती है कि पारदर्शिता यानी ईमानदारी बहुत ज़रूरी है। सलाह है कि स्वास्थ्य एजेंसियों को यह स्वीकार करने में हिचकना नहीं चाहिए कि उन्हें हर सवाल का जवाब नहीं पता। खासकर महामारी जैसी तेज़ी से बदलती परिस्थितियों में यह ईमानदारी भरोसा बढ़ा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - September 2025
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