भारत के कच्छ का रण तब विकसित हुआ था जब अरब सागर के पानी ने इस क्षेत्र में घुसपैठ की थी। यह करीबन 15-20 करोड़ वर्ष पहले की घटना है। भूगर्भीय उथल-पुथल के कारण एक भूभाग ऊपर उठा, जिसने कच्छ बेसिन को समुद्र से अलग कर दिया। कच्छ के रण का एक हिस्सा ‘लिटिल रण ऑफ कच्छ’ कच्छ की खाड़ी के अंत में स्थित है और 5000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र, मुख्य रूप से गुजरात के सुरेंद्रनगर ज़िले, में फैला है।
वर्ष के अधिकांश समय, इस भूभाग में नमक के विशाल, बंजर और सफेद मैदान दिखाई देते हैं। जब मानसून आता है तो यहां का भूदृश्य एकदम से बदल जाता है; यह सफेद रण एक उथली आर्द्रभूमि में तबदील हो जाता है। भूमि के लगभग 75 ऊंचे-ऊंचे टीले टापुओं में तबदील हो जाते हैं, जिन्हें स्थानीय अगरिया और मालधारी समुदाय बेट कहते हैं।
लिटिल रण ऑफ कच्छ में जंगली गधा अभयारण्य भी है। यह अभयारण्य भारतीय जंगली गधे (Equus hemionus khur, जिसे स्थानीय भाषा में खुर कहते हैं) का एकमात्र प्राकृतवास बचा है। रेतीले और भूरे रंग वाले इन जानवरों की संख्या इस क्षेत्र में लगभग 6000 है। ये जिस तरह के स्थान (स्थलाकृति) पर रहते हैं, वहां की परिस्थिति वर्ष के अधिकांश समय दूभर रहती है, और वहां की वनस्पति शुष्क पादप और कंटीली वनस्पति होती है। खुर और इनके जैसे एसिनस उप-प्रजाति के अन्य गधों में उजाड़ जगहों पर भी भोजन खोजने की उल्लेखनीय क्षमता होती है। उनका पाचन तंत्र सबसे शुष्क (कंटीली) वनस्पतियों को भी पचाने में माहिर होता है। खुर के चीता और शेर जैसे शिकारी लुप्त हो चुके हैं, इन्हें इस क्षेत्र में आखिरी बार 1850 के दशक में देखा गया था।
खुर आकार में लगभग ज़ेबरा जितना बड़ा होता है, और इसका जीवनकाल 21 साल का होता है। खुर के स्थायी समूहों में मादा खुर और उनके शावक होते हैं। नर खुर अकेले रहते हैं, खासकर प्रजनन के मौसम में। रण के सपाट भूभाग पर वे 70 कि.मी. प्रति घंटे तक की रफ्तार से दौड़ सकते हैं। मादा खुर के लिए यहां जीवन मुश्किल हो सकता है क्योंकि गर्भधारण की अवधि लंबी होती है, 11 से 12 महीने। और कभी-कभी तो गर्भावस्था के दौरान भी स्तनपान कराते हुए मादा देखी गई हैं।
विलुप्ति से वापसी
ये खुर बीमारियों की चपेट में आने कारण विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे, लेकिन हाल ही में ये इस संकट से बाहर निकल आए हैं। संक्रामक अफ्रीकी हॉर्स सिकनेस और सर्रा (प्रोटोज़ोअन परजीवी Trypanosoma evansi के कारण होने वाला रोग जो काटने वाले कीटों से फैलता है) ने खुरों के कई झुंडों का सफाया कर दिया था। 1960 के दशक में केवल कुछ सौ बचे होने का अनुमान था।
अमरावती स्थित गवर्मेंट विदर्भ इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के वैज्ञानिकों ने खुर के माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए का विश्लेषण किया है। विश्लेषण में उन्हें जेनेटिक विविधता बहुत ही कम होने के संकेत मिले हैं। यह बीमारी के प्रकोप के कारण होने वाली जेनेटिक बाधा के कारण है; बीमारी के कारण केवल कुछ ही खुर जीवित बचे हैं। लगातार संरक्षण प्रयासों की बदौलत, हाल के दशकों में खुर की आबादी में वृद्धि देखी गई है।
मनुष्यों के साथ संघर्ष
नमक के दलदल मानव उद्यमियों को आकर्षित करते हैं - भारत के 30 प्रतिशत नमक की आपूर्ति लिटिल रण से होती है। हर साल, मौसमी प्रवास इस मरीचिका जैसे परिदृश्य को बदल देता है, जिसमें 5000 परिवार यहां आते हैं और यहां भारी वाहनों का आवागमन बढ़ जाता है। मनुष्यों और साथ में उनके मवेशियों की यह आमद, जो खूब चरते हैं, मिलकर यहां के नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र और उसके वन्यजीवों के लिए एक बड़ा खतरा बन गई है। सिंचाई नहरें, जो लिटिल रण के दक्षिणी किनारे तक पानी ले जाती हैं, भी मिट्टी में खारेपन को बढ़ा सकती हैं।
कृषि और नमक की खेती, दोनों के चलते बढ़ती मानवीय उपस्थिति ने खुरों को छितरा दिया है। खुर के झुंड गुजरात और यहां तक कि राजस्थान के आसपास के इलाकों में देखे जाते हैं। इस कारण जंगली गधों को फसल चट करने वालों का दर्जा दे दिया गया है। नीलगाय और जंगली सूअर जैसे अन्य जानवर फसलों को अधिक नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन दोषी खुरों को ही ठहराया जाता है। अभयारण्य के बेहद खूबसूरत परिदृश्य और मानव-बहुल क्षेत्रों को बाकायदा अलग-अलग रखना दोनों के लिए बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स)