18 जून को विश्व मगरमच्छ दिवस पर मगरमच्छ संरक्षण परियोजना की शुरुआत की स्वर्ण जयंती मनाई गई। भारत सरकार ने 1975 में जब घड़ियालों के संरक्षण के लिए व्यापक राष्ट्रीय कार्यक्रम की शुरुआत की थी, तब यह उम्मीद थी कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सरकारी संसाधनों के साथ यह मछलीभक्षी मगरमच्छ — जिसे वैज्ञानिक भाषा में गैवियालिस गैंजेटिकस कहा जाता है — फिर से भारतीय नदियों में आबाद हो सकेगा। लेकिन आज, इस प्रयास के 50 साल बाद, हमें खुद से यह कठिन सवाल पूछना होगा: क्या हम वाकई घड़ियाल को बचा पाए हैं?
जब घड़ियाल की बात निकलती है, तो अक्सर उसे एक विलुप्तप्राय जलचर के रूप में देखते हैं - एक ऐसा जीव, जो अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहा है। लेकिन घड़ियाल सिर्फ एक प्रजाति का नाम नहीं है। उसकी उपस्थिति खुद में एक संकेत है, नदी की सेहत, पारिस्थितिकी संतुलन और जैव विविधता के प्रति हमारी संवेदनशीलता का।
घड़ियाल, अपनी पतली लंबी थूथन और मछलियों पर निर्भरता के कारण नदी पारिस्थितिकी का एक अनूठा जीव है। 20वीं सदी के आरंभ तक यह प्रजाति सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी और इरावदी जैसे विशाल नदी तंत्रों में व्यापक रूप से पाई जाती थी। लेकिन 1940 के दशक में इसकी संख्या मात्र 5-10 हज़ार के बीच रह गई और 1970 के दशक तक यह 98 फीसदी से अधिक क्षेत्र से गायब हो चुकी थी।
इसी संकट को देखते हुए, 1975 में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के सहयोग से क्रोकोडाइल कंज़र्वेशन प्रोजेक्ट की शुरुआत की थी। इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य देश की तीन दुर्लभ घड़ियाल (मगरमच्छ) प्रजातियों, मगर और खारे पानी के मगरमच्छ को संरक्षित करना था। यह परियोजना ‘पालन और पुनःप्रक्षेपण’ विधि का उपयोग करके, बंदी अवस्था में मगरमच्छों को पालने और फिर उन्हें प्राकृतिक आवासों में छोड़ने पर केंद्रित थी। इसके अंतर्गत देश भर में 16 मगरमच्छ पुनर्वास केंद्र और 11 मगरमच्छ अभयारण्यों की स्थापना की गई। इनमें नेशनल चंबल सैंक्चुरी, कटर्नियाघाट, सतकोसिया, सोन घड़ियाल अभयारण्य और केन घड़ियाल अभयारण्य मुख्‍य है।
हाल की वार्षिक गणनाओं के अनुसार, आज भारत में वयस्क घड़ियालों की संख्या मात्र 650 के आसपास है, जिनमें से 550 नेशनल चंबल सैंक्चुरी में ही सीमित हैं। सवाल उठता है कि आधी सदी चले इस विशाल संरक्षण कार्यक्रम का परिणाम इतना सीमित क्यों है?
इसका जवाब संरक्षण की मूल रणनीति में निहित है — हमने बार-बार बंदी प्रजनन और पुनःप्रक्षेपण पर बल दिया, लेकिन उनकी प्राकृतिक निवास — नदियां — निरंतर संकट में रहीं।
घड़ियाल की मौजूदगी यह भी दर्शाती है कि वह नदी अब भी जीवित है, उसमें प्रदूषण नहीं फैला है, उसमें प्रवाह बचा है, और उसमें जीवन पल रहा है। इसलिए वैज्ञानिक घड़ियाल को एक ‘जैव संकेतक’ मानते हैं - एक ऐसा जीव जो हमें बिना कुछ कहे यह बता देता है कि नदी कितनी स्वस्थ है।
घड़ियालों के जीवित रहने का पूरा दारोमदार नदियों पर है। वे खुले, बहावयुक्त नदी प्रवाह, रेत के टीलों और मछलियों की पर्याप्त उपलब्धता वाले वातावरण में ही पनप सकते हैं। लेकिन इन पांच दशकों में भारतीय नदियां बेतहाशा रेत खनन, बांधों, बैराजों, प्रदूषण और अवैध मछली पकड़ने के कारण क्षतिग्रस्त हुई हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार, चंबल जैसे क्षेत्रों में अत्यधिक और अवैध रेत खनन ने घड़ियालों के घोंसले बनने वाली रेत पट्टियों को नष्ट कर दिया है। कई क्षेत्रों में तो घोंसले लगभग समाप्त हो चुके हैं। घड़ियालों की 90 फीसदी से अधिक मौतें मॉनसून के बाद पहले तीन महीनों में होती हैं — यह दिखाता है कि केवल अंडे देना और बच्चे निकलना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनका जीवित रहना ही असली चुनौती है। घड़ियाल का संरक्षण अपने आप में रेत खनन पर नियंत्रण की मांग को जन्म देता है, जो बाढ़ नियंत्रण से लेकर जलप्रवाह की गुणवत्ता तक, कई प्राकृतिक संतुलनों को बनाए रखने में सहायक होता है।
मद्रास क्रोकोडाइल बैंक ट्रस्ट द्वारा 2008 में शुरू किए गए घड़ियाल इकॉलॉजी प्रोजेक्ट के प्रमुख अन्वेषक प्रो. जेफरी लैंग के अनुसार “अब ज़रूरत है कि हम नदी पारिस्थितिकी की संपूर्णता पर ध्यान दें। घड़ियाल संरक्षण के प्रयास तब तक सार्थक नहीं होंगे जब तक कि नदियां अपने प्राकृतिक रूप में मुक्त बहने वाली न हों, उनमें बांध/बैराज न्यूनतम हों और रेत खनन नियंत्रित हो।”
इसी तरह, नेचर कंज़र्वेशन सोसाइटी के सचिव राजीव चौहान कहते हैं, “बंदी प्रजनन और पुनर्वास केवल एक ‘बैंड-ऐड’ उपाय है। जब तक हम प्रवाह, मत्स्य पालन और रेत खनन पर सख्त नियंत्रण नहीं रखते, तब तक मगरमच्छों के पुनर्वास के प्रयास व्यर्थ हैं।”
ओडिशा ही एकमात्र राज्य है, जहां तीनों मगरमच्छ प्रजातियां - खारे पानी के मगर (भितरकनिका), घड़ियाल (सतकोसिया) और मगरी (सिमलीपाल) - पाई जाती हैं। पश्चिम बंगाल में सुंदरबन के बाद भितरकनिका भारत का दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है। दोनों क्षेत्र भारत में खारे पानी के मगरमच्छों के तीन गढ़ों में से हैं; तीसरा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह है। वर्ष 2025 की जनगणना में 1826 खारे पानी के मगर, 16 घड़ियाल और लगभग 300 मगरी गिने गए। हालांकि यह संरक्षण की सफलता दर्शाता है, लेकिन हाल ही में भितरकनिका और उसके आसपास के इलाकों में इंसानों और मगरमच्छों के बीच संघर्ष बहुत बढ़ गया है। पिछले साल जून और अगस्त के बीच पार्क और उसके आसपास मगरमच्छों के हमलों में एक 10 वर्षीय लड़के सहित छह लोगों की मौत हो गई थी। वहां अब इन इलाकों में बाड़बंदी और चेतावनी प्रणाली जैसे उपाय लागू किए जा रहे हैं।
एक ताज़ा अध्ययन में पाया गया है कि आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन से घड़ियालों के लिए उपयुक्त क्षेत्र 36 फीसदी से 145 फीसदी तक बढ़ सकता है - विशेषत: उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, असम, उत्तराखंड जैसे राज्यों में। वहीं ओडिशा और राजस्थान जैसे राज्य शायद अपनी उपयुक्तता खो बैठेंगे।
अध्ययनकर्ताओं ने सिफारिश की है कि ब्रह्मपुत्र और महानदी घाटियों में संभावित क्षेत्रों का मैदानी सर्वेक्षण किया जाए, उन्हें संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाए, और स्थानीय समुदायों को संरक्षण प्रक्रिया में सहभागी बनाया जाए।
घड़ियाल संरक्षण के 50 वर्षों का अनुभव यही सिखाता है कि सिर्फ प्रजाति पर केंद्रित नीतियां नाकाफी है। जब तक नदियों को, उनके प्रवाह को, उनकी जैव विविधता को, उनके किनारे के समुदायों को संरक्षण नीति का हिस्सा नहीं बनाएंगे, तब तक घड़ियाल जैसे जीव केवल सरकारी आंकड़ों में ही जीवित रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)