ऊंचे पहाड़ों पर विचरने वाले जंतुओं, जैसे लामा, भेड़ों वगैरह में गंध को पकड़ने वाले ग्राही काफी कम संख्या में पाए जाते हैं और मस्तिष्क का गंध से सम्बंधित क्षेत्र (ऑल्फेक्टरी लोब) भी छोटा होता है। यह खुलासा करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक शोध में हुआ है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस अनुकूलन से उन्हें ऊंचे पहाड़ों की ठंडी, सूखी हवा में रहने में मदद मिलती होगी।
कैन्सास विश्वविद्यालय की एली ग्राहम यह समझना चाह रही थीं कि जानवर ऊंचाइयों जैसे इंतहाई पर्यावरण के साथ तालमेल कैसे बनाते हैं। उन्होंने स्तनधारियों की जेनेटिक जानकारी जुटाई और अपने दल के साथ मिलकर देखा कि ऊंचे पहाड़ों पर रहने वाले तथा समुद्र सतह के नज़दीक रहने वाले जानवरों के बीच क्या अंतर हैं।
सबसे बड़ा अंतर था कि ऊंचाई पर रहने वाले जंतुओं में गंध संवेदना से जुड़े जीन्स की संख्या बहुत कम थी।
थोड़ा और गहराई में उतरे तो पता चला कि 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर रहने वाले जानवरों में गंध संवेदना से सम्बंधित जीन्स उन जानवरों से 23 प्रतिशत कम थे जो इससे कम ऊंचाई के निवासी थे।
फिर, उन्होंने पूर्व में संग्रहित उस जानकारी पर गौर किया जो कई स्तनधारी जीवों की खोपड़ियों की नपाई से प्राप्त हुई थी। पता चला कि पर्वतीय जीवों का ऑल्फेक्टरी बल्ब (घ्राण बल्ब) निचले इलाकों के निवासी जीवों की तुलना में औसतन 18 प्रतिशत छोटा होता है। और तो और, किसी प्राणी का रहवास जितनी ऊंचाई पर होता है, उसमें उतने ही कम गंध संवेदना से जुड़े जीन्स और गंध ग्राही पाए जाते हैं।
तो क्या ऊंचाई के साथ गंध संवेदना का ह्रास एक अनुकूलन है? इसके कई कारण हो सकते हैं कि ऊंचाई के साथ जंतुओं को गंध संवेदना की ज़रूरत कम पड़े। एक तो यह हो सकता है कि ऊंचे स्थानों पर हवा अपेक्षाकृत अधिक ठंडी और कम नमीदार होती है। ऐसी हवा में गंध पदार्थों के अणु कम होते हैं और गंध के अणु ज़्यादा दूर तक नहीं पहुंच पाते। इसी के साथ ऐसी हवा नाक बंद होने व श्वास मार्ग में सूजन का सबब भी हो सकती है।
अनुमान है कि इस कारण ऊंचे स्थानों पर रहने वाले जंतुओं को गंध की बारीक संवेदना की ज़रूरत ही नहीं होगी। तो ग्राहम का अनुमान है कि गंध संवेदी ग्राही की बजाय ऐसे जीव अपने संसाधन अन्य संवेदनाओं (जैसे स्वाद और दृष्टि) में निवेश करेंगे। 
उन्होंने यह भी देखने का प्रयास किया कि क्या ये निष्कर्ष मनुष्यों पर भी सही बैठते हैं। इसके लिए उन्होंने मनुष्यों के दो समूहों के बीच जेनेटिक अंतरों पर गौर किया - एक, तिब्बती लोग जो 4500 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई के बाशिंदे हैं और दूसरा, कम ऊंचाइयों पर रहने वाले चीन के हान लोग। लेकिन इनके बीच कोई अंतर नहीं मिला।
यह आश्चर्यजनक था क्योंकि ड्रेसडेन विश्वविद्यालय के थॉमस हमेल ने एक प्रयोग में देखा था कि जब मनुष्यों को एक ऐसे कक्ष में बैठाया गया जिसका पर्यावरण ऊंचे स्थानों जैसा था तो उन्हें गंध ताड़ने में मुश्किल हुई बनिस्बत उनके जिन्हें कम ऊंचे पर्यावरण कक्ष में बैठाया था। इसकी व्याख्या नहीं हो पाई है। (स्रोत फीचर्स)