हम, भारत के लोग, कहां से और कैसे आए? इस सम्बंध में 2009 में हारवर्ड और एमआईटी युनिवर्सिटी के डेविड रीच और सीसीएमबी (हैदराबाद) के के. थंगराज और लालजी सिंह ने संयुक्त रूप से एक शोध पत्र लिखा था, जिसका शीर्षक था ‘रिकंस्ट्रक्टिंग इंडियन पॉप्युलेशन हिस्ट्री (भारतीय आबादी के इतिहास का पुनर्निर्माण)’। इसमें भारत में 25 विविध समूहों का आनुवंशिक विश्लेषण किया गया था। इसमें पता चला था कि अधिकांश भारतीयों के पूर्वज जेनेटिक रूप से पृथक दो प्राचीन आबादियों के हैं।
मेरी सलाह है कि आप यह शोधपत्र डाउनलोड करें और पढ़ें। (लिंक यह रही - https://pmc.ncbi.nlm.nih.gov/articles/PMC2842210/.) खासकर इसमें प्रस्तुत चित्र 1 देखें और तालिका 1 पढ़ें।
हम कितने जुदा हैं? उन्होंने हमारे पूर्वजों के मुख्य रूप से दो अलग समूह पाए हैं। ‘उत्तर भारतीय पूर्वज' (ANI) समूह, इस समूह के लोग जेनेटिक रूप से पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और युरोप के लोगों के नज़दीकी है। अधिकांश ANI वंशज मुख्य रूप से भारत के उत्तरी राज्यों के रहवासी हैं। दूसरा है ‘दक्षिण भारतीय पूर्वज (ASI)' समूह, जो स्पष्ट रूप से ANI से अलग है और इनके पूर्वज पूर्वी युरेशियन मूल के हैं।
एक अधिक विस्तृत विश्लेषण में उन्होंने मध्य एशिया और उत्तरी दक्षिण एशिया के 500 से अधिक लोगों के प्राचीन जीनोम-व्यापी डैटा का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि ASI प्रत्यक्ष वंशज हैं जो दक्षिण भारत में जनजातीय समूहों में रहते हैं। और ऐसा लगता है कि ANI और ASI समूह के लोगों का प्रवास लगभग 3-4 हज़ार साल पहले हुआ था। इस प्रकार देश भर में उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय (जिन्हें द्रविड़ भी कहा जाता है) लोगों का मिश्रण रहता है।
39-71 प्रतिशत तक ANI वंशज समूह देश भर में पारंपरिक (तथाकथित) उच्च जाति के लोगों में देखे जाते हैं। लेकिन कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों में विशिष्ट ASI वंश वाले लोग दिखते हैं। हालांकि, वास्तविक ASI, जिन्हें AASI भी कहा है, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के आदिवासी हैं जो लगभग 60,000 साल पहले पूर्वी एशियाई-प्रशांत क्षेत्रों से आकर यहां बसे थे, और सामाजिक या जेनेटिक रूप से भारतीय मुख्यभूमि के निवासियों के साथ घुले-मिले नहीं हैं।
सेल में प्रकाशित एक हालिया शोधपत्र में बताया गया है कि भारतीय मूल के सभी लोगों की जड़ें एक ही बड़े प्रवास से जुड़ी हैं, जिसमें लगभग 50,000 साल पहले अफ्रीका से मनुष्य बाहर निकले और फैले थे।
ध्यान दें कि हारवर्ड-सीसीएमबी के शोधपत्र में ‘उच्च जाति' शब्द का उल्लेख है। तो, ‘जाति व्यवस्था' कब आई? यह भेदभावपूर्ण व्यवस्था हिंदुओं में 2000 से अधिक वर्षों से है। इस चार-स्तरीय व्यवस्था में, आदिवासी सबसे निचले पायदान पर हैं। अंतर्जातीय विवाह बहुत कम होते हैं, और यदि होते भी हैं तो वे हिंसा का कारण बन सकते हैं।
जातीयता और हैप्लोटाइप
प्रो. पी. पी. मजूमदार के दल ने ‘हैप्लोग्रुप' नामक पद्धति का उपयोग करके जातीयता का अध्ययन किया था। हैप्लोग्रुप किसी सामाजिक समूह में साझा पितृवंश या मातृवंश के जेनेटिक संकेतक होते हैं। इस शोधपत्र में बताया गया है कि भारत भर की विभिन्न आबादियों के हैप्लोग्रुप विवरण भारत की जाति व्यवस्था की जानकारी देते हैं, जिसमें कुछ पूर्वज घटक जनजातियों में सबसे अधिक, निम्न जातियों में थोड़े कम और उच्च जातियों में सबसे कम पाए जाते हैं।
यह जाति व्यवस्था समय के साथ, विशेष रूप से शिक्षित वर्गों में, लोकतंत्र और देश के आधुनिकीकरण के साथ धीरे-धीरे बदल रही है। जैसे-जैसे लोग स्कूल-कॉलेज जाने लगे, अधिक भाषाएं सीखने लगे और नौकरियों व अन्य अवसरों के लिए अपने मूल स्थानों से बाहर जाने लगे, अंतर्जातीय और अंतर्क्षेत्रीय विवाह बढ़े। 2011 की जनगणना के अनुसार, अंतर्जातीय विवाह लगभग 6 प्रतिशत और अंतर्धार्मिक विवाह लगभग एक प्रतिशत हुए थे। यह संभावना है कि आगामी 2027 की जनगणना तक ये संख्याएं, विशेष रूप से शहरी समूहों में, उल्लेखनीय रूप से बढ़ चुकी होंगी। (स्रोत फीचर्स)

लेखक इस लेख पर डॉ. थंगराज की सलाह और टिप्पणियों के लिए आभारी हैं।