कॉलेज या यूनिवर्सिटी में कभी सुना है कि दो कक्षाओं के लिए केवल एक ही शिक्षक हो जो दोनों कक्षाओं के छात्रों को एक साथ बिठाकर पढ़ा रहा हो? शायद ही इक्का-दुक्का ऐसे किस्से सुनने को मिलेंगे। पर अगर इसी पहलू को लेकर शिक्षा की बुनियाद प्राथमिक शाला पर नज़र डालें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं।
शिक्षकों की संख्या के मुताबिक प्राथमिक शालाओं की संख्या (प्रतिशत में):
प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर दो कक्षाओं के लिए एक शिक्षक की बात छोड़िए - हिन्दुस्तान के ग्रामीण क्षेत्रों में एक तिहाई से अधिक प्राथमिक शालाएं ऐसी हैं जिनमें पहली से पांचवीं कक्षा के पांच वर्गों के लिए केवल एक ही शिक्षक है। इतना ही नहीं ग्रामीण हिन्दुस्तान में ज्यादा से ज्यादा केवल 12 प्रतिशत प्राथमिक शालाएं ऐसी होंगी जिनमें पर्याप्त संख्या में शिक्षक हैं।
शहरी प्राथमिक शालाओं में स्थिति कुछ बेहतर है जहां पर शायद अधिकतम 58 प्रतिशत शालाओं में ज़रूरत के मुताबिक शिक्षक हैं।
इसका अर्थ यह है कि शहरों में भी 42% प्राथमिक शालाएं ऐसी हैं जहां शिक्षकों की संख्या चार से कम है।
उन शालाओं की प्रतिशत संख्या जहां शिक्षकों की संख्या पांच या पांच से ज्यादा है अर्थात जहां पर्याप्त शिक्षक हैं।
इतना ही नहीं हमारे यहां ऐसी भी शालाएं हैं जहां शिक्षक हैं ही नहीं! देखने में यह आंकड़ा शायद बहुत ही छोटा लगे – सिर्फ आधा प्रतिशत परन्तु जब हिन्दुस्तान की पांच लाख प्राथमिक शालाओं में से गिनती करें तो समझ में आता है कि ऐसी शिक्षक-विहीन शालाओं की संख्या लगभग 3000 होगी।
* 'शायद' इसलिए कहा गया है क्योंकि बहुत-सी शहरी प्राथमिक शालाएं खूब बड़ी होती हैं जिनमें कई कक्षाओं के दो या दो से अधिक वर्ग भी हो सकते हैं। इसलिए पांच या पांच से अधिक शिक्षक होने पर भी ज़रूरी नहीं है कि उनमें शिक्षकों की संख्या पर्याप्त हो।
(स्त्रोतः एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा किया गया पूरे भारत का चौथा शिक्षा सर्वेक्षण, 1982)