वर्षा लाळगे
एक कक्षा ऐसी भी
पाठ्यक्रम में पढ़ी हुई बातों को, बच्चे अपनी ज़िन्दगी में किस तरह से देखते और समझते हैं, यह देखना हो तो बच्चों से स्वतंत्र लेखन करवाना एक उम्दा तरीका हो सकता है। वर्षा लाळगे ने अपनी कक्षा में गणित और आम ज़िन्दगी को जोड़कर लेखन की कोशिश की है। आइए, इस गतिविधि के निहितार्थ समझने की कोशिश करते हैं।
कक्षा में पहुँचते ही बच्चों ने दीदी को बताया, “दीदी, हम निबन्ध लिखकर लाए हैं।” दीदी यह सुनकर खुश हुईं। वो दीदी मैं ही थी। स्कूल शुरू हुए चन्द दिन ही हुए थे और छठवीं कक्षा में पिछली कक्षा में सीखे हुए गणित की पुनरावृत्ति हो रही थी। मैं मापन और परिमाण की अवधारणा का दोहराव करवा रही थी।
वैसे तो कक्षा तीन से ही मापन की शुरुआत हो जाती है। कक्षा चार और पाँच में मापन पर आधारित जोड़-घटा, गुणा-भाग आदि क्रियाएँ और उन पर आधारित उदाहरण, सवाल आदि करवाए जाते हैं। इनमें से बच्चे कितना समझ पाए, और कौन-सी बातें ध्यान में रख पाए यह मालूम करने के लिए मैं परीक्षा या जाँच जैसा कुछ करने के बिलकुल मूड में नहीं थी। मैं इन सबसे हटकर कुछ अलग करना चाहती थी। मैंने बच्चों से पूछा, “क्या तुम लोग निबन्ध या स्वतंत्र लेखन करोगे?” बच्चे मुझे हैरत भरे भाव से देखने लगे - निबन्ध और वो भी गणित पर!!
मैंने अपनी बात को आगे बढ़ाया, “गर्मी की छुट्टियों में तुम लोगों ने क्या किया, इस बारे में कुछ लिखकर लाना है। बस, शर्त यह है कि इस लेखन में तुम्हें कम-से-कम पाँच गणितीय इकाइयों का उपयोग करना होगा। क्या तुम लोग ऐसा लेखन कर सकोगे?” बच्चों ने इस चुनौती को स्वीकार किया।
अगले दिन, जब मैं कक्षा में पहुँची तो बच्चों ने उत्साह से बताया कि वे निबन्ध लिखकर लाए हैं। हरेक बच्चे के मन में खुद का लिखा बताने की और साथियों ने क्या लिखा है, यह जानने की उत्सुकता थी। इसलिए हरेक बच्चा अपना लिखा सुनाने हेतु व्यग्र था। बच्चों ने अपनी ओर से जो कोशिश की थी, उसका सार-संक्षेप यहाँ पेश कर रही हूँ।
प्रणव ने लिखा, “मैं छुट्टियों में अपने मामा के घर गया था। वह गाँव फलटण (सातारा ज़िले का एक बड़ा कस्बा) से 50 किलोमीटर दूर है। मैं वहाँ रोज़ 12 बजे कुएँ में तैरता था। वो कुआँ 70 फीट गहरा है।”
वेदान्तिका - “हम सात बजे घर पहुँचे और पड़ोस की चाची से दो लीटर दूध लिया।”
शरयू - “हम लोग बाज़ार गए। मेरे पिताजी ने सौ रुपए मीटर के हिसाब से ढाई मीटर कपड़ा खरीदा। पिताजी ने कपड़े के लिए 250 रुपए दिए।”
सायली - “मेरी मौसी के पास 12 एकड़ का खेत है। वह उस खेत में गन्ना उगाती हैं। इस खेत से तीस-इकतीस टन गन्ने की पैदावार हो जाती है।”
प्रियंका - “मैं गाँव गई थी। वहाँ एक दुकान से एक किलो शक्कर, एक पाव मोठ और दो किलो आलू लिए।”
ऋतुजा - “मैं छुट्टियों में तासगाँव गई थी। यह फलटण से ढाई सौ किलोमीटर दूर है। वहाँ पहुँचने में दो-ढाई घण्टे का समय लगता है। जिस दिन हम गए, उस दिन फलटण का तापमान 32 डिग्री सेल्सियस था।”
निखिल - “पिताजी ने मेरे बाल कटवाए और हज्जाम को 25 रुपए दिए। उसके बाद हमने सुनार की दुकान से माँ के लिए 10 ग्राम सोना खरीदा।”
ओंकार - “एक दिन हम लोग दोपहर दो बजे जुहू चौपाटी के लिए रवाना हुए और तीन बजे चौपाटी पहुँच गए। हम लोग समुन्दर में तीस मिनट तक खेलते रहे। वहाँ हमने 25 रुपए वाली कोल्ड डिं्रक खरीदी।”
तनुश्री - “हम लोग मुम्बई गए थे। पुणे से मुम्बई पहुँचने में तीन घण्टे का समय लगता है। जब हम जा रहे थे, तब अपने साथ दो लीटर पानी की बोतल ले गए थे। यात्रा के दौरान हमें कई टन गन्ना ढोने वाले ट्रक दिखाई दिए।”
प्रथमेश - “मैं सुबह छह बजे उठा। कुछ समय में नहाकर, मैंने 50 मिली लीटर दूध पिया। एक किलोमीटर और पचास मीटर चलते हुए बाज़ार पहुँचा।”
समीक्षा ने अपनी माँ के लिए एक तोले का नेकलेस खरीदा।
बच्चों ने जो लिखा था उसे सुनकर मुझे काफी राहत महसूस हो रही थी कि हमारे बच्चे सोना ग्राम या तोले जैसी इकाई में ही खरीद रहे थे, किलोग्राम में नहीं। इसी तरह दूध लीटर में, कपड़ा मीटर में और दूरियाँ मीटर या किलोमीटर में नाप रहे थे। इससे यह निष्कर्ष तो निकाला जा सकता है कि नापतौल में सही इकाइयों का किस तरह इस्तेमाल करना है, वे इस बात को समझ रहे हैं।
सिखाई गई अवधारणाओं और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में इनके इस्तेमाल की जब जुगलबन्दी होती है तो बच्चों की उसमें रुचि जागती है और विषय काफी परिचित जान पड़ता है। इस बात पर मेरा भरोसा और गहरा होने लगा। आम तौर पर होमवर्क पूरा न करने वाली चारूशीला और ओंकार ने भी लेखन किया था।
तेजस वैसे थोड़ा धीमी गति से काम करता था। उसने सभी का एक नए खेल से परिचय करवाया। उसने लिखा, “गर्मी की छुट्टियों में दादी ने हमें एक मज़ेदार खेल बताया। इस खेल में दो टीम होंगी। दादी किसी एक चीज़ का नाम लेंगी। दोनों टीम उस चीज़ के लिए इकाई बताएँगी। मान लो, दादी ने कहा ‘केले’, तो कोई टीम बता सकती है ‘दर्जन’। दादी कहती हैं ‘गेहूँ’ तो टीम ‘किलोग्राम, क्विंटल’ कह सकती है। दादी ‘दूध’ कहें तो ‘लीटर’ कहना होगा। दोनों टीम में से जो टीम इकाई नहीं बता पाएगी, उस टीम पर पॉइंट्स चढ़ते जाएँगे।”
कुल मिलाकर, लेखन वाली गतिविधि में सभी बच्चों ने काफी उत्साह दिखाया। बच्चों के लेखन को सुनते हुए हमने लेखन में आई इकाइयों की सूची भी बनाई। इस सूची में कुछ-कुछ इकाइयाँ मानकीकृत इकाइयाँ न होकर आम जीवन में प्रचलित इकाइयाँ भी थीं, जो कक्षा के काफी बच्चों को नहीं मालूम थीं। मसलन, कुआँ दो ‘आदम’ गहरा था, दादी ने दो ‘पाई’ गेहूँ पिसवाने के लिए दिए। हमारी मौसी ने तीन ‘बीघा’ ज़मीन खरीदी, मैं दो ‘छटाँक’ मूँगफली लाया।
मेरे ख्याल से ज़्यादातर जगह इकाइयों का त्रुटिरहित इस्तेमाल हो रहा था। सिर्फ तापमान के मापन में गड़बड़ी हो रही थी। हालाँकि, एक-दो बच्चों ने ही इसका इस्तेमाल किया था। फिर भी सभी बच्चों को ऊष्मा और तापमान के मापन के बारे में बताया। सामान्यत: पानी 100 डिग्री सेल्सियस पर उबलता है। बुखार में हमारे शरीर का तापमान 102 डिग्री फेरनहाइट भी हो सकता है (इसी तरह 100 डिग्री सेल्सियस यानी 212 डिग्री फेरनहाइट है)। साथ ही, हमने बच्चों के लेखन में न आ पाई इकाइयों पर भी बातचीत की। जैसे आप अपनी ऊँचाई किस इकाई में नापते हैं? फिर, सेंटीमीटर, इंच, फीट, इनकी तुलना की।
यहाँ तक आते-आते मेरे भीतर का पारम्परिक शिक्षक भी जागने लगा था। बच्चों के लेखन को आधार बनाकर कुछ गणित के सवाल तैयार किए। हालाँकि, ये सवाल मेरे पारम्परिक शिक्षक मन की तसल्ली भर के लिए थे। वैसे, बच्चे इससे कहीं आगे बढ़ चुके थे, इसका भी मुझे अहसास था।
इतना सब हो जाने के बाद मैं थोड़ी देर चिन्तन करने लगी तो महसूस हुआ कि स्कूली फ्रेमवर्क में बच्चों की दुनिया के भीतर झाँककर देखने की कोशिश प्राय: नहीं होती। बच्चों को बहुत कुछ मालूम होता है, लेकिन स्कूल बच्चों के इस ज्ञान का इस्तेमाल नहीं कर पाते। बच्चों को घर-परिवार से मिले ज्ञान को स्कूल में सम्मान भी नहीं दिया जाता। स्कूल में दिया गया ज्ञान ही सही मायने में ‘ज्ञान’ है, इस पारम्परिक सोच में बच्चों के अनुभवों को जगह देने के लिए मैंने यह गतिविधि करवाई थी। बच्चों के लेखन और उत्साह को देखकर लगता है कि आगे भी मुझे ऐसी कोशिश जारी रखनी चाहिए।
वर्षा लाळगे: फलटण (ज़िला सातारा) के कमला निम्बकर विद्यालय में पढ़ाती हैं।
मराठी से अनुवाद: माधव केलकर: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।
यह लेख ‘पालकनीति’ पत्रिका, जनवरी 2011 से साभार।