सुशील जोशी
कैसे तय होता है पौधे में कि फूल कब खिलने हैं? एक रोज़मर्रा घटना की गहराई से जांच-पड़ताल।
कई बार ऐसी साधारण-सी बातों में से इतने पेचीदा सवाल निकलते हैं। कि दंग रह जाना पड़ता है। ऐसी ही एक सामान्य-सी बात है फूलों का खिलना। हमारे देखते-देखते पेड़-पौधे बड़े होते हैं और इनमें फूल खिलते हैं। है तो साधारण-सी बात, रोज़ की देखी हुई, मगर इसके बारे में सोचें तो उलझन बढ़ती जाती है। यह तो आपने भी देखा होगा कि हर पेड़-पौधे पर फूल आने का अपना एक समय होता है। आम-जामुन बसंत में बौराते हैं जबकि गेहूं और चना शरद ऋतु में। पलाश व गुलमोहर भरी गर्मी में फूलते हैं।
इसके अलावा कोई पौधा तो बीज से निकलने के दो-तीन महीने के अंदर फूलने लगता है जैसे गेहूं, धान, मक्का, आदि जबकि किसी-किसी को सालों लग जाते हैं। और किसी-किसी को सालों क्या दशकों लग जाते हैं - बांस के बारे में ज़रूर सुना होगा आपने।
तो यहां दो सवाल हो गए। पहला यह कि पेड़-पौधों को कौन बताता है। कि चलो अब उमर हो गई फूल बनाना शुरू करो। दूसरे शब्दों में पौधे के अंदर वह कौन-सी प्रक्रिया है जो एक हद तक समय गुज़रने और निश्चित विकास हो जाने के बाद फूल बनाने की घंटी बजाती है।
दूसरा सवाल यह है कि हर साल पौधों को कैसे पता चलता है कि फूलने का मौसम आ गया है। यानी वर्ष का एक निश्चित समय आ पहुंचा है अब फूल बनाना चाहिए।
आइए इन प्रश्नों के उत्तर खोजें। उत्तर खोजने के लिए हम उन सब प्रयोगों के निष्कर्षों का सहारा लेंगे जो पिछली एक शताब्दी में दुनियाभर में कई वैज्ञानिकों ने बहुत मेहनत और मशक्कत करके किए हैं।
चूंकि सामान्य तौर पर पौधों को किसी प्रकार यह अंदाज़ लग जाता है कि वृद्धि का एक विशेष स्तर हासिल हो चुका है, अब फूल खिल सकते हैं; इसलिए हम कह सकते हैं कि उनमें इस बात का हिसाब रखने का कोई तरीका अवश्य होगा। फूल न आने से पूर्व तक की अवस्था को पौधों की किशोरावस्था कहा जाता है। फूल आने की स्थिति आ जाए तो कहा जाता है कि पौधा वयस्क या परिपक्व हो चुका है। जब तक पौधा (या पेड़) वयस्क न हो जाए तब तक कितने ही सही मौसम आकर चले जाएं फूल नहीं लगेंगे। मसलन आम को ही लें - बसन्त आता है मगर कम उम्र के आम के पेड़ों पर फूल नहीं लगते। ऐसा कैसे होता है?
ऐसी भी होती हैं घड़ियां
इस बारे में अधिकतर वैज्ञानिकों का मत है कि फूलने की उम्र का निर्धारण पत्तियों की संख्या से होता है। जैसा कि सभी जानते हैं पानी, कार्बन डायऑक्साइड और सूर्य प्रकाश का इस्तेमाल करके पत्तियां ही भोजन बनाती हैं पूरे पौधे के लिए। इसलिए पत्तियों की कुल संख्या और सेहत से ही तय होता है कि पौधे या पेड़ में कितना भोजन बनाने की हैसियत है।
कोई पौधा फूले, उससे पहले ज़रूरी है कि पौधे में फूल का पोषण करने तथा बीज व फल का निर्माण करने के लिए पर्याप्त भोजन हो। आखिर फूलने की प्रमुख वजह तो बीज बनाना ही है न? फूल पौधे के प्रजनन का साधन है। इसलिए फूलों को खिलने की अनुमति तभी मिल सकती है जब पौधे में उसे लक्ष्य तक पहुंचाने यानी बीज बनाने तक की हैसियत हो। अर्थात पौधा जब वृद्धि के एक खास मुकाम तक पहुंच जाए तभी फूल खिल सकते हैं।
बहुत से सालाना उगने वाले पौधों के.बारे में तो इतने पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि इस वनस्पति के पौधों में जब तक पांच पत्ते नहीं आ जाएं तब तक फूल लग ही नहीं सकता। चाहे पौधे को अन्य सब अनुकूल स्थितियां मिल जाएं। ऐसे ही किसी वनस्पति में फूलों का लगना सात पत्तों के बाद ही शुरू हो सकता है। शायद बड़े पेड़ों में इतनी निश्चितता के साथ पत्तियों की संख्याओं के बारे में नहीं कहा जा सकता पर उनमें भी यह पता करने के लिए कि पेड़ के पास इतने सारे फूलों, उनसे बनने वाले फलों और बीजों के लिए पर्याप्त भोजन है कि नहीं, ज़रूर कोई तरीका होता होगा इसी तरह का।
पौधों के कई हिस्से प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं यह तो सब जानते ही हैं - कई फूलों का दिन को खिलना और रात को बन्द होना, कई पेड़-पौधों की पत्तियां रात को बन्द होते देखी ही होंगी आपने..... यह भी देखा गया है। कि दिन में भी सूर्य के प्रकाश की दिशा में बदलाव के साथ-साथ पत्तियां थोड़ा-बहुत हिलती रहती हैं, उनका कोण बदलता रहता है।
पर मज़ेदार बात यह है कि अगर पौधे को बिल्कुल अंधेरे में रखा जाए तो भी एक निश्चित समय के अन्तराल पर उसकी पत्तियां अपनी दिशा बदलती रहती हैं जैसे कि उनके पास कोई घड़ी हो! इनमें से किसी में बदलाव 27 घंटों में होता है तो किसी में 22 घंटे में। पेड़-पौधों की इस अन्दरूनी घड़ी के बारे में हम बहुत कम जानते हैं पर इतना तो कहा जा सकता है कि शायद पौधे को ऐसी घड़ियों से भी समय के गुजरने और किशोरावस्था से वयस्क बन जाने का ख्याल लगता होगा।
गुल खिलाने की चाबी कहां?
अब मान लो कि पेड़ या पौधा वयस्क हो गया है, उसकी फूल लगने की उम्र हो गई है - तो फिर सवाल उठता है कि आखिर फूल लगने की यह प्रक्रिया नियंत्रित कहां से होती है। पौधे के कौन-से हिस्से में है इसकी बागडोर।
अभी भी इस बात को लेकर वैज्ञानिकों में काफी मतभेद हैं।
यह तो आप जानते ही हैं कि फूल, शाखाओं, टहनियों के सिरे (शीर्ष) पर लगते हैं। वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या यह शीर्षस्थ भाग फूल बनाने के मामले में स्वायत्त होता है या इसे शेष पूरे पौधे से कोई संकेत मिलता है कि चलो हो जाओ शुरू! इन दोनों बातों, स्वायत्तता व शेष पौधे से संकेत, के पक्ष में दलीलें भी हैं। और प्रमाण भी। ऐसा प्रतीत होता है कि हर वर्ष शीर्ष की कोशिकाओं में जब एक निश्चित संख्या में विभाजन हो चुके होते हैं तब अपने आप वह फूल वाली स्थिति में पहुंच जाता है। ऐसा आभास मिलता है मानो शीर्ष की कोशिकाओं के विभाजन से कोई खास रसायन इकट्ठा हो रहा हो और जब उस रसायन की मात्रा एक विशेष हद से ज्यादा हो जाए तो पौधे को फूल बनाने का संकेत मिलता है। इस समय यदि बाकी परिस्थितियां अनुकूल हों तो फूल खिल जाएंगे। बहरहाल यहां हम उन प्रयोगों के वर्णन में नहीं घुसेंगे जिनके माध्यम से इस गत्थी को सुलझाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
ऊपर हमने कहा कि पौधा एक बार वयस्क अवस्था में पहुंच जाए तो फूल खिल सकते हैं। तो यह कैसे पहचाना जाए कि वयस्क अवस्था कौन-सी है? क्या पौधे की रचना में अन्य कोई परिवर्तन भी होते हैं, जिनसे हम कह सकें कि अमुक पौधा वयस्क अवस्था में है? इस सवाल का उत्तर 'हां' भी है। और 'नहीं' भी।
पर इतना तो पक्का मालूम है कि वनस्पतियों में कई ऐसे रसायन पाए जाते हैं जो उनकी वृद्धि के नियामक होते हैं। इनमें से कुछ रसायन वैज्ञानिकों ने शुद्ध रूप में प्राप्त भी कर लिए हैं। इनसे प्रयोग करना संभव है। इन रसायनों के आधार पर ही वृद्धि की बारीकियों को समझना संभव हुआ है।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यही रसायन किसी न किसी तरह से अकेले-अकेले या श्रृंखला के रूप में वयस्कता को भी नियंत्रित करते हैं किन्तु प्रयोगों के परिणाम इतने विरोधाभासी हैं कि इस प्रक्रिया का कोई सामान्य चित्र बना पाना अभी तक तो संभव नहीं हुआ है। हां, यह
कई पौधों में वयस्क अवस्था में पहुंचने पर गौरतलब परिवर्तन होते हैं जबकि कई अन्य पौधों में ऐसे कोई अवलोकनीय परिवर्तन नहीं होते। मसलन अंग्रेज़ी आइवी की बैल (सिरपेंचे की लता) मैं किशोरावस्था तथा. वयस्क अवस्था की तुलना करने पर बहुत से अन्तर दिखाई देते हैं। | ||
क्र. |
किशोरावस्था के लक्षण तीन या पांच खण्डदार पत्तीं पत्तियों की जमावट एकान्तर नई पत्तियों व तने मैं रजक तना रोएंदार फूल नदारद |
वयस्क अवस्था के लक्षण पूरी अण्डाकार पत्ती पत्तियों की जमावट सर्पिलाकार रंजक अनुपस्थित तना चिकना फूल मौजूद |
वयस्क होने के साथ इस पौधे की ऊपर बढ़ने की प्रवृत्ति में भी अंतर आता है। परन्तु उपरोक्त तुलना से यह न समझें कि इस या उस लक्षण की वजह से वयस्क अवस्था प्राप्त हुई। और वैसे भी ऐसे स्पष्ट अंतर बहुत कम प्रजातियों में पाए जाते हैं। |
ज़रूर है कि एक बार वयस्क अवस्था आ जाने के बाद वापस किशोरावस्था में लौटने के उदाहरण बिरले ही हैं। यानी पौधों में अवस्था को स्थायित्व देने की भी कोई व्यवस्था ज़रूर है।
बहरहाल, वयस्क अवस्था आ गई, पौधे या पेड़ फूलने को तैयार हैं, अब और क्या चाहिए? दूसरे शब्दों में क्या वयस्क होते ही फूल लगने लगेंगे या किसी अन्य कारक का भी नियंत्रण होता है इस पर? यह बात आम अनुभव की है कि कई पौधे ताउम्र फूल नहीं देते। खासकर सड़क किनारे, जहां यातायात ज़्यादा होता है, वे वृक्ष ठीक से फूलते नहीं। आखिर अब कौन रोक रहा है उन्हें बौराने से?
इस संबंध में कुछ रोचक प्रयोग हुए हैं जिनसे बात का कुछ हद तक खुलासा मिला है। आइए, कुछ प्रयोगों व उनके परिणामों पर नज़र डालें।
छोटे-बड़े दिनों का चक्कर
गार्नर और एलार्ड नामक दो वैज्ञानिकों ने सन् 1920 में सोयाबीन के साथ कुछ प्रयोग किए। उन्होंने पाया कि सोयाबीन की बिलोक्सी नामक किस्म की मजेदार बात यह है कि उसे बोने की तारीख कुछ भी हो, फूल लगभग एक ही समय पर आते हैं। अगर उसके कुछ पौधे देर से बोए जाएं तो भी वे सब के साथ ही खिलेंगे। यानी बोने से लेकर फूल खिलने की अवधि निश्चित नहीं है, कम-ज्यादा हो सकती है। पर क्योंकि सब फूल एक-साथ खिलते हैं इसलिए कोई कारक ज़रूर है जो उन्हें नियंत्रित करता है।
उन्होंने इसी तरह के प्रयोग तम्बाकू की एक किस्म मैरीलैण्ड मैमथ के साथ भी किए। इसे जब गर्मियों में वाशिंगटन में लगाया गया तो पौधा तो खूब बड़ा हो गया मगर फूल नहीं लगे। इसके विपरीत जब इसी पौधे की कलम जाड़े के दिनों में ‘ग्रीनहाउस' में तापमान बढ़ाकर लगाई गई तो बहुत छोटे पौधों पर भी फूल लग गए। (पौधों-फसलों को प्लास्टिक या कांच की चादर से ढक कर उनके वातावरण को नियंत्रित किया जाता है - जैसे तापमान, आर्द्रता आदि। इसे ग्रीनहाउस कहते हैं।)
वास्तव में गार्नर और एलार्ड फूल के प्रयोग नहीं कर रहे थे। वे तो पौधे संवर्धन (plant breeding) में रुचि के कारण प्रयोग में जुटे थे। परन्तु इस 'आकस्मिक' घटना, यानी मैरीलैण्ड के पौधे का जाड़े के दिनों में ग्रीनहाउस में फूल देना, को वे अनदेखा न कर सके और फूल लगने, न लगने की बात को समझने में जुट गए। उन्होंने देखा कि तापमान और प्रकाश की तीव्रता का फूलने की क्रिया पर असर नहीं पड़ता, तब उन्होंने दिन की लंबाई की जांच की। इसके लिए उन्होंने सोयाबीन व तम्बाकू के पौधों को ही चुना। गर्मियों में इन्हें लगाकर कुछ पौधों को तो खुले में ही रहने दिया। कुछ पौधों को अलबत्ता वे रोज़ दिन के समय, अंधेरी झोपड़ी में रख देते थे। यानी इन पौधों के लिए उन्होंने दिन को कृत्रिम रूप से छोटा कर दिया।
उन्होंने पाया कि इस तरह कृत्रिम रूप से छोटे दिन का प्रभाव यह हुआ कि सोयाबीन और तम्बाकू दोनों पर ही फूल खिल गए। इसके आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि इन पौधों पर फूल तभी खिलते हैं जब दिन की लंबाई (यानी प्रकाश अवधि) काफी छोटी हो। प्राकृतिक रूप से यह परिस्थिति सितंबर में बनती है। और इसीलिए ये पौधे सितंबर में फूलने में आनाकानी नहीं करते।
सोयाबीन और तंबाकू जैसे पौधों को छोटे दिन के पौधे कहा जाने लगा क्योंकि इन पौधों में फूल आने के लिए एक सीमा से छोटे दिन की ज़रूरत होती है। इसके विपरीत लंबे दिन के पौधे उन्हें कहा गया जिन्हें एक हद से ज्यादा बड़े दिन जरूरी हैं। बहुत से पौधे ऐसे भी हैं जिन में फूल खिलने की शुरुआत दिन की लंबाई से तय नहीं होती। ये उदासीन पौधे कहलाते हैं।
गार्नर एवं एलार्ड ने अपने प्रयोगों में ताप, प्रकाश तीव्रता, आर्द्रता, मिट्टी में पोषक तत्व, मिट्टी में नमी आदि सभी कारकों का अध्ययन किया और पाया कि इनसे फूलों के खिलने पर कोई असर नहीं पड़ता। इस सबके बाद ही उन्होंने प्रकाश अवधि के प्रभाव का अध्ययन किया।
अंधेरा या रोशनी
आज भी हमारी समझ मोटे-मोटे तौर पर वही है कि फूलों के खिलने में दिन-रात की लम्बाई का हाथ है। परन्तु एलार्ड और गार्नर के प्रयोगों और निष्कर्षों के कई साल बाद एक और चीज़ जानने को मिली जिससे वह समझ थोड़ी-सी बदली है। एलार्ड और गार्नर ने माना था कि फूल खिलने का संकेत दिन की लम्बाई यानी प्रकाश की अवधि पर निर्भर करता है। परन्तु सन् 1938 में किए गए कुछ प्रयोगों से साबित हुआ कि यह संकेत दिन पर नहीं, बल्कि रात पर निर्भर करता है। यानी प्रकाश की नहीं परन्तु अंधकार की अवधि से मिलता है फूल खिलने का संकेत।
स्वाभाविक है मन में सवाल उठेगा कि इन दोनों में क्या अन्तर है, यह तो एक ही बात हुई। परन्तु वास्तव में ये दोनों बातें एकदम अलग हैं। संकेत अंधकार पर निर्भर करता है-इसका क्या अर्थ है, छोटी-रात-बड़ी-रात के पौधे किन्हें कहते हैं, क्या सिर्फ दिन-रात का ही प्रभाव पड़ता है फूलों के खिलने पर,... यह सब बातें अब अगले अंक में।
(सुशील जोशी - विज्ञान एवं पर्यावरण विषयों पर सतत लेखन। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से गहरा जुड़ाव।)
इस लेख में साज-सज्जा के लिए इस्तेमाल किए गए चित्र ताजमहल, आगरा और शालीमार बाग, लाहौर की इमारतों पर पत्थरों से की गई सजावट का काम और कपड़े पर की गई कशीदाकारी से लिए गए हैं। ये मुगल कला के बेहतरीन नमूने हैं।
अद्भुत उल्लू
इन चित्रों को ध्यान से देखकर बताने की कोशिश कीजिए कि दोनों में से कौन-स चित्र उल्लू के मुंह का है? क्या कहा ... बता पाना मुश्किल है! शुरुआत में हम भी परेशान हो गए थे लेकिन फिर गौर से देखा तो मालूम हुआ।
इस पिग्मी उल्लू को प्रकृति ने दुश्मनों से बचाव का अनोखा हथियार दिया है पिग्मी उल्लू के सिर के पीछे रंगीन पंखों से ऐसी आकृतियां बनी होती हैं कि लगत है मानो आंखें और चोंच बनी हों और उल्लू हमारी ओर देख रहा हो। अब आप ही बताइए उल्लू पर पीछे से हमला बोलने वाला भी। उलझन में फंस जाएगा न अगर कोई घूरकर देख रहा हो तो चुपके से उस पर हमला नहीं बोला जा सकता, यह सोचकर शिकारी शाय चुपचाप आगे बढ़ जाएगा, है न?!