अवशेषों की जांच-पड़ताल कर तरह-तरह के अनुमान लगाते हैं इतिहासकार। कुछ गतिविधियां करते हुए बच्चे भी इस प्रक्रिया को समझना शुरू कर सकते हैं।

हज़ारों साल पहले रहने वाले लोगों के बारे में इतिहासकार ऐसी सहजता के साथ लिखते हैं मानो कि वे उनके चिरपरिचित मित्र हों - वे उनके घर-बार, वेश-भूषा, रहन-सहन, खान-पान और रीति-रिवाजों के बारे में बहुत-सी बातें बताते हैं जैसे कि उन्होंने यह सब खुद देखा हो। अक्सर बच्चे यह पूछ बैठते हैं कि इतनी पुरानी बातों के बारे में कैसे पता लगता है। ऐसे बच्चों को हम या तो डांटकर चुप करा देते हैं या कुछ मोटी-मोटी बातें कहकर टाल देते हैं जैसे - इतिहासकार खुदाई करते हैं और मिट्टी के नीचे दबी चीजों से पता लगाते हैं। मिट्टी के नीचे क्या मिलता है, उससे क्या और कैसे पता किया जाता है, ये सब न हम समझते हैं और न समझा ही पाते हैं।

इसलिए हमने यहां कुछ अभ्यास सुझाए हैं जिन्हें आप कक्षा में कर सकते हैं। इनका मकसद है, पुरातत्व के माध्यम से इतिहासकार बीती हुई बातों का पता कैसे करते हैं, यह समझना।

सौ साल बाद

मान लो कि किसी कारण तुम्हारे गांव के सब लोग गांव छोड़कर चले जाते हैं और पूरा गांव वीरान हो जाता है। धीरे-धीरे जैसे-जैसे समय गुज़रता है इस गांव के घर व अन्य इमारतें मिट्टी के नीचे दब जाती हैं। मान लो कि 500 साल बाद कोई उस जगह को खोदना शुरू करे जहां तुम्हारा स्कूल हुआ करता था तो उसे क्या-क्या चीजें मिलेंगी ?

अपनी शाला में रखी हुई व पड़ी हुई सब चीज़ों को ध्यान से देखो और ऐसी चीज़ों की एक सूची बनाओ जो 500 साल बाद भी बची रहेंगी

  1. ईंट की दीवार
  2.  ...................
  3.  ................... 
  4.  ...................

इन में से कौन-सी ऐसी चीजें हैं। जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह एक स्कूल के अवशेष हैं। क्या इन सब चीजों के आधार पर किसी और निष्कर्ष पर भी पहुंचा जा सकता है? मान लीजिए खुदाई करने वालों में बहस छिड़ गई। चार अलग-अलग लोग हैं, चार मत हैं उनके। कोई कहता है, "यह एक अमीर आदमी का घर है।” दूसरे क कहना है, "यह एक पूजा-स्थल है।” तीसरे का मत और ही है, “अरे नहीं, यह तो एक गोदाम है।” चौथा कहता है, “सब गलत, यह तो एक सरकारी दफ़्तर के सिवाय कुछ हो ही नहीं सकता।”

यह भी मान लीजिए कि आप पांचवें व्यक्ति हैं जो यह कहे जा रहे हैं कि यह तो एक पाठशाला है। आप अपने साथियों के मतों का खण्डन कैसे करेंगे?

दरअसल पुरातत्व की मदद से इतिहास कुछ इसी तरह लिखा जाता है। एक जासूस की तरह अवशेषों का अध्ययन करके कई अटकलें लगाजाती हैं। जिनमें से कुछ सही निकल सकती हैं तो कुछ गलत भी।

हम सब बचपन से एक प्रसिद्ध तालाब के बारे में पढ़ते आए हैं। लेकिन वह तालाब किस काम आता होगा, इस बात को लेकर ऐसी अटकलबाज़ी चलती है

कोई कहता है,
"शहर के लोगों के लिए नहाने व तैरने के लिये बना था - ठीक वैसे ही जैसे तुर्की के हम्माम थे, जहां नागरिक पैसे देकर जाते थे, विश्राम करते थे, नहाते, मालिश करवाते आदि-आदि।”

दूसरे का कहना है,
"अगर यह सच है तो इसे शहर के बीचों-बीच होना चाहिए था| यह तो शहर के कोने में है, किले-बन्द टीले पर बना है। निश्चय ही यह एक पूजा-स्थल रहा होगा जहां देवी-देवताओं की पूजा होती होगी।”

एक और साहब फरमाते हैं,
"पूजा-स्थल हो तो पूजा-पाठ में काम आने वाली अन्य चीजें वहां से मिलनी चाहिए थीं लेकिन ऐसा कुछ मिला नहीं। इसे देखकर ऐसा लगता है कि यह राज्याभिषेक के कर्मकाण्ड से जुड़ा रहा है। हो सकता है कि उस समय यह मान्यता थी कि राजा को इस पवित्र तालाब में नहाकर ही राज्य करने का अधिकार प्राप्त होगा।”

इन में से क्या सही है और क्या गलत, यह बताने उस समय के लोग तो आएंगे नहीं - हमें ही अपनी सूझ-बूझ से तय करना है।

अक्सर खुदाई से प्राप्त बहुत छोटी चीजें बहुत बड़ी बातों की ओर इशारा करती हैं। जैसे कर्नाटक में स्थित सोने की खदानों के पास नीलम (लेपिज़ लजूली रत्न) का मिलना| वहां पर ये रत्न खुदाई के दौरान 2500 साल पुराने अवशेषों के साथ मिलते हैं।

मज़े की बात यह है कि नीलम पत्थर भारत में कहीं भी नहीं पाया जाता। नीलम अफगानिस्तान में एक खास जगह की खदानों से ही प्राप्त होता है। ऐसा पत्थर सुदूर दक्षिण कर्नाटक में प्राप्त होने का क्या मतलब हो सकता है आप खुद ही विचार कीजिए। इस बात को समझाने के लिए कक्षा में एक गतिविधि कर सकते हैं:

सभी छात्र-छात्राओं को 4-4 की टोली में बांटें। प्रत्येक टोली को एक-एक नोट (दो, पांच या दस का) दीजिए। छात्र-छात्राएं इनका बारीकी से अवलोकन करें। उनसे कल्पना करने को कहिए कि 500 वर्षों बाद कोई व्यक्ति यदि इन नोटों को खोजता है, तो वह इनकी सहायता से हमारे बारे में, हमारे समाज के बारे में क्या-क्या अनुमान लगाएगा। इस प्रक्रिया में आप निम्नलिखित प्रश्न पूछकर उनकी मदद कर सकते हैं:

  1. यह कागज़ का टुकड़ा किस काम आता होगा?
  2. जिस देश का यह नोट होगा, उस देश का नाम क्या था?
  3. उस देश में नोट छापने का अधिकार किसे प्राप्त था?
  4. उस देश की मुद्रा का नाम क्या था?
  5. उस देश के पशु-पक्षी और पेड़-पौधों के बारे में क्या-क्या जानकारी मिलती है?
  6. कितनी भाषाएं बोली जाती थीं?
  7. कितनी लिपियां थीं?
  8. महत्वपूर्ण भाषा-लिपि कौन-सी थीं?
  9. उस देश की शासन व्यवस्था के बारे में क्या पता चलता है?
  10. इस नोट से देश की अर्थव्यवस्था के बारे में क्या अनुमान लगाया जा सकता है? किन-किन चीजों के कारखाने हे होंगे, व्यापार कैसे होता होगा, अलग-अलग काम-धन्धे क्या रहे होंगे?
  11. इस नोट के कागज़ और छपासे उनके तकनीकी विकास के बारे में क्या कहा जा सकता है?
  12. उन लोगों की साज-सज्जा एवं कलात्मकता के बारे में क्या कहा जा सकता है। उनकी साज-सज्जा में ज्यामितीय आकारों और वानस्पतिक आकारों का उपयोग किस तरह का था?

प्रत्येक टोली अपने-अपने अनुमान प्रस्तुत करे और उस पर चर्चा करे।जब 40-45 छात्रों के बीच ऐसी एक बहस छिड़ जाएगी तो उसका मज़ा ही कुछ और होगा। कितने तरह-तरह के विचार निकल आएंगे जिसका हम अंदाज़ भी नहीं कर सकते। दरअसल इतिहासकार को भी कुछ इसी तरह अपनी कल्पनाशीलता का उपयोग करना पड़ता है।

अब हम ऐसी ही एक गतिविधि सिन्धु घाटी के एक शहर मोहनजोदड़ो से मिली एक पत्थर की मुहर के साथ करेंगे।

यह मुहर मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई है और एक मुलायम पत्थर के चपटे टुकड़े से बनाई गई है। इसका मुहर के रूप में उपयोग किया जाता था। इसे चिकनी मिट्टी पर दबाने से यही आकृति उस पर अंकित हो जाती थी

अब इस मुहर से हम कौन-कौन-सी जानकरियां हासिल कर सकते हैं। कक्षा में प्रत्येक टोली इस पर विचार करे और अपने-अपने निष्कर्ष बताए। चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए आप ऐसे कुछ सवाल पूछ सकते हैं:

  1. यह मुहर कैसे बनी होगी? पत्थर को तराश कर इन्हें कौन बनाता होगा? किन औज़ारों से बनाया गया होगा इसे?
  2. मोहनजोदड़ो के लोग किन-किन जानवरों से परिचित थे? इनमें से कौन-से जानवर पालतू रहे होंगे?
  3. अगर इस तरह के जानवर मोहनजोदड़ो के पास पाए जाते थे तो वहां का पर्यावरण कैसा रहा होगा?
  4. इसमें जो आदमी बना है वह कौन हो सकता है, देवता/राजा/गड़रिया?
  5. क्या वे अपनी बातों को लिखकर व्यक्त करते थे?
  6. इस मुहर का उपयोग कौन करता होगा? किस काम के लिए उपयोग करता होगा?

अपने समाज में मुहरों का उपयोग कौन करते हैं? (यहां आप मुहर का मतलब समझा सकते हैं - चिट्ठियां, पार्सले क्यों सील किये जाते हैं...)

इस मुहर के आधार पर क्या तुम बता सकते हो कि मोहनजोदड़ो में इनमें से कौन-कौन लोग रहते होंगे? पुजारी, व्यापारी, शिकारी, किसान, अधिकारी, औज़ार बनाने वाले कारीगर, पत्थर तराशने वाले कारीगर, चोर, लिपिक, हम्माल, लुहार, सुनार, बढ़ई, सैनिक ...?

दरअसल इस तरह की गतिविधियों से हम यह आशा नहीं करते कि छात्र मोहनजोदड़ो के बारे में पूर्ण और सही निष्कर्ष पर पहुंचे। इसके लिए एक मुहर का अध्ययन पर्याप्त नहीं होगा। लेकिन इसका उद्देश्य यह है कि छात्रों को उस प्रक्रिया का आभास हो जिससे इतिहासकार, इतिहास की खोज करते हैं, और वे अपनी आंखों व कानों को पैना बनाएं और कल्पना एवं चिंतन से गुज़रें। आखिर यही गुण एक अच्छे इतिहासकार को परिभाषित करता है।


खेती करने वाली चींटियां चीटियां

अपनी मनपसंद फफूंद की खेती करती हैं, सुनकर आश्चर्य होता है! लेकिन यह सच है कि चींटियों की कुछ जातियां अपना पेट भरने के लिए पत्तों पर फफूंद की खेती करती हैं। खेती कुछ इस तरह संभव हो पाती है - जब रानी चींटी को नई बस्ती बसानी होती है तब वह अपनी सेविकाओं (चीटियों) के साथ चल पड़ती है। और साथ में फफूंद के बीज भी रख लेती है। नई बस्ती बसाने के साथ-साथ भोजन-पानी की समस्या भी तो होती है, इसलिए कुछ चींटियां अपने बच्चों को पीठ पर बिठाकर पत्तियां तोड़ने चल देती हैं क्योंकि इन पत्तियों पर ही फफूंद की खेती हो सकती है। चींटियां पत्तियों को तोड़कर अपनी पीठ पर लाद लेती हैं और पत्तियों पर अपने बच्चों को चढ़ा लेती हैं। पत्तियों पर बैठे बच्चे घूम-घूम कर इस बात का ध्यान रखते हैं कि पत्तियों पर कोई अन्य फफूंद न उग पाए और पत्तियां साफ सुथरी रहें।

फिर चींटियां पत्तियों को अपनी बस्ती के पास लाती हैं और इन्हें महीन पीसकर ज़मीन पर फैलाकर इन पर फफूंद के बीज बिखेर देती हैं। बीच-बीच में इन महीन टुकड़ों को अपनी लार से साफ करती हैं। चींटियां ऐसा इसलिए करती हैं क्योंकि उनकी लार में ऐसे रसायन होते हैं जो अन्य फफूंदों को उगने से रोकते हैं और पत्तियों पर चींटियों की मनपसंद फफूंद ही उग पाती है!