जीवन परिचय

अल्बर्ट आइंसटाइन (1879-1955)                                                                                                                  [Hindi PDF, 175kB]

अल्बर्ट आइंस्टाइन का जन्म 14 मार्च 1879 को जर्मनी में उल्म नामक जगह पर हुआ। सात साल की उम्र में उन्होंने म्यूनिख के एक स्कूल में जाना शुरू किया, और दो साल बाद लुइटपोल्ड जिमनेज़ियम में दाखिला लिया। 1889 के आसपास उन्होंने अपने आप ही उच्च स्तर के गणित का अध्ययन शुरू कर दिया। 1894 में उनका परिवार इटली के मिलान शहर में जा बसा, पर वे स्कूल की अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए म्यूनिख में ही रुके रहे। लेकिन वे डिप्लोमा की परीक्षा में फेल हो गए। उनके परिवार वाले चाहते थे कि वे इलेक्ट्रिकल इंजीनियर बनने के लिए पढ़ाई करें। लेकिन डिप्लोमा की परीक्षा में फेल होने के कारण वे ज़्यूरिख के स्विस संघीय तकनॉलॉजी संस्थान (ई.टी.एच.) में प्रवेश नहीं पा सके। तब वे इटली में अपने माता-पिता के पास चले गए। 1895 में वे ई.टी.एच. में प्रवेश पाने के लिए परीक्षा देने ज़्यूरिख गए। इस बार फिर वे असफल रहे। तब उन्होंने इस परीक्षा की तैयारी करने के लिए अराऊ में एक स्कूल में दाखिला ले लिया। इस तरह अगले चार साल वे किसी भी देश के नागरिक नहीं थे।

अन्तत: 1896 में उन्होंने ई.टी.एच. की परीक्षा पास कर ही ली। उन्होंने चार साल का एक पाठ्यक्रम चुना जिसे पूरा करने के बाद वे गणित और भौतिक विज्ञान का अध्यापन कर सकते थे। यहां उनके अध्यापकों में वेबर और हरमन मिन्कोवस्की भी थे। मिन्कोवस्की वही गणितज्ञ थे जिनकी बाद में आइंस्टाइन द्वारा प्रतिपादित सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत को सूत्रबद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही। सन् 1900 में उन्हें ई.टी.एच. के स्नातक की उपाधि मिल गई और उन्हें आशा थी कि उन्हें वहां के भौतिकी विभाग में नौकरी दे दी जाएगी। आइंस्टाइन के कुछ अन्य सहपाठियों को तो नियुक्त कर दिया गया, पर उन्हें ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं मिला। उन्हें स्विस फेड्रल ऑब्ज़र्वेट्री में एक अस्थाई नौकरी मिल गई और 1901 में वे स्विस नागरिक बन गए। सन् 1900 में उन्होंने ‘एनेलेन डर फिज़ीक’ में अपना पहला पर्चा प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था: ‘डिडक्शन्स् फ्रॉम द फिनॉमिना ऑफ कैपिलैरिटी’। लेकिन जब उन्होंने नौकरी के लिए जर्मन भौतिक रसायनविद विल्हेल्म ऑस्टवाल्ड और लाइड्न विश्वविद्यालय के डच् भौतिक वैज्ञानिक कामरलिन्ग ऑनेस् को आवेदन पत्र भेजे तो उन्होंने उनका जवाब तक नहीं दिया (बाद में, इसी विश्वविद्यालय में उन्हें मानद विज़िटिंग प्रोफेसर की उपाधि दी गई)। 1902 में बर्न के स्विस पेटेंट ऑफिस में तकनीकी विशेषज्ञ (तीसरी श्रेणी) के तौर पर उनकी नियुक्ति हुई। उनका साल भर का वेतन 3500 फ्रेंक था। यह नौकरी अस्थाई थी।

1904 में यह नौकरी पक्की कर दी गई, तथा 1906 में उनकी पदोन्नति कर उन्हें तकनीकी विशेषज्ञ (दूसरी श्रेणी) बना दिया गया। 1905 में आइंस्टाइन ने ‘ऑन ए न्यू डिटरमीनेशन ऑफ मॉलीक्यूलर डाइमेन्शन्ज़’ नाम का पर्चा लिखकर ज़्यूरिख विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की। उसी वर्ष उन्होंने चार अन्य पर्चे प्रकाशित किए जिन्होंने भौतिक जगत् की हमारी अवधारणाओं में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। पहले पर्चे में उन्होंने ऊर्जाणुवाद (क्वांटम सिद्धांत) की नींव रखी। दूसरे पर्चे में उन्होंने ‘ब्राउनियन मोशन’की व्याख्या की। तीसरे और चौथे पर्चों में उन्होंने उस सिद्धांत को प्रस्तावित किया जिसे अब हम ‘सापेक्षता के विशेष सिद्धांत’ के नाम से जानते हैं। उन्हें धीरे-धीरे मान्यता मिली और 1908 में वे बर्न विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बन गए। 1909 में उन्होंने बर्न के पेटेंट ऑफिस तथा विश्वविद्यालय से त्यागपत्र दे दिया और ज़्यूरिख विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर नियुक्त हुए। 1911 में पूर्ण प्रोफेसर बनकर वे प्राग के कार्ल-फर्डीनेंड विश्वविद्यालय में चले गए। 1912 में वे ज्यूरिख में ई.टी.एच. में पढ़ाने लगेे तथा 1914 में जर्मनी लौट आए। यहां वे प्रशियन साइंस अकादमी में एक शोध पद पर रहे। इसके साथ-साथ वे बर्लिन विश्वविद्यालय में एक पीठ के निदेशक थे जहां वे शिक्षण कार्य से मुक्त थे। बाद में, वे कैसर विल्हेल्म भौतिक विज्ञान संस्थान, जो तभी स्थापित हुआ था, के निदेशक भी रहे।

1915 में उन्होंने ‘सापेक्षता का सामान्य सिद्धांत’ प्रकाशित किया, और जब 1919 की ब्रितानी खोज यात्राओं ने उनकी इस भविष्यवाणी को सही साबित किया कि सूर्य का गुरुत्वाकर्षण पास से गुज़रने वाली प्रकाश किरणों को मोड़ देगा, तो समाचार-पत्रों ने उनकी खूब प्रशंसा की। 1921 में उन्हें ‘प्रकाश-विद्युत प्रभाव’ (photo electric effect) की व्याख्या के लिए भौतिक विज्ञान में नोबेल पुरस्कार दिया गया। (यह व्याख्या उन्होंने सन् 1905 में प्रकाशित पांच पर्चों में से एक में की थी।) 1925 में उन्हें रॉयल सोेसायटी का कोप्ले मेडल भी दिया गया, और 1926 में रॉयल ऐस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी का गोल्ड मेडल भी।

जर्मनी में नाज़ियों के सत्ता में आने के कारण आइंस्टाइन जर्मनी छोड़ संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए और वहां वे प्रिंस्टन में नवस्थापित उच्च अध्ययन संस्थान में शोध करने लगे। वे वापस जर्मनी कभी नहीं लौटे। 1940 में वे अमरीका के नागरिक बन गए। 1952 में इस्राइल सरकार ने उन्हें इस्रराइल का राष्ट्रपति बनने की पेशकश की, पर उन्होंने इंकार कर दिया।
भौतिक विज्ञान को अपने ज़बरदस्त योगदानों के अलावा अपने जीवन काल में उन्होंने शान्ति को बढ़ावा देने के लिए भी बहुत से कार्य किए।


फोटो इलेक्ट्रिक इफेक्ट
यानी - प्रकाश-विद्युत प्रभाव

एस. एस. प्रभु

सन् 1905 में 26 वर्षीय अल्बर्ट आइंस्टाइन ने पांच पर्चे प्रकाशित किए जिन्होंने क्वांटम यांत्रिकी और सापेक्षता के सिद्धांत की नींव डालकर भौतिक शास्त्र के स्वरूप को ही बदल दिया। इन उपलब्धियों के सौ साल पूरे होने पर वर्ष 2005 को भौतिक शास्त्र के वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। इसी संदर्भ में टाटा मूलभूत शोध संस्थान (TIFR) द्वारा प्रकाशित एक पुस्तिका में वहां के वैज्ञानिकों ने आइंस्टाइन के उन पांच पर्चों को समझाते हुए, सरलीकृत करते हुए प्रस्तुत किया है। उसी पुस्तिका में डॉ. एस. एस. प्रभु द्वारा प्रस्तुत फोटो इलेक्ट्रिक इफेक्ट के पर्चे पर लेख यहां दिया जा रहा है जिसके लिए आइंस्टाइन को 1921 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला। इस लेख में फोटो इलेक्ट्रिक इफेक्ट की चर्चा करने से पहले प्रकाश का स्वरूप समझने के इतिहास का उल्लेख भी किया गया है।

मनुष्य द्वारा प्रकाश को समझने की कोशिश का इतिहास काफी पुराना है। यह इतिहास काफी दिलचस्प भी है। प्राचीन यूनानियों का अनुमान था कि प्रकाश कणों से बना है। उन्नीसवीं सदी में तरंग सिद्धांत सामने आया। फिर बाद में यह माना गया कि प्रकाश दोहरे स्वभाव का है: वह कणों और तरंगों दोनों की तरह व्यवहार करता है। लेकिन उन्नीसवीं सदी की सबसे आश्चर्यजनक घटना थी प्रकाश, चुम्बकत्व तथा विद्युत का एकीकरण। पहले हम प्रकाश को समझने की खोज-यात्रा के इतिहास का अवलोकन करेंगे। उसके बाद हम उस एकीकरण का निरीक्षण करेंगे जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है और यह जानने की कोशिश करेंगे कि भौतिक जगत की हमारी समझ पर उसके क्या असर पड़ते हैं।

प्रकाश : कुछ इतिहास
प्रकाश के बारे में किसी सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाले सबसे पहले व्यक्ति शायद पाइथागॉरस थे (582-500 ईसवी पूर्व), जो यूनानी दार्शनिक और गणितज्ञ थे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने प्रकाश के ‘कण सिद्धांत’ को प्रस्तावित किया। इसके अनुसार नज़र आने वाली हर वस्तु में से लगातार कणों की एक धारा निकलती है जो आंखों पर इन कणों की बौछार करती रहती है। दूसरी तरफ, यूनान के ही एक अन्य दार्शनिक प्लेटो (427-347 ईसवी पूर्व) यह मानते थे कि दृष्टि आंखों में से निकलने वाले प्रकाश से पैदा होती है। यह प्रकाश वस्तुओं पर पड़ता है और उन्हें दृश्य बना देता है। लेकिन प्लेटो के ही शिष्य एक अन्य यूनानी चिंतक अरस्तु (384-322 ईसवी पूर्व) का मानना था कि प्रकाश तरंगों जैसी किसी चीज़ में गतिशील होता है। यूनानियों ने प्रकाश के परावर्तन और अपवर्तन का भी अध्ययन किया।

आइज़ेक न्यूटन (1642-1727) ने प्रकाश का कण (corpuscular) सिद्धांत दिया। इसके अनुसार प्रकाशमय पिंड ऊर्जा का कणों के रूप में विकिरण करते हैं, जो सीधी रेखाओं में चलते हैं। (अब हम जानते हैं कि ये कण आंख के रेटिना से इस तरह से टकराते हैं कि उससे चाक्षुक तंत्रिकाएं सक्रिय हो कर मस्तिष्क में देखने की अनुभूति पैदा करती हैं।) 1666 में, 23 साल की उम्र में, उन्होंने प्रिज़्म के साथ अपना प्रसिद्ध प्रयोग किया। उन्होंने पाया कि सफेद रोशनी सात रंगों से बनी होती है। 1704 में उन्होंने ऑप्टिक्स नाम की अपनी प्रसिद्ध पुस्तक प्रकाशित की। आज हम निश्चित तौर पर जानते हैं कि सफेद रोशनी रंगों के एक अनवरत क्रम से बनी होती है, सिर्फ उन सात रंगों से नहीं जो न्यूटन को नज़र आए थे।

1678 में, एक डच वैज्ञानिक क्रिस्टियान हाइजेन्स् ने प्रकाश के ध्रुवण (polarization) की खोज की और इसकी व्याख्या करने के लिए प्रकाश के तरंग सिद्धांत का प्रतिपादन किया। 1801 में एक ब्रितानी वैज्ञानिक थॉमस यंग ने अपने प्रसिद्ध डबल-स्लिट प्रयोग के द्वारा व्यतिकरण (interference) की प्रक्रिया का पता लगाया। एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक अगस्टिन फ्रेनेल (1788-1827) ने प्रकाश के ‘तरंग-सिद्धांत’ का सम्पूर्ण मॉडल विकसित किया, जिसके द्वारा उन्होंने परावर्तन, अपवर्तन, ध्रुवण तथा व्यतिकरण की व्याख्या की।

बिजली और चुम्बकत्व
सी.एफ. गाऊस (1777-1855) तथा ए. एम. एम्पीयर (1775-1836) ने बिजली और चुम्बकत्व के बुनियादी नियमों को उन्नीसवीं सदी में ही स्थापित कर दिया था। 1832 में ब्रितानी वैज्ञानिक माइकेल फेराडे ने बिजली और चुम्बकत्व में एक संबंध की खोज की, और इसे विद्युत-चुम्बकीय प्रेरण (electromagnetic induction) कहा। 1873 में जेम्ज़ क्लार्क मैक्सवेल ने विद्युत-चुम्बकत्व के एक एकीकृत सिद्धांत को सूत्रबद्ध किया। इसमें उन्होंने समीकरणों के एक ऐसे समूह को विकसित किया जो विद्युत-चुम्बकत्व के सिद्धांत की व्याख्या करते हैं। ये मेक्सवेल के समीकरणों के नाम से जाने जाते हैं। समीकरणों के इस बुनियादी समूह से प्रकाश द्वारा प्रदर्शित सभी क्रियाओं जैसे परावर्तन, अपवर्तन, व्यतिकरण, विवर्तन (diffraction) तथा ध्रुवण इत्यादि और उन्हें संचालित करने वाले नियमों की आसानी से व्याख्या की जा सकती है। सिर्फ इतना ही नहीं। इस सिद्धांत ने बिजली और चुम्बकत्व में इस्तेमाल किए जाने वाले कुछ तथाकथित सार्वभौमिक स्थिरांकों की मदद से प्रकाश की गति की भी भविष्यवाणी की! इस सिद्धांत की एक भविष्यवाणी यह थी कि प्रकाश एक विद्युत-चुम्बकीय विकिरण है।

1884 में हेनरिख हर्टज़् ने, प्रयोग द्वारा इस भविष्यवाणी को प्रमाणित किया। उन्होंने धातु के दो गोलों के मध्य में कुछ जगह छोड़कर उन्हें अत्यन्त उच्च विद्युत विभव प्रदान किया। गोलों के बीच की दूरी को लांघकर चिनगारियां एक-से-दूसरे गोले की ओर जाने लगीं। हर्टज़् ने दिखाया कि जब भी वे वोल्टेज को बन्द या चालू करते थे तो ये चिनगारियां विद्युत-चुम्बकीय विकिरण पैदा करती थीं। वे विकिरण को तार की एक ऐसी कुंडली की मदद से देख पाए जिसके दोनों सिरों के बीच थोड़ी-सी दूरी थी। जब इस कुंडली को गोलों के मध्य विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र में रखा जाता था तो चिनगारियां एक तार से दूसरी तार की तरफ जाती थीं। हर्टज़् ने यह भी सिद्ध किया कि इस प्रकार नज़र आई विद्युत-चुम्बकीय तरंगों को परावर्तित, अपवर्तित तथा विवर्तित किया जा सकता था। उन्हें एक बिन्दु पर केन्द्रित किया जा सकता था, उन्हें ध्रुवित किया जा सकता था, और वे व्यतिकरण के काबिल थीं। यानी उनमें ठीक वही सब गुण थे जो प्रकाश में होते हैं।
यानी प्रकाश का तरंग सिद्धांत पक्के तौर पर स्थापित हो चुका था। लेकिन नहीं, अभी कुछ और चमत्कार होने बाकी थे!

अपनी छान-बीन के दौरान हर्टज़् ने ‘प्रकाश-विद्युत प्रभाव’ की खोज भी की। उन्हें पता चला कि धातुओं पर पराबैंगनी प्रकाश डालने पर वे आवेश छोडती हैं। 1899 में जे.जे. थॉम्पसन ने पाया कि ये आवेश इलेक्ट्रॉन ही थे! परन्तु इससे भी ज़्यादा चकित कर देने वाली क्रिया की खोज 1902 में फिलिप लेनार्ड ने की। लेनार्ड ने धातुओं पर आपतित प्रकाश और उनमें से निकलने वाले इलेक्ट्रॉनों की ऊर्जा के आपसी संबंध को जानने की कोशिश की।

एक शून्य अवकाश नली का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने ऋण ध्रुव पर पराबैंगनी किरणों की बौछार की। ऋण ध्रुव में से निकले इलेक्ट्रॉनों को उन्होंने धन ध्रुव पर इकट्ठा किया। फिर उन्होंने धन व ऋण ध्रुव को जोड़ने वाले बाहरी परिपथ में संचारित बिजली के ज़रिए धन ध्रुव पर आने वाले इलेक्ट्रॉनों की गिनती की।उन्होंने पाया कि इलेक्ट्रॉनों की अधिकतम ऊर्जा प्रकाश की तीव्रता पर निर्भर नहीं करती! ज़्यादा तीव्र रोशनी का मतलब है ज़्यादा प्रकाश ऊर्जा, और इससे ज़्यादा ऊर्जा वाले इलेक्ट्रॉन पैदा होने चाहिए थे। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। इसके अलावा, लेनार्ड को पता चला कि प्रकाश की आवृत्ति (frequency) बढ़ाने से इलेक्ट्रॉनों की अधिकतम ऊर्जा बढ़ जाती है। पर वे प्रकाश की आवृत्ति और इलेक्ट्रॉनों की अधिकतम ऊर्जा में ठीक-ठीक संबंध स्थापित नहीं कर पाए। (वैज्ञानिक तब तक संतुष्ट नहीं होते जब तक कि वे तथ्यों के बीच सुनिश्चित संबंध स्थापित नहीं कर लेते।)
ऐसे में आइंस्टाइन की प्रतिभा की ज़रूरत थी जिन्होंने सिर चकरा देने वाली इस खोज को एक बिल्कुल ही अलग क्रिया से जोड़ दिया, यानी कृष्णिका विकिरण (black body radiation) से।

कृष्णिका-विकिरण
बीसवीं सदी के शुरू में वैज्ञानिक एक और परेशानी का सामना कर रहे थे - गर्म पिंड ठीक-ठीक किस तरह से ऊर्जा छोड़ते हैं? यह आमतौर पर माना जाता था कि किसी पिंड के गर्म होने से परमाणुओं और अणुओं में स्पंदन होता है। और खुद परमाणु और अणु विद्युत आवेशों से बने होते हैं जिनमें स्पंदन होने से विकिरण पैदा होता है। संक्षेप में, यह पाया गया कि गर्म पिंडों में से पैदा होने वाले विकिरण का अध्ययन करने का सबसे आसान तरीका यह है कि किसी ऐसे पिण्ड का अध्ययन किया जाए जो गर्मी का सबसे बढ़िया अवशोषक है, और इसीलिए एक बढ़िया उत्सर्जक भी। इन्हीं वजहों से इस पिण्ड को कृष्णिका कहा गया।

वैज्ञानिकों के सामने चुनौती यह थी कि उत्सर्जित तरंगों में ऊर्जा के वितरण की व्याख्या कैसे की जाए। मैक्स प्लांक ऐसे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि ऊर्जा का विकिरण लगातार नहीं होता, बल्कि वह ऊर्जा के पैकेट के तौर पर होता है। पर खुद प्लांक भी यह पूरी तरह नहीं समझते थे कि उनके इस विचार के परिणाम क्या होने वाले थे। एक स्पंदित परमाणु की ऊर्जा के बारे में प्लांक की भविष्यवाणी निम्न थी।

E = nhf (n = 0, 1, 2, 3, ...)

जहां f आवृति है, n पूर्णांक है, तथा h स्थिरांक है, जो अब प्लांक के स्थिरांक के नाम से जाना जाता है।
विकिरण को पैकेटों में बांटकर देखने का प्लांक का यह विचार 200 साल पहले न्यूटन द्वारा प्रस्तावित विचार से बहुत अलग था। परन्तु ऊर्जा के टुकड़ों में बंटे होने के उनके विचार से आइंस्टाइन को यह सूझा कि विद्युत-चुम्बकीय तरंगें कणों जैसा व्यवहार करती हैं। स्पंदित परमाणु ऊर्जा खो देते हैं, पर वे ऐसा तभी कर पाते हैं जब वे ऊर्जा के एक निचले स्तर पर आएं। जो ऊर्जा परमाणु खो देते हैं वह विद्युत-चुम्बकीय तरंग में बदल जाती है। चूंकि स्पंदित परमाणुओं की ऊर्जा के स्तर ण्ढ की दूरी पर होते हैं, इसलिए उससे निकलने वाले विद्युत-चुम्बकीय विकिरण की ऊर्जा ण्ढ का गुणित पूर्णांक (integer multiple) ही होगी।

आइंस्टाइन का समाधान
इन भिन्न-भिन्न परिणामों का आइंस्टाइन ने अपने अनूठे, प्रतिभाशाली ढंग से इस्तेमाल किया। उन्होंने दिखाया कि प्लांक का फार्मूला तभी संभव है यदि यह मानकर चला जाए कि विद्युत-चुम्बकीय विकिरण असल में ऊर्जा के अलग-अलग कणों/पैकेट (quanta) से बने होते हैं। इसके बाद उन्होंने प्रकाश-विद्युत प्रभाव की व्याख्या करने के लिए इस सिद्धांत का उपयोग किया।
प्रकाश कणों (फोटॉन) से बना होता है। एक इलेक्ट्रॉन को किसी धातु की सतह से हटाने के लिए ऊर्जा की एक न्यूनतम राशि की ज़रूरत होती है। (यह इस बात पर निर्भर करता है कि धातु कौन-सी है।) यदि एक फोटॉन की ऊर्जा इस ‘न्यूनतम राशि’ से ज़्यादा है तो इलेक्ट्रॉन उसमें से निकलकर अलग हो जाएगा। यदि फोटॉन की ऊर्जा इस मूल्य से कम है तो उत्सर्जन नहीं होगा।
आइंस्टाइन की व्याख्या से पहले प्रकाश-विद्युत प्रभाव एक रहस्य बना हुआ था। वैज्ञानिक यह समझने में असमर्थ थे कि कम आवृत्ति और ज़्यादा तीव्रता वाली रोशनी इलेक्ट्रॉनों को क्यों नहीं हटा पाती, जबकि ज़्यादा आवृत्ति परन्तु कम तीव्रता वाली रोशनी ऐसा कर पाती है। अब जब हम जानते हैं कि प्रकाश फोटॉनों से बना होता है, इसे समझना आसान हो जाता है। महत्व ऊर्जा की कुल मात्रा का नहीं है बल्कि इस बात का है कि हर फोटॉन में ऊर्जा कितनी है।

‘प्रकाश-विद्युत प्रभाव’ ने कुछ और प्रश्न भी खड़े कर दिए जो उन प्रश्नों से कहीं ज़्यादा गम्भीर थे जिनके उत्तरों की तलाश इस प्रभाव के माध्यम से की जा रही थी! यह पाया गया कि प्रकाश की तरंग एक कण जैसा व्यवहार करती थी! इससे स्वाभाविक तौर पर जो सवाल उठता था वह यह था: क्या एक कण, उदाहरण के लिए एक इलेक्ट्रॉन, तरंग जैसा व्यवहार कर सकता है? इसका उत्तर दो दशक बाद बेल कम्पनी की प्रयोगशाला से डेवीसन और जरमेर ने दिया। अपने प्रतिभाशाली प्रयोग में वे इलेक्ट्रॉन का तरंग स्वभाव दिखा पाए।
नीचे हम प्रकाश की अलग-अलग घटनाओं की तुलनात्मक तालिका दे रहे हैं। प्रकाश कणों से बना है या तरंगों से? यदि हम प्रकाश की अलग-अलग क्रियाओं को ध्यान से देखें तो ऐसा लग सकता है कि हम कह सकते हैं कि प्रकाश तरंगों से बना है।

लेकिन इस तरह के ‘बहुमत’ से प्रकाश के स्वभाव के बारे में कोई अन्तिम निर्णय नहीं लिया जा सकता। हमें इस तथ्य को स्वीकारना ही होगा कि प्रकाश तरंग और कण दोनों की तरह व्यवहार करता है, चाहे यह तथ्य हमारे रोज़मर्रा के अनुभव के कितना भी खिलाफ क्यों न जाता हो!

प्रकाश-विद्युत प्रभाव का महत्व
न्यूटन के समय से ही यह माना जाता रहा था कि पदार्थ अलग-अलग तरह के कणों से बना होता है, जिन्हें अणु कहा जाता है। अणु एक-दूसरे पर कई तरह के प्रभाव डालते हैं, जैसे कि गुरुत्वाकर्षण-संबंधी, विद्युत तथा चुम्बकीय, इत्यादि। ऐसा विश्वास किया जाता था कि पूरे भौतिक जगत् की व्याख्या न्यूटन के गति संबंधी तीन नियमों के आधार पर की जा सकती है, जब उन्हें अणुओं पर लागू किया जाए। भौतिक दुनिया के बारे में इस दृष्टिकोण को यान्त्रिक (mechanical) दृष्टिकोण कहा जाता था। लेकिन विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्रों तथा तरंग सिद्धांत के आने से यह विश्वास हिल गया। फिर भी, बहुत-सी नई चीज़ों, जैसे - प्रकाश-विद्युत प्रभाव तथा कृष्णिका-विकिरण आदि की व्याख्या न तो यान्त्रिक और न ही तरंग सिद्धांत कर पाए थे। क्वांटम सिद्धांत को प्रस्तावित करके आइंस्टाइन इन दोनों दृष्टिकोणों को मिला पाने में सफल हुए। उनके विचार में पदार्थ तथा विकिरण इस किस्म के पैकेट यानी क्वांटा के आदान-प्रदान से एक-दूसरे के साथ क्रियाशील होते हैं। उन्हें 1921 में भौतिकी में नोबेल पुरस्कार दिया गया। परन्तु यह उनके सापेक्षता के सिद्धांत के लिए नहीं, बल्कि प्रकाश-विद्युत प्रभाव की उनकी व्याख्या के लिए दिया गया।

अब हम मानते हैं कि अत्यन्त तीव्र उत्तेजना से (जिस किस्म की उत्तेजना एक शक्तिशाली लेज़र से हो सकती है) प्रकाश-विद्युत प्रभाव पैदा होता है, चाहे उसमें फोटॉन की ऊर्जा किसी धातु की सतह से इलेक्ट्रॉन हटाने के लिए ज़रूरी न्यूनतम ऊर्जा से कम ही क्यों न हो। इस तरह आइंस्टाइन की व्याख्या सही अर्थों में, सिर्फ सामान्य (न्यून) तीव्रताओं पर ही लागू होती है।

ध्यान रहे कि चाहे इस विषय में पहला कदम आइंस्टाइन ने ही उठाया, फिर भी उन्होंने क्वांटम सिद्धांत को कभी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। वे मानते थे कि यह सिद्धांत अपूर्ण था। विडंबना यह है कि उन्होंने अपने ही विचार का मरते दम तक विरोध किया। इसके बाद क्वांटम सिद्धांत का विकास आइंस्टाइन ने नहीं बल्कि दूसरों ने किया, खासतौर पर नील्स् बोहर, हाइज़नबर्ग, श्रोडिंजर, डिराक तथा फाइनमेन ने।


डॉ. एस. एस. प्रभु: टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, मुंबई के डिपार्टमेंट ऑफ कंडेंस्ड मैटर फिज़िक्स एंड मटिरियल साइंसेज़ में वैज्ञानिक हैं।
रुस्तम: एकलव्य के प्रकाशन समूह से जुड़े हैं।
यह लेख टी. आई. एफ. आर. द्वारा प्रकाशित पुस्तिका - ए रेवोल्युशन इन फिज़िक्स: आइंस्टाइन्स डिस्कवरिज़ ऑफ 1905 मेड सिम्पल - से साभार।