किशोर पवार                                                                                                                                           [Hindi PDF, 58kB]

हंस जैसे फूल और झूलती डलिया
एक दिन अचानक मेरी नज़र पड़ोसी की बागड़ पर पड़ी तो देखा कि वहां बतख जैसे फूल यहां-वहां लटके हुए हैं। पास जाकर देखा तो पता चला कि यह तो एक बेल है जिसे बाग, बगीचों में इसके सुन्दर बतखनुमा फूलों के लिए लगाया जाता है। वनस्पति शास्त्री इसे ऐरिस्टोलोकिया के नाम से पुकारते हैं। इसके बड़े सफेद फूल दूर से वाकई ऐसे दिखते हैं जैसे बेल पर छोटी-छोटी बतखें या हंस लटके हों।

हंस लता इसका बंगाली नाम है जो वाकई बड़ा सार्थक है। इसके फूल की रचना का अगला हिस्सा चोंच जैसा, बीच का च् के आकार का मुड़ी हुई गर्दन-सा और शेष हंस के शरीर जैसा, इसे बिल्कुल ‘डक फ्लावर’ बना देता है। बतख की चोंच वाला हिस्सा बेल से जुड़ा होता है। इसके फूलों का अन्दरूनी हिस्सा बहुत सुन्दर जामुनी रंग का होता है, जिस पर कमाल की चित्रकारी होती है। बेल पर क्रम से खिले फूल व पीछे लगी कलियां देखकर ऐसा लगता है कि हंस अपने परिवार के साथ हवा में तैर रहा हो।

हंसलता के फूलों की आकृति ही विचित्र नहीं है, इन फूलों का व्यवहार भी बड़ा रोचक एवं विशिष्ट है। वस्तुत: ये फूल डिप्टेरा वर्ग की छोटी-छोटी मक्खियों को अपने मतलब के लिए बंधुआ मज़दूर बनाकर रखते हैं। ये कीट इसकी मदहोश कर देने वाली सुगंध से आकर्षित होकर इसके जाल में फंसते हैं। इस तरह के फूलों को ‘पिटफॉल फ्लावर’ कहते हैं, क्योंकि कीटों को ये अपने फूलों में बनी गहरी खाई में गिराते हैं; और-तो-और उन्हें बदले में इन फूलों से न तो मकरन्द मिलता है, न ही पराग। अत: ये एक किस्म की बेगार ही हुई न!

ऐरिस्टोलोकिया क्लिमेटाइटिस इस ‘पिटफॉल’ तरीके से कीटों को फांसने का बढ़िया उदाहरण पेश करता है। वैसे तो इसके फूल द्विलिंगी होते हैं परन्तु ताज़ा खिली अवस्था में यह अपने मादा रूप में होता है। इस अवस्था में यह सीधा खड़ा रहता है तथा डिप्टेरा वर्ग की मक्खियां इसकी सुगंध से वशीभूत होकर फूल की नली से गुज़र कर नीचे की ओर चली जाती हैं; किन्तु नली के अन्दर स्थित रोएं इन्हें बाहर नहीं आने देते। अत: ये कीट एक-दो दिन के लिए वहीं कैद हो जाते हैं।

दो दिन बाद जब फूल का मादा भाग सूखने लगता है तो इस पर लगे कड़क रोएं नर्म पड़ने लगते हैं। फूल के परागकोष भी परिपक्व होकर फट चुके होते हैं, अत: अब फूल मादा से नर अवस्था में आ जाता है। फूल भी नीचे की ओर लटक जाते हैं। ऐसे में अब कीट का बाहर आना आसान हो जाता है। कीट जब एक-दो दिन की कैद से मुक्त होकर बाहर आते हैं तो उनके शरीर पर इस फूल के खूब सारे परागकण चिपके रहते हैं। जब ये कीट पुन: किसी मादा फूल की गंध से वशीभूत होकर एक बार फिर कैद होने के लिए जाते हैं, तो उन ताज़ा मादा फूलों का परागण हो जाता है। यह क्रम इसी तरह चलता रहता है।

हंसलता के परागण के फलस्वरूप बने फल भी बड़े विचित्र होते हैं। बेल के पुराने हिस्सों में यहां-वहां काली-भूरी 5 से 6 सेंटीमीटर लम्बी सुन्दर-सी डलिया लटकी होती है। प्रत्येक डलिया जिसे ‘हैंगिंग बास्केट’ कहते हैं, छाते की ताड़ियों जैसी रचनाओं से लटकती हैं। इन झूलती डलिया के प्रत्येक खाने में सैकड़ों की संख्या में काले-भूरे रंग के नर्म एवं एकदम हल्के बीज भरे होते हैं।

हवा का हल्का-सा झोंका आते ही डलिया के हिलने से बीजों की एक खेप दूर-दूर तक बिखर जाती है। हवा के नियंत्रण से रुक-रुक कर बीजों के बिखरने का यह तरीका सेंसर मेकेनिज़्म कहलाता है, जहां बीजों के बिखराव पर हवा का सेंसर लगा है। कुल मिलाकर हंसलता के फूलों का परागण के लिए कीटों को कैद करना और लटकती डलिया के ज़रिए सेंसर मेकेनिज़्म से बीजों को बिखेरना आदि ने इसे वनस्पति जगत की एक रोचक वनस्पति बना दिया है।


 किशोर पवार: इंदौर के होल्कर साइंस कॉलेज में वनस्पति विज्ञान पढ़ाते हैं। विज्ञान लेखन में विशेष रुचि।