प्रमोद उपाध्याय
रॉड, चोक और स्टार्टर को मिलाकर ट्यूबलाईट तो बन गई। जितनी आसानी से ट्यूबलाईट जलने लगती है, उसे समझना उतना आसान है क्या?
ट्यूबलाईट आजकल लगभग हर घर में पाई जाती है। परन्तु फिर भी हम सब जितना साधारण बल्ब के बारे में जानते हैं, उसकी तुलना में ट्यूबलाईट के बारे में नहीं के बराबर जानकारी होती है। इतना ही नहीं माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के दौरान भी विज्ञान की पढ़ाई में 3 उपकरणों के बारे में पढ़ाया जाता है। परन्तु वहाँ भी ट्यूबलाईट का कोई खास ज़िक्र नहीं आता। पर दूसरी तरफ अपने आसपास हर कोई उसके साथ खिलवाड़ करता नज़र आता है - ट्यूबलाईट शुरू नहीं हो रही है तो उसकी रॉड को घुमाकर देखो, स्टार्टर को हिलाने से शायद ठीक हो जाएगी... अगर स्टार्टर नहीं हो तो सिर्फ एक साधारण बिजली के तार से ही काम चला लेते हैं लोग। यहां पर उसके विभिन्न हिस्सों, उनकी रचना व काम और उन्हें कैसे जोड़ा जाता है आपस में, इस सब के बारे में समझने की कोशिश करेंगे।
ट्यूबलाईट का सबसे जाना-पहचाना हिस्सा तो कांच की नली (बोलचाल की भाषा में इसे रॉड कहते हैं) होती है, जिससे हमें रोशनी मिलती है। इसके अलावा दो और हिस्सों को हम सब पहचानते हैं - लोहे के गुटके जैसी बड़ी-सी रचना जिसे चोक कहते हैं और एल्युमिनियम की एक छोटी-सी डिबिया जो स्टार्टर कहलाती है। अब इनके बारे में विस्तार से बात करते हैं।
कांच की नली या रॉड
यह एक कांच की नली होती है। जिसे दोनों तरफ से सील (हवाचुस्त) कर दिया जाता है। दोनों सिरों पर एक-एक कुंडली होती है जिनके छोर पिनों के रूप में बाहर निकले होते हैं।
इस कांच की नली में कम दबाव पर पारे की वाष्प भरी जाती है। साथ ही नली में आर्गन, नियॉन, क्रिप्टॉन या इन जैसी अन्य अक्रिय गैसें भी भरी होती हैं।
कांच की नली की अन्दरूनी सतह पर किसी ऐसे पदार्थ (फॉस्फोर) का लेप किया होता है जिस पर अगर पराबैंगनी प्रकाश की किरणें पड़े तो वह चमकने लगता है और रोशनी देता है।
दोनों कुंडलियां ऐसी होती हैं कि उन्हें गर्म करने से उनमें से इलेक्ट्रॉन निकलने लगते हैं। इन इलेक्ट्रानों और अक्रिय गैस के आयनों के इधर-उधर आने-जाने से दोनों कुंडलियों के बीच विद्युत परिपथ पूरा होता है।
जब ये इलेक्ट्रॉन पारे की वाष्प के अणुओं से टकराते हैं तो पराबैंगनी किरणें पैदा होती हैं। ये कांच की नली की सतह पर लीपे गए फॉस्फोर से टकराती हैं जिससे हमें रोशनी मिलती है। (ऐसी रचना इसलिए क्योंकि पराबैंगनी किरणों को हम देख नहीं सकते। देख पाने के लिए इन्हें अलग तरह की किरणों में बदलना ज़रूरी है)
स्टार्टर
स्टार्टर में दो चीज़ें होती हैं - एक ग्लो-लैम्प और एक साधारण संग्राहक (कैपेसिटर)।
ग्लो-लैम्प में दो धातु की पट्टियां साथ-साथ रखी होती हैं जिनमें बहुत-ही कम फासला होता है। इस ग्लो-लैम्प में से विद्युत धारा बहने पर वह थोड़ा-सा प्रकाशित हो जाता है। इस प्रकाश की गर्मी के कारण धातु की दोनों पट्टियां फैल जाती हैं और एक-दूसरे से छू जाती हैं।
चोक
चोक में मुख्यतः तांबे के एनेमल चढ़े तार की एक बहुत बड़ी कुंडली होती है। जिसके बीच में लोहे की खूब-सारी पट्टियों से बनी कोर (गुटका) रखी रहती है।
जब भी ऐसी कुंडली में से विद्युत-धारा प्रवाहित की जाए तो हमें मालूम है कि उसके आसपास चुम्बकीय क्षेत्र बनता है। अगर बहने वाली विद्युतधारा ए.सी. हो तो यह चुम्बकीय क्षेत्र लगातार बदलता रहता है। और आपको यह भी ख्याल होगा ही कि बदलते हुए चुंबकीय क्षेत्र से विद्युत धारा पैदा होती रहती है।
इस बदलते हुए चुम्बकीय क्षेत्र से पैदा होने वाली बिजली को प्रेरित विद्युत धारा कहते हैं। चोक में भी यही होता है।
इस तरह की कुंडली (चोक) की खासियत यह है कि जब भी परिपथ में विद्युत धारा तेज़ी से बदलती है तो परिपथ में प्रेरित विद्युत धारा एकदम से बढ़ जाती है।
अब देखते हैं कि ये तीनों चीजें, आपस में कैसे जुड़ी रहती हैं।
कैसे बनता है परिपथ
इन तीनों हिस्सों की रचना जान लेने के बाद अब देखते हैं कि परिपथ पूरा करने पर ट्यूबलाईट कैसे रोशनी देती है।
- जैसे ही हम स्विच ऑन करते हैं। चोक, रॉड की एक कुंडली, स्टार्टर एवं रॉड की दूसरी कुंडली के जरिए विद्युत परिपथ पूरा होता है और स्टार्टर के अन्दर रखा हुआ ग्लो-लैम्प जलने लगता है।
- विद्युत परिपथ पूरा होने से ट्यूब के अन्दर की दोनों कुंडलियां गर्म होकर इलेक्ट्रॉन छोड़ने लगती हैं।
- ग्लो-लैम्प के प्रकाशित होने के कारण उसके अन्दर की दोनों पट्टियां गरमी की वजह से फैलकर एक-दूसरे से छू जाती हैं।
- इससे स्टार्टर शार्ट हो जाता है और इस परिपथ में अचानक विद्युतधारा एकदम बढ़ जाती है।
- इस तरह विद्युतधारा के अचानक बदलने से चोक में भी विद्युतधारा पैदा होती है। बढ़ी हुई विद्युतधारा की वजह से नली की दोनों कुंडलियां खूब गर्म हो जाती हैं।
- इस कारण कुंडलियों में से निकलने वाले इलेक्ट्रॉनों की संख्या अगर पर्याप्त मात्रा में बढ़ जाए यानी कि ज़ोर से धक्का लग जाए तो कांच की नली में भरी गई पारे की वाष्प और अक्रिय गैसों में से विद्युतधारा बहने लगती है।
इसी दौरान क्योंकि ग्लो-लैम्प की पट्टियां आपस में चिपकी होती हैं इसलिए ग्लो-लैम्प में से कोई प्रकाश नहीं निकलता जिससे अब पत्तियों को गर्मी नहीं मिलती। गर्मी न मिलने की वजह से वे वापस सिकुड़ जाती हैं और उनका आपसी सम्पर्क टूट जाता है। अगर कांच की नली इस बीच प्रकाशित हो जाए तो स्टार्टर के ग्लो-लैम्प को प्रकाशित होने के लिए पर्याप्त मात्रा में विद्युतधारा नहीं मिलती।
आपने देखा होगा कि स्टार्टर सिर्फ ट्यूबलाईट शुरू करने के लिए ज़रूरी होता है। एक बार ट्यूबलाईट प्रकाश देने लगे तो स्टार्टर को अपनी जगह से निकाल लेने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
स्टार्टर के जलते-बुझने से जो धक्का लगा था अगर वह कांच की नली में से परिपथ पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है तो यही प्रक्रिया फिर से दोहराई जाती है।
यानी कांच की नली के प्रकाशित न होने की वजह से स्टार्टर के ग्लो-लैम्प को पर्याप्त विद्युत धारा मिलती है और ग्लो-लैम्प प्रकाशित हो जाता है। इससे उसके अन्दर की पट्टियां गर्मी से फैलकर फिर से आपस में छू जाती हैं।
इसके कारण एक बार फिर शॉर्ट हो कर ग्लो-लैंप बुझ जाता है और इस वजह से चोक में से विद्युत धारा अचानक बदलने से प्रेरित विद्युत एकदम से बढ़ जाती है। जिसे हमने पहले धक्का लगाना कहा था। इससे कुंडलियां और गर्म हो जाती हैं, और ज़्यादा इलेक्ट्रॉन छोड़ती हैं।
यह प्रक्रिया तब तक चलती रहेगी जब तक कि ट्यूबलाईट चालू न हो जाए। इसीलिए जब भी हम ट्यूबलाईट का स्विच ऑन करते हैं तो वह दो-चार बार जल-बुझकर ही शुरू होती है।
इस पूरी प्रकिया में एक और वजह से भी चोक महत्वपूर्ण है। जब रॉड रोशनी देने लगती है तो अचानक उसका प्रतिरोध बहुत कम हो जाता है। और उस वजह से परिपथ शॉर्ट हो सकता है। ऐसे में चोक विद्युतधारा की मात्रा को नियंत्रित करने का काम करती है ताकि परिपथ शॉर्ट न हो।
एक बात की तरफ आप का ध्यान शायद गया होगा कि अन्य सब चीजों की बात तो हमने कर ली। परन्तु स्टार्टर में लगा हुआ छोटा सा कैपेसिटर (संग्राहक) क्या काम आता है, उसका कोई ज़िक्र ही नहीं आया अब तक। दरअसल संग्राहक ऐसी बहुत सी तरंगों या किरणों को फिल्टर करता है (यानी कम करता है) जिनकी हमें ज़रूरत नहीं है, और जो बिजली के अन्य साधनों में खलल डाल सकती हैं।
ट्यूबलाईट की खासियत यही है - शुरू होने के लिए उसे जोरों का धक्का चाहिए जिसके लिए घरों में आमतौर पर बहती हुई विद्युत धारा नाकाफी है। इसीलिए चोक, स्टार्टर आदि का तामझाम ट्यूबलाईट के परिपथ में करना पड़ता है। लेकिन एक बार शुरू हो जाए तो फायदा ही फायदा है। उसके बाद तो ट्यूबलाईट में बहुत कम बिजली खर्च होती है।
घरों में जब कभी वोल्टेज कम हो जाता है यानी बल्ब दीए जैसी रोशनी देने लगते हैं, पंखा एकदम धीमा हो जाता है -- ऐसे में ट्यूबलाईट शुरू होती ही नहीं है। परन्तु अगर ट्यूबलाईट पहले से जल रही हो तो उस पर कोई असर नहीं होता! ऐसा क्यों?
इसीलिए आजकल हर जगह बल्ब के स्थान पर ट्यूबलाईट लगाने की कोशिश की जाती है ताकि बिजली की बचत हो। परन्तु मुश्किल वही है कि अभी भी ट्यूबलाईट बहुत ज्यादा मंहगी है। अगर किसी तरह उसकी रचना, परिपथ आदि में बदलाव करके उसे थोड़ा सस्ता किया जा सके तो बल्ब की जगह इसे इस्तेमाल करके घरेलू बिजली की खपत को और भी कम किया जा सकता है।
ट्यूबलाईट की रचना समझने का सबसे आसान तरीका यही है कि कहीं से खराब हो चुकी रॉड, स्टार्टर और चोक ढूंढ लिए जाएं और फिर विद्यार्थियों को साथ लेकर उन्हें खोलकर देखा जाए। चोक को खोलने में एहतियात बरतनी पड़ती है, क्योंकि उसे तोड़ते-खोलते वक्त इतना ज़ोर आजमाना पड़ता है कि चोट लग सकती है। स्टार्टर खोलकर उसके अन्दर के ग्लो-लैम्प को तोड़ कर देखने से धातु की पट्टियों वाली रचना समझ में आएगी।
(प्रमोद उपाध्याय - नेशनल इन्स्टिट्यूट ऑफ इम्युनोलॉजी, नई दिल्ली में शोधरत। दिल्ली विश्वविद्यालय के साइंस सेन्टर के साथ महंगे व जटिल उपकरणों के सरल विकल्पों के विकास में सक्रिय।)