सत्यु
अनारको बात-बात पर सवाल करती है -- और सही जवाब न मिलने पर झुंझलाती है -- बड़ों की तरफ से थोपे गए अनावश्यक अनुशासन से विद्रोह करती है -- सोचती है कि वह क्या करे, क्या बने यह सब पापा और मम्मी ही क्यों तय करते हैं? वे उसकी अपनी इच्छा जानने की कोशिश क्यों नहीं करते? कई बार बैठे-बैठे अनारको ख्यालों में खो जाती है और कल्पना में वह सब देखना शुरू कर देती है जो वह अपने लिए चाहती है।'अनारको के आठ दिन' शीर्षक से लिखी किताब एक फैंटेसी कथा है, जिसमें अनारको के आठ सपनों का जिक्र है। ऐसा है अनारको का पहला सपना।
अनारको एक लड़की है। घर में लोग उसे अन्नो कहते हैं।
अन्नो नाम छोटा जो है, सो उस पर हुक्म चलाना आसान होता है। अन्नो, पानी ले आ, अन्नो धूप में मत जाना, अन्नो बाहर अँधेरा है- कहीं मत जा, बारिश में भीगना मत, अन्नो ! और कोई बाहर से घर में आए तो घरवाले कहेंगे - ये हमारी अनारकली है, प्यार से हम इसे अन्नो कहते हैं। प्यार--हूँ-ह-ह !
आज अनारको का मूंड खराब है। सुबह-सुबह माँ ने बिस्तर से उठा दिया और कहा कि ये लोटा ले और मंदिर में ठाकुर जी को जल चढ़ा आ। अनारको ने पूछा कि ठाकुर जी को जल क्यों चढ़ाएँ? तो माँ ने कहा, "ठाकुर जी को जल चढ़ाने से वह खुश होते हैं।” अनारको ने पूछा, "ठाकुरजी को खुश क्यों करना?” तो माँ ने जरा ज़ोर से कहा, "ये भी कोई पूछने की बात हुई - चल उठ, और मंदिर जा” अनारको ने समझाते हुए पूछा, “अच्छा ठाकुर जी क्या सिर्फ मंदिर में रहते हैं?" अम्मा को मौका मिला और झट कहने लगी, “बेटी, ठाकुर जी तो हर जगह रहते हैं - पत्थरों में, पेड़ों में, घर में, दीवार में, सड़क पर, खेत में और पता नहीं कहाँ-कहाँ" इस पर अनारको ने कहा, "फिर मैं लोटे का यह पानी बाहर भिंडी के पौधों में डाल आऊँ?" माँ ने इस पर कुछ नहीं कहा। खींचकर उसे बिस्तर से उतारा और जमा दी चपत सो अनारको लोटे में पानी लेकर निकल पड़ी। वह जानती थी कि क्या करने वाली है! गली के छोर तक, जहाँ तक अम्मी उसे जाते देख सके, वह सीधी जाएगी, फिर अचानक मुड़ जाएगी और लोटे का पानी कहीं भी उलटकर घूमने निकल जाएगी। सो वह सीधी निकल गई और किया भी वही! रास्ते में और लोग भी लोटा लेकर मंदिर की तरफ जा रहे थे। एक पंडितजी भी जाते हुए दिखे। पंडितजी किसी को समझाते हुए जा रहे- "बेटा, भगवान पर भरोसा रखो। वही सब कुछ ठीक कर देगा। उसकी ताकत अपरम्पार है।”
अनारको ये तो नहीं समझ सकी कि ‘अपरम्पार' क्या होता है, पर इतना ज़रूर समझ गई कि पंडित जी कह रहे थे - भगवान के पास बहुत ताकत है। बस, यही सोचते हुए चली जा रही थी। कि इतने में किंकु दिख गया, बगीचे में। किंकु सेमल के पेड़ के नीचे लेटा हुआ था। अनारको समझ गई कि किंकु को उसके पिताजी ने सुबह-सुबह ट्यूशन पढ़ने भेजा होगा। पर इधर किंकु तो मजे से ऊपर सेमल के पेड़ को देख रहा था। ज़रा सी हवा चलती और सेमल की ढोल से फलों की रुई निकलकर हवा में उड़ती जाती। बंबई के लड्डू-सी गोल-गोल, जैसे बादल हों। अनारको को देखा तो किंकु का चेहरा खिल उठा। अनारको ने उससे पूछा, "क्यों किंकु, क्या यह सच है कि भगवान की बहुत ताकत होती है?” इस पर किंकु सोचने लगा। सोचता रहा। फिर बोला, "ये तो मालूम नहीं पर मेरी ताकत तेरे से ज्यादा है।" अनारको ने समझ लिया कि किंकु बात बदल रहा है, पर उसने जाने दिया और हँस पड़ी। उसने मन-ही-मन सोचा, पतला-सा किंकु अपनी ताकत की डींग मार रहा है और वह भी सुबह-सुबह! सो अनारको ने कहा, चल जा-जा” पर किंकु तो अड़ गया। उस तरफ एक झूला बिलकुल सीधा खड़ा था। किंकु ने कहा, "अच्छा चलो वहाँ चलकर सी-सॉ पर बैठे... एक तरफ से उसे तुम दबाओ और दूसरी तरफ से मैं। अपनी-अपनी ताकत लगाकर देखते हैं कि कौन किसको उठा पाता है।”
अनारको झट तैयार हो गई। फिर लगे दोनों दो तरफ से ज़ोर लगाने अनारको ने खूब ज़ोर मारा, खूब ज़ोर मारा, लंबी साँस खींची, फिर ज़ोर मारा पर किंकु वाला हिस्सा टस से मस ही न हो। जब वह थक गई तो किंकु खिलखिलाने लगा और खूब उछलने लगा। अनारको को कुछ शक-सा हुआ। अंदर ही अंदर कुछ गड़बड़-सा लगने लगा। कुछ सोचकर उसने कहा, "अच्छा चल किंकु, अब जगह बदलकर करते हैं। तू मेरी तरफ आ जा और मैं तेरी तरफ, और फिर दबाते हैं।”
यह सुनकर तो किंकु की हँसी ही गायब हो गई। उसका उछलना भी कम हो गया। पर मन मारकर जैसे-तैसे वह मान गया। इधर अनारको किंकु की तरफ आई तो क्या देखती है कि ज़मीन से एक हुकनुमा लोहे की छड़ निकली हुई है जो सी-सॉ के एक छोर से फँसकर उसे ऊँचा नहीं उठने देती। अनारको किंकु की झूठी ताकत का रहस्य ताड़ गई। उसने मन ही मन सोचा, ‘अच्छा बेटा, तो ये बात है! आखिर, तुम्हारा छोर उठे भी तो कैसे! असल में जब किंकु दबाता था तो वह हुक उसके पीछे होता था और अनारको को वह नहीं दिखता था। एक, दो, तीन कहकर फिर से दोनों दबाने लगे। फिर क्या था, अनारको ने एक झटका लगाया और किंकु महाराज ऊपर! ऐसे ऊपर उठकर गिरे कि धूल में घुलटनियाँ खा गए। उठे, तो नाराजी से कहने लगे,“जाओ, हम तुम्हारे साथ नहीं खेलते। हमारी गुलेल लौटा देना शाम को, हाँ” बस इतना कहा और चल दिए। पर अनारको बैठी रही। उसे जाने की जल्दी नहीं थी, क्योंकि इतना समय तो मंदिर जाने में ही लग जाता। वह जाकर सेमल के पेड़ के नीचे बैठ गई, जहाँ उसने अपना लोटा छुपाया था। "जब जगह की अदला-बदली की, तभी समझ में आया कि किसकी कितनी ताकत है।” अनारको बुदबुदा रही थी। फिर सामने रंग-बिरंगी तितलियों और सेमल की रुई का उड़ना देखने लगी। फिर अचानक कुछ सोचने लगी और सोचते-सोचते वह एक जगह पहुँच गई।
उस एक जगह के अंदर एक जगह में वह क्या देखती है कि सामने से अम्मी चली आ रही हैं और पीछे-पीछे पिताजी। फिर अम्मी रुक गई तो पिताजी भी रुक गए। अम्मी घूमकर पापा को देखने लगीं। अरे ये क्या अम्मी तो अम्मी थीं पर देख ऐसे रही थीं पिताजी की तरफ जैसे पिताजी देख रहे हों। और पिताजी तो पिताजी थे, पर देख ऐसे रहे थे अम्मी की तरफ जैसे कि अम्मी हों।
अब अनारको को नहीं मालूम, वह किसी को कैसे समझाए। पर उस देखने में ही ऐसा कुछ था कि अम्मी-अम्मी होते हुए भी पापा लग रही थीं और पिताजी पिताजी होते हुए भी अम्मी लग रहे थे। अनारको को अटपटा-सा लगा और काफी मज़ेदार भी। फिर पिताजी मिनमिनाते हुए बोलने लगे, “थक गई होगी बर्तन माँजते-माँजते, बैठ जाओ। मैं चाय बनाकर लाता हूँ।” इस पर अम्मी ने कहा, "छोड़ो जी, मुझे जाना है काम से।" पिताजी ने फिर वैसे ही मिनमिनाते हुए पूछा, “क्या काम है, कहाँ जाना है?" इस बार अम्मा ने डपटकर कहा, “तुम क्या समझोगे हमारे काम की बात! दिन-भर तो बस, कागज़-पत्तर में लगे रहते हो। मुझे किंकु की अम्मी के पास जाना है स्वेटर की नई डिज़ाइन सीखने के लिए।" पिताजी हाथ उठाकर अम्मी को ठहरने के लिए कहने ही वाले थे कि इतने में बगल से किंकु की अम्मा दिख गई। हाथ उठाने में पिताजी की कमीज़ का बटन खुल गया था। अम्मी ने एक बार खुले बटन को और एक बार किंकु की अम्मी को कुछ इस तरह से देखा कि पिताजी ने हड़बड़ाकर बटन बंद कर लिया।
इतने में अनारको उस एक जगह से दूसरी जगह पहुँच गई। पर उस दूसरी जगह पहुँचते-पहुँचते न जाने कैसे अनारको को भान हो गया कि घर में पिताजी और अम्मा में से किसकी ताकत ज्यादा है। दूसरी जगह में क्या देखती है कि अरे, ये तो स्कूल आ गया! उसकी क्लास साफ दिख रही थी। उसके सारे साथी बैठे हुए थे - बिट्टो, गोलू, कर्नल, फूलपत्ती, सूरज और किंकु भी। और मास्टरजी? मास्टरजी अपनी कुर्सी पर एक पैर पर खड़े थे, दोनों कान पकड़े हुए! रोना-सा मुँह हो रहा था उनका। ऊपर से किंकु उन्हें डॉट रहा था, “कहिए, आज फिर पाँच मिनट लेट आए! बाहर खड़े-खड़े भूगोल के गुरुजी से बतिया रहे थे? स्कूल इसलिए भेजते हैं क्या आपको? चलिए, खड़े रहिए।” किंकु छडी भी हिला रहा था।
अनारको को फिर से लगने लगा वही अटपटापन और साथ-साथ मज़ा भी आने लगा। इतना मज़ा जैसे उसी मज़े में नहा रही हो। वह खिलखिला कर हँसने लगी। किंकु तो पहले से ही खिसियाया हुआ था। उसने अनारको की तरफ छड़ी फेंकी। छड़ी अनारको को लगी नहीं, पर उसने उसे उठा लिया और उसे लगा कि वह समझ गई कि स्कूल में मास्टरजी और उसके बीच ताकत का रिश्ता क्या है। मास्टरजी रोने-रोने को हो रहे थे, क्योंकि उनकी धोती ढीली हो रही थी और किंकु था कि कान से हाथ छोड़ने ही न दे! अजीब नज़ारा था।
अनारको को पता नहीं क्यों, मास्टरजी पर थोड़ी दया आने लगी। सो दया करते-करते वह उस एक जगह में एक तीसरी जगह पहुँच गई। वहाँ कुछ नहीं था। चारों तरफ बस कैसा दूर-दूर-सा। अनारको ने छड़ी को पैर पर बीचोबीच रखा और ज़ोर लगाकर तोड़कर फेंक दिया, उस कहीं कुछ नहीं वाली जगह में। फिर वह आगे बढ़ गई।
और अब पहुँच गई एक चौथी जगह में। यह चौथी जगह भी उसी एक जगह में थी। अरे, वहाँ तो बहुत हल्ला था। एक डॉक्टर था जिसके हाथ में सुई थी और सामने फूलपत्ती बैठी थी। डॉक्टर एक हाथ से सुई पकड़े, दूसरे हाथ से सर पीट रहा था, और फूलपत्ती थी कि लगी उस डॉक्टर पर चिल्लाने “अरे, मरीज़ मैं हूँ या तुम? बीमार मैं हूँ या तुम? पेट में दर्द मुझे हो रहा है। या तुम्हें? नहीं लगवानी मुझे तुम्हारी सुई!” डॉक्टर रोते-रोते गिड़गिड़ा रहा था, "प्लीज़, एक बार लगा लेने दो। प्लीज़, अगर तुम्हें सुई नहीं लगी तो मुझे पैसे कहाँ से मिलेंगे?" पर फुलपत्ती तो बिलकुल अड़ी हुई थी, टस से मस नहीं हुई। डॉक्टर पसीना-पसीना हो रहा था, उधर अनारको ये नज़ारा देखकर अपनी खिल-खिलाहट नहीं रोक पा रही थी।
हँसते-हँसते वह एक पांचवीं जगह में पहुँच गई। वहाँ एक बगीचा था। बगीचे में सेमल का पेड़ था। पेड़ के नीचे लोटा था, और सेमल की रुई वैसे ही उड़ी जा रही थी। अनारको समझ गई कि यह पाँचवीं जगह उस एक जगह में नहीं है। वह यह भी समझ गई कि अब घर चलने का वक्त हो गया है। सो लोटा उठाया और चल दी घर की ओर घर आई तो माँ ने पूछा, "क्यों अन्नो, चढ़ा आई ठाकुर जी को जल?” अनारको ने कहा, "हाँ अम्मी, जल चढ़ाया, फिर ठाकुर जी बहुत खुश उन्होंने हमारे गाल पर चुम्मी ली, खाने को लड्डू भी दिया और कहा है। कि कल भी ज़रूर आना।” इतना कहकर अनारको अंदर कमरे की ओर चल दी। बाहर अम्मा हँस रही थीं “जाने किस दुनिया में खो जाती है। पगली!" और अंदर कमरे में अनारको मुस्करा रही थी।
(सत्यु - भोपाल गैस त्रासदी एवं अन्य जन आंदोलनों से जुड़े हुए। लेखन में गहरी रुचि।)
*'अनारको के आठ दिन' राजकमल प्रकाशन द्वारा 1994 में प्रकाशित।
शेर और बाघ के पंजे
बाघ पा शेर के नाखून उसका हथियार हैं। जिन्हें वह सिर्फ शिकार करने और उसे चीरने-फाड़ने के लिए उपयोग में लाता है। उनकी शारीरिक संरचना ऐसी है कि जब शेर या बाघ चलता है तो वह अपने नाखूनों को एक खास मांसपेशी के सहारे थोड़ा-सा ऊपर उठाकर, मोड़कर पंजे में छिपा लेता है। ताकि ज़मीन से रगड़ खाकर नाखूनों का पैनापन खत्म न हो जाए। इसीलिए जब शेर चलता है। तो उसके पीछे सिर्फ पंजे की गद्दियों के निशान मिलते हैं, नाखूनों के नहीं।