यमुना सनी, रश्मि पालीवाल
बड़ी कक्षा के छात्रों के दिमाग में भी पृथ्वी की गति और मौसम परिवर्तन की छवि साफ नहीं हैं। आखिर दोष किसे दें?
कक्षा 10 के बच्चों से मिलने का यह हमारा दूसरा मौका था। दो दिन पहले हमने उनकी कक्षा में जा कर उन्हें एक प्रश्न पत्र भरने के लिए दिया था। प्रश्न पत्र में दिन-रात के होने और पृथ्वी पर ऋतु परिवर्तन के बारे में आठ सरल प्रश्न थे। छात्रों ने उनके उत्तर लिख कर दे दिए थे। वैसे तो हमने उस दिन भी उनसे बहुत ज़ोर दे कर कहा था कि डरना घबराना नहीं, और प्लीज़ नकल मत करना - यह परीक्षा नहीं है। इसमें कोई पास-फेल नहीं होगा। हम सिर्फ यह जानना चाहते हैं। कि कौन-सी बातें छात्रों को कैसे समझ आती हैं- इसलिए जैसा समझ में आया वैसा ही सब अपना-अपना लिख देना। फिर भी हमें पता था कि लिखना आसान काम नहीं है और हमें आराम से बैठकर बच्चों से बातचीत भी करनी चाहिए। बच्चों की समझ के बारे में जानने के लिए हम सिर्फ लिखित प्रश्न पत्र के सूत्र पर निर्भर नहीं रहना चाहते थे। हम मौखिक, अनौपचारिक बातचीत के सूत्र से भी स्थिति की जांच करना चाहते थे। इसीलिए हम दुबारा स्कूल गए।
कैसे बदलती हैं ऋतुएं
आज 10वीं में 22 छात्र थे। हम सब बाहर की गुनगुनी धूप में जा कर बैठे। सर्दियों के दिनों में इससे ज़्यादा सहज बात और क्या हो सकती थी।
हमने कहा - तुम सबने लिख कर तो समझाया है। कि पृथ्वी पर ऋतुएं कैसे और क्यों बदलती हैं। चलो अब ज़रा कुछ कर के समझें। यह गेंद लो। मान लो यह पृथ्वी है। और...ये रहा एक पत्थर। इसे यहां बीच में रख देते हैं। यह बन गया अपना सूरज। अब बताओ कि क्या होता है तो पृथ्वी पर कहीं गर्मी पड़ती है और क्या होता है तो कहीं सर्दी पड़ती है?
एक छात्र ने गेंद को पत्थर के चारों तरफ ऐसे घुमायाः
(इसमें गेंद लट्टू की तरह अपने चारों तरफ नहीं घूम रही थी, सिर्फ सूर्य का चक्कर काट रही थी)
वह बोला-'"जब पृथ्वी सूरज के पास आई तब वहां गर्मी हो गई। जब सूरज से दूर चली गई तो पृथ्वी पर ठंड हो गई।"
हमने पूछा, "अच्छा ऐसी बात लगती है। क्यों, परसों जो प्रश्नपत्र किया था, उसमें एक प्रश्न था न - कि जब भारत देश में गर्मी होती है। तो ऑस्ट्रेलिया देश में सर्दी क्यों होती है? क्या तुम समझा सकते हो इस बात को?"
वे कुछ सोचने लगे। हम सोच रहे थे कि भारत और ऑस्ट्रेलिया के संकेत से शायद वे गर्मी-सर्दी होने की प्रक्रिया के वास्तविक पहलुओं को भांप पाएंगे (यानी पृथ्वी का अक्ष पर झुकाव और इसके चलते भारत तथा ऑस्ट्रेलिया के अलग अलग गोलाद्धों में होने से ऋतुओं में अन्तर)। हमारी यह भी उम्मीद थी कि इस उदाहरण से वे यह साफ अहसास कर पाएंगे। कि जब पृथ्वी कथित रूप से सूरज के पास आती है तब भी पूरी पृथ्वी पर गर्मी नहीं होती। कुछ जगहों पर तभी ठण्ड पड़ती है - यानी ऋतुओं के लिए कुछ और बात ज़िम्मेदार है।
बच्चे मुद्दे की गंभीरता को महसूस तो कर रहे थे। एक ने कहा "भारत और ऑस्ट्रेलिया पृथ्वी की अलग-अलग तरफ हैं। जिस तरफ सूरज का प्रकाश मिल रहा है। वहां गर्मी होगी, और जिस तरफ प्रकाश नहीं मिल रहा वहां सर्दी होगी।"
मामला धीरे-धीरे काफी नाज़ुक हो चला था। अब साफ था कि दिन-रात की प्रक्रिया के साथ गर्मी सर्दी होने की प्रक्रिया उलझ गई है। हमने गुत्थी के एक तार को कम-से-कम अलग कर डालने के उद्देश्य से पूछा, ''अगर ऐसा लग रहा है तुम्हें, तो वो पहले वाली बात शायद ठीक नहीं है - है न...? कि पृथ्वी सूर्य के पास आती है तो गर्मी होती है?"
सब खामोश रहे। आखिर कितना सोच सकते थे ऐसे मुद्दों पर। इतने में एक लड़की अचानक बोल उठी, "ऑस्ट्रेलिया व भारत अलग-अलग तरफ नहीं हों तो?"
दिलचस्प सुझाव था, और हमारी दृष्टि में सही दिशा का सुझाव था। तो हमने तपाक से ग्लाब मंगवाया और सबने देखा कि वाकई भारत व ऑस्ट्रेलिया पृथ्वी पर एक ही तरफ हैं।
अब तो बचाव का कोई रास्ता नहीं था। अब कैसे समझाया जाए कि इन दो देशों में एक साथ गर्मी क्यों नहीं होती?
सब असमंजस में कसमसा रहे थे। फिर कुछ देर बाद एक लड़की बोली-"ऑस्ट्रेलिया भूमध्यरेखा के ज़्यादा पास है ..... इसलिए ....."
"इसलिए क्या .........?
फिर थोड़ी चुप्पी। गतिरोध को हटाते हुए हमने ग्लोब पर देखा कि असल में भारत भूमध्यरेखा के ज्यादा पास है।
"खैर, तो क्या होता है भूमध्यरेखा के पास होने से?"
उसने कहा "सूरज की किरणें जब पृथ्वी पर बहुत ज्यादा गिरती है। न, तब भारत पर सीधी किरणें पड़ती हैं और ऑस्ट्रेलिया पर तिरछी किरणें पड़ती हैं ...."
हुँ .... और आगे समझाओ .... लो यह ग्लोब लेकर अपनी बात समझाओ।" उसने ग्लोब लिया और उसे धुरी पर घुमाने लगी। बोली,"जब पृथ्वी घूमती है न तब सूरज की सीधी किरणें भारत पर पड़ती हैं और तिरछी किरणें ऑस्ट्रेलिया पर पड़ती हैं।"
इसके आगे बात पूरी करने में कोई भी समर्थ नहीं था। वही बात बार-बार हो रही थी।
बच्चे ऋतु परिवर्तन जैसी जटिल प्रक्रियाओं के कभी एक छोटे से पहलू को पकड़ते, तो अगले क्षण वह पहलू उनके हाथ से फिसल जाता। वे हाथ पैर मारते हुए लपकते और किसी दूसरे पहलू को झपट लेते - फिर ज़रा-सा कुरेदने पर वह पहलू भी हाथ से फिसल जाता।और आपा-धापी में कोई और सिरा लपकने की कोशिश शुरू हो जाती।
बातचीत की शुरुआत में सूरज से पृथ्वी की दूरी का मुद्दा उठा, फिर उसे छोड़कर पृथ्वी के गोलाकार रूप का मसला पकड़ा गया (ऑस्ट्रेलिया व भारत को एक दूसरे की उल्टी तरफ स्थित बताकर) और दिन रात के सिद्धान्त का उपयोग ऋतु परिवर्तन के लिए किया गया, फिर इसे छोड़ भूमध्यरेखा से समीपता और आड़ी तिरछी किरणों की बात पकड़ी गई।
कक्षा 10वीं में भी बच्चे पृथ्वी और सूरज के संबंधों को एक सरल और मोटी-मोटी सम्पूर्णता में भी नहीं धारण कर पाए थे। इस स्थिति के लिए कोई शिक्षकों को दोष दे सकता है और कोई बच्चों को। पर निश्चय ही मामला ज़्यादा संगीन है। इस विषय में आपकी क्या राय है?
पाठ्य पुस्तकों में तो पूरी प्रक्रियाएं विधिवत् प्रस्तुत की गई होती हैं। रेखाचित्र भी बने होते हैं। हमने एक बार यह प्रयोग किया था कि वर्तमान के छोटे, गूढ़ पाठों के स्थान पर विस्तृत पाठ लिखें व उनमें और ज़्यादा व स्पष्ट रेखाचित्रों द्वारा ऋतु परिवर्तन की प्रक्रियाओं के सभी चरणों को अलग-अलग समझाएं। ऐसे नए पाठ लिख कर हमने कक्षा 6वीं में परीक्षण किया था। ग्लोब का उपयोग भी अच्छे से किया। फिर भी, हमारा निष्कर्ष निकला कि बच्चे इन बातों को समझने में बहुत ज़्यादा कठिनाई महसूस कर रहे हैं।
इस संबंध में आपके अनुभव क्या हैं?
हमने तो उस दिन बच्चों से बातचीत वहीं समाप्त कर दी थी। क्योंकि आगे बढ़ने का सिरा नहीं मिल रहा था, और बच्चों को प्रताड़ित करने की हमारी कतई मंशा नहीं थी।
फिर भी आगे बढ़ने के रास्ते तो किसी तरह ढूंढने ही होंगे। हम अभी भी इस मुद्दे पर सोच रहे हैं - और आपकी सोच भी जानना चाहेंगे।
(दोनों एकलव्य के सामाजिक अध्ययन शिक्षण कार्यक्रम से जुड़ी हैं)
(संदर्भ के पिछले अंक में हमसे एक चूक हो गई। पृष्ठ 25 पर पाठ्य पुस्तकों में दी गई जानकारी के बारे में जो लिखा गया उसकी जगह होना यह था कि पाठ्य-पुस्तकों की जानकारी के बावजूद छात्रों के मन में यही छवि बनती है कि जब पृथ्वी सूर्य के पास आती है तो गर्मी व दूर जाती है। तो सर्दी होती है - संपादक)