सुनील जोशी
कल ही की बात है, जब मैं। एक स्कूल में बच्चों से बातें कर रहा था। बातें-तो-बातें होती हैं, कभी-भी कहीं-भी घूम जाती हैं। और फिर एक दो लोग बातें करने वाले हों तो भी समझ में आता है, कक्षा में तो 40 से कम छात्र-छात्राएं होते ही नहीं हैं, चर्चा चल पड़ी तो चल पड़ी। कल भी ऐसा ही हुआ। सवालों को लेकर मैं उन सबको बताना चाह रहा था कि आपके मन में जो सवाल उठे उन्हें सवालीराम तक पहुंचाना। वह ज़रूर खत लिखेगा और तुम्हारे सवालों का जवाब देगा। आमतौर पर बच्चे सवाल का मतलब सिर्फ उनके किताबी प्रश्नों से ही लगाते हैं। इसलिए मैने एक दो उदाहरण देने के लिए कुछ सवाल कक्षा में उछाले। फिर क्या था- सवालों का अम्बार-सा लगने लगा।
"गुरूजी छड़ी लेकर ही कक्षा में क्यों आते हैं ?"
“कक्षा में हाथ बांधकर बिल्कुल चुपचाप बैठना ही अनुशासन क्यों कहलाता है?"
"नागपंचमी के दिन नाग की पूजा कर दूध पिलाया जाता है। लेकिन अन्य दिनों में उसे मारा जाता है। ऐसा क्यों?"
"लड़कियां बाल क्यों बढ़ाती हैं, लड़के क्यों नहीं?" आदि-आदि
यही नहीं बड़े लोग उनके साथ जैसा व्यवहार करते हैं उसके बारे में उनके कई सवाल थे।
हां सर, जब हमसे कोई गलती होती है तो हमको डांट पड़े, मार पड़े तो कोई बात नहीं। लेकिन जब वही गलती हमारे घर के बड़े लोग करते हैं तब भी हमें ही सुनना पड़ता है। आखिर ऐसा क्यों?
जब मैने पूछा कि ऐसा कब हुआ तो तुरंत जवाब मिला, "जैसे मान लो मैं कहीं से आ रही हूं और कमरे में कोई सामान पड़ा है - लोटा, गिलास, शीशी कुछ भी। मैं निकली और मेरा पैर सामान से लग गया तो घर के किसी भी बड़े की आवाज़ सुनाई देगी। ‘क्यों देख कर नहीं चलती। कभी-कभी मार भी पड़ जाती है।”
और ठीक ऐसा ही जब उनके साथ होता है तो वे कहते हैं, "देखो ये सामान बीच में रख दिया। ठीक जगह पर सामान रखना तो आता ही नहीं है।
क्या-क्या सोचते हैं ये बच्चे इसके बारे में मुझे उस बातचीत के दौरान काफी कुछ पता चला। हम जाने अनजाने उनके साथ जैसा व्यवहार करते हैं उसे बच्चे बहुत गौर से देखते हैं और उसी के आधार पर हमारे बारे में अपनी धारणा बनाते हैं।
एक लड़की ने कहा “सर, मेरी पड़ोसन बहुत खराब है। मेरे पापा-मम्मी तो मेरे ऊपर कभी बंदिश नहीं लगाते। जैसे मेरे भैया को रखते हैं वैसे ही मेरे को। हां, घर का काम तो करना ही पड़ता है। पर सहेली के घर जाना, खेलना आदि किसी काम में नहीं रोकते - जैसे औरों के घर होता है। लेकिन जो मेरी पड़ोसन है ना, वो हमेशा मेरी मम्मी के कान भरा करती है। कुछ-न-कुछ मेरे बारे में कहती ही रहती है। लड़की बड़ी हो गई है, इसे ज्यादा घूमने मत दिया करो। ये लड़कों के साथ भी रहती है। अब बताओ मैं लड़को के साथ पढ़ती हूं तो लड़कों के साथ नहीं रहूंगी।”
दूसरी छात्रा ने भी कुछ इसी ढंग की घटना सुनाई। इतना ज़रूर था कि उसका रोष समाज की इस मानसिकता को लेकर कुछ ज्यादा ही था। उसने बताया कि उसके पापा उसे ज्यादा चाहते हैं, पर मम्मी से उसकी बहुत ही कम पटती है।
होता अक्सर यही है कि हम बच्चों के ऐसे कई सवालों को। नज़रअंदाज कर देते हैं। कभी-कभी तो इन प्रश्नों पर उन्हें डांट भी खानी पड़ती है कि फालतू बातें कम करो, अपनी पढ़ाई में ध्यान दो। और उनके सवालों की वहीं समाधि बन जाती है। फिर नए सवालों को पूछने की हिम्मत कैसे बनेगी।
(सुनील जोशी- पूर्व शिक्षक, अब व्यवसाय में संलग्न)