23 मई 2022 का दिन विज्ञान की दुनिया के लिए बेहद दुखद खबर लेकर आया। इस दिन विज्ञान की दुनिया ने शुकेदव प्रसादजी जैसे विज्ञान के एक श्रेष्ठ तपस्वी को खो दिया। उनका निधन हृदयाघात से हुआ। वे विज्ञान की दुनिया के उन सर्वश्रेष्ठ नक्षत्रों में से एक थे, जिन्होंने अपने अथक प्रयासों से न सिर्फ विज्ञान लेखन में नए कीर्तिमान स्थापित किए, बल्कि अपनी सशक्त लेखनी के माध्यम से कई युवा विज्ञान लेखकों को भी विज्ञान लेखन की राह दिखाई।
पिछले 50 वर्षों से अपने लेखन के द्वारा विज्ञान जगत को आलोकित करने वाले शुकदेवजी का जन्म 24 अक्टूबर 1954 को बस्ती जिले (अब सिद्धार्थ नगर) के गांव गोल्हरा में श्री रामनारायण के यहां हुआ था, लेकिन उनकी कर्मभूमि आजीवन प्रयागराज रही। उनका जन्म ऐसे परिवार में हुआ था, जहां शुरू से ही अध्ययन- अध्यापन का माहौल था। उनके पिता श्री रामनारायणजी, पितामह श्री गयाप्रसादजी अध्यापक थे। घर में पुस्तकालय होने से बचपन से ही उनके भीतर अध्ययन की ऐसी ललक जागी कि उन्होंने बालपन में ही मैथलीशरण गुप्त की भारत-भारती, बाबू गुलाब राय की प्रबंध प्रभाकर सरीखी किताबें पढ़ ली थीं। उनकी यही ललक कॉलेज तक आते-आते लेखन के रूप में प्रस्फुटित होने लगी।
उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा के बाद उच्च शिक्षा में एम.एससी. (वनस्पति विज्ञान) और हिन्दी/इतिहास/अर्थशास्त्र में एम.ए. की उपाधियां अर्जित कर सर्वश्रेष्ठ छात्र के रूप में अपना नाम दर्ज करवाया। स्वभाव से ही वे स्वतंत्र प्रवृत्ति के थे, शायद इसलिए उन्होंने जीवन भर कभी कोई नौकरी नहीं की।
विज्ञान की दुनिया के एक और यशस्वी लेखक श्री गुणाकर मुलेजी के बाद स्वाभिमानी शुकदेवजी ही ऐसे विज्ञान लेखक रहे, जिन्होंने अपना सारा जीवन विज्ञान लेखन से प्राप्त होने वाली राशि के बूते गुज़ारा।
उनके विज्ञान लेखन की शुरुआत 1973 से हुई, जब प्रयागराज से प्रकाशित होने वाली देश की पहली और लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका विज्ञान में उनके लेख एल्गी (शैवाल) और उनका हमारे जीवन में महत्व का प्रकाशन हुआ। यह उनका विज्ञान लेखन के क्षेत्र में पहला योगदान था। इसके बाद यह सुनहरी यात्रा निरंतर 50 वर्षों तक चलती रही। भारत में विज्ञान की दुनिया से जुड़ी हिन्दी की शायद ही कोई विज्ञान पत्रिका या अखबार हो, जिसमें उन्होंने अपना योगदान न दिया हो। स्वतंत्र लेखक के रूप में उन्होंने निरन्तर विज्ञान लेख लिखे। अंतिम समय तक विज्ञान लेखों के कीर्तिमान रचते हुए वे विविध पत्र—पत्रिकाओं के लिए पांच हज़ार से ज़्यादा लेख लिख चुके थे।
विज्ञान को बढ़ावा देने हेतु उन्होंने स्वयं के प्रयासों से महत्वपूर्ण पत्रिकाओं जैसे — विज्ञान भारती, विज्ञान वैचारिकी, पर्यावरण—दर्शन, शुकदेव प्रसाद ऑन करंट साइंस आदि - का संपादन भी किया। हिन्दी में लिखी गई उत्कृष्ट विज्ञान कथाओं को एक जगह लाने और उनका संपादन कर प्रकाशित करवाकर, शुकदेवजी ने विज्ञान की दुनिया को बेमिसाल, अनुपम दस्तावेज़ उपलब्ध कराए हैं। युगों-युगों तक ये विज्ञान की दुनिया की थाती बने रहेंगे। यूं तो उनके द्वारा लिखे गए लेख या पुस्तकें सभी श्रेष्ठ हैं, यद्यपि उनमें प्रमुख हैं — विज्ञान कथा कोश — 5 खंडों में, बीसवीं शती का विज्ञान विश्वकोश — 4 खंडों में, विज्ञान हमारे जीवन में, परिवहन की कहानी, भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, ऊर्जा संसाधनों की खोज में, विमानन के सौ वर्ष, अंतरिक्ष में भारत, पर्यावरण संरक्षण, वैज्ञानिकों का बचपन सहित कई और श्रेष्ठ पुरस्कृत पुस्तकें।
अपने लेखन से विज्ञान के संसार में सूर्य की तरह चमकने वाले शुकदेवजी का चहुंओर सम्मान हुआ। इनमें प्रमुख हैं — सोवियत लैंड नेहरू सम्मान (पूर्व सोवियत संघ सरकार); विक्रम साराभाई सम्मान (उ.प्र. हिन्दी संस्थान); डॉ. होमी भाभा पुरस्कार (परमाणु ऊर्जा विभाग, भारत सरकार); विज्ञान और प्रौद्योगिकी पुरस्कार (विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार); साहित्य महोपाध्याय (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग); राष्ट्रीय ज्ञान-विज्ञान पुरस्कार (गृह मंत्रालय, भारत सरकार); डॉ. सी. वी. रामन तकनीकी लेखन पुरस्कार (आईसेक्ट, भोपाल)।
अपने सरल और सहज लेखन से शुकदेवजी ने विज्ञान के विभिन्न गूढ़ विषयों को न सिर्फ सरलता से बयां किया, बल्कि नए लेखकों को प्रोत्साहित व प्रशिक्षित करने का भी कार्य किया। अपने व्यवहार को सौम्य रखते हुए उन्होंने विज्ञान के सभी श्रेष्ठ साधकों का सानिध्य प्राप्त किया। यही वजह है कि आज उनके जाने पर विज्ञान जगत के सभी गणमान्य व्यक्तित्वों, साधकों और विज्ञान प्रेमियों ने अपनी ओर से गहरा दुख व्यक्त किया है।
इस श्रद्धांजलि आलेख का अंत उन्हीं के शब्दों से करना प्रासंगिक होगा, जो कभी उन्होंने कहे थे, ''मैंने नानाविध—बहुविध लेखन किया है, सामयिक संदर्भ भी मुझे आकर्षित करते रहे हैं, सो मैंने उन पर भी अपनी कलम चलाई है, लेकिन मेरे समग्र लेखन में भारत, भारतीयता, भारतीय संस्कृति अपनी संपूर्णता और सर्वांगता के साथ यत्र-तत्र विद्यमान हैं। अपनी वैज्ञानिक विरासत और परंपराओं को अक्षुण्ण रखने की दिशा में, मैं सदैव प्रतिबद्ध और कटिबद्ध रहा हूं।'' (स्रोत फीचर्स)