राकेश दीवान
अनुपम मिश्र नहीं रहे। देश के तालाबों को लेकर उनके काम से सभी परिचित हैं। राकेश दीवान उनकी तालाब सम्बंधी पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के कुछ पहलुओं के बहाने अनुपम की बातें कर रहे हैं। पिछले कवर पृष्ठ पर इसी किताब के कुछ अंश देखें।
अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ शायद दुनिया की सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली किताबों में से एक है। इसमें सिर्फ पानी की बातें नहीं हैं बल्कि जगह-जगह के स्थानीय समाज और उनकी ज्ञान पद्धतियों का पक्ष भी है। अनुपम जी जहां भी तालाब की बात करने के इरादे से जाते तो बातें वहां से निकलकर कृषि, उद्योग, भाषा और समाज तक चली जातीं।
वे कहते हैं कि हमने कभी भी अपने स्थानीय ज्ञान और पुराने अनुभवों का सम्मान नहीं किया और उन्हें सिरे से नकारा। एक ओर राजस्थान के वे इलाके जिन्हें पिछड़ा माना जाता है उन्होंने अपने स्थानीय पूर्व ज्ञान और उपलब्ध संसाधनों का उपयोग कर अपनी पानी की समस्या को दूर किया है। वहीं दूसरी ओर, ज़्यादातर शहरों ने अपने पुराने संसाधनों को बर्बाद कर पानी की समस्या खुद खड़ी की है।
भोपाल में हज़ारों की संख्या में तालाब मौजूद थे लेकिन अब ज़्यादातर छोटे तालाब गायब हो चुके हैं और होशंगाबाद की नर्मदा से यानी 75 कि.मी. दूर से पानी लाकर शहर की प्यास बुझा रहे हैं। इंदौर शहर में भी पानी की विकराल समस्या रही है और उसके लिए कभी नर्मदा तो कभी अन्य बांधों से पानी दूर से लाना पड़ता है।
सोलहवीं शताब्दी का एक वाकया है कि एक बार होलकर राजघराने का एक छोटा जहाज़ सिरपुर तालाब में सैर करते वक्त डूब गया तो उसे खोजने के लिए बाहर से कई गोताखोर बुलवाए गए थे। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वहां अथाह पानी था। आज की स्थिति यह है कि वह एक इतिहास बनकर रह गया है।
जब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ किताब निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी तब अलग-अलग स्वस्फूर्त लोगों के समूहों ने विभिन्न राज्यों से सूचनाएं भेजी थीं। इन जानकारियों को संकलित कर 120 पेज की यह किताब निकाली गई। इसके लिए भेजी गई सामग्री बहुत अधिक मात्रा में मिली थी। अनुपम जी किताब इतनी मोटी नहीं करना चाहते थे जिसे पढ़ना ही मुश्किल हो जाए। वे इसमें कोई तकनीकी शब्दावली या तकनीकी विश्लेषण का इस्तेमाल नहीं करना चाहते थे। इसके पीछे का एक किस्सा मुझे याद आता है कि किताब का हर हिस्सा तैयार कर वे उसे अपनी अम्मा को पढ़वाते थे। उनका मानना था कि यह किताब हर वह आम आदमी पढ़ सके जो पढ़ना भर जानता हो। उन्होंने कई ऐसे शब्द बदले जो अम्मा को कठिन लगे थे। किताब के शब्दों का साइज़ और लाइनों के बीच की दूरी भी अधिक रखी गई ताकि अम्मा जैसा हर पाठक इसे पढ़ सके। दिलीप चिंचालकर जी ने फिर इसे इसी तरह की किताब का स्वरूप दिया।
किताब को छापने से पहले ही इसकी लागत के मुताबिक प्रतियां तय कर ली गई थीं ताकि लागत निकाली जा सके। लेकिन इसके बाद तो कमाल ही हो गया हर बार इसकी कई नई प्रतियां छपती गईं। कई महीनों तक किताब ने गांधी पीस फाउंडेशन के लोगों का वेतन भी निकाला। लोगों ने अपने प्रयासों से मराठी, बंगाली और पंजाबी में अनुवाद कर छापे भी। मराठी में ही पांच तरह के अनुवाद चलते हैं। बंगाली में भी दो-तीन अनुवाद हैं।
फिर अंतत: अलग-अलग भाषाओं में किताब की मांग और प्रचार को देखते हुए एनबीटी ने 18 भारतीय भाषाओं में छापा। अंतत: अनुपम जी ने इस किताब को समाज को लोकार्पित कर दिया। इसका न तो कोई कॉपीराइट है और न ही किसी का मालिकाना हक। उनकी यह जन किताब है, जन अर्पित है।
शायद यही ऐसी किताब होगी जिसे पढ़कर लोग इतने प्रेरित हुए कि देश के अलग-अलग हिस्सों में इस किताब को पढ़कर तालाबों पर काम भी किया।
गुजरात के कच्छ इलाके के एक अखबार के मालिक इस किताब के हिस्सों को लगातार क्रमश: अपने अखबार में छापते भी रहे और साथ ही इतने प्रेरित हुए कि वहां के लोगों के साथ मिलकर हज़ारों छोटे तालाबों का जीर्णोद्धार किया। लगभग इसी तरह बिहार, मराठवाड़ा, पश्चिम बंगाल सहित कई हिस्सों में लोगों ने इस किताब से प्रेरित होकर तालाबों पर काम किया।
हाल के दिनों में कैंसर से जूझते हुए 19 दिसम्बर 2016 को उन्होंने अंतिम सांस ली। (स्रोत फीचर्स)