डॉ. राम प्रताप गुप्ता
विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में मृत्यु दंड पर प्रतिबंध लगा हुआ है। भारत सहित सिर्फ 40 देश ऐसे हैं जहां अभियुक्तों को आज भी मृत्यु दंड की सज़ा सुनाई जाती है। ऐसे में भारत में मृत्यु दंड की न्यायिक व्यवस्था के औचित्य पर विचार करना आवश्यक हो गया है। इसी दृष्टि से राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के मृत्यु दंड अध्ययन केन्द्र ने मृत्यु दंड की सज़ा प्राप्त और फांसी के इंतज़ार में 385 कैदियों में से 373 कैदियों से साक्षात्कार करके उनसे उनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि, मुकदमों के दौरान उन पर लगाए गए आरोपों से बचाव के लिए वकील आदि की सेवाएं प्राप्त करने की क्षमता जैसे विभिन्न पहलुओं की जानकारी प्राप्त की। ये साक्षात्कार जुलाई 2013 से जनवरी 2015 की अवधि में लिए गए थे।
साक्षात्कारों से प्राप्त जानकारी के अनुसार 60 प्रतिशत कैदी ऐसे थे जो हाईस्कूल तक की शिक्षा भी पूरी नहीं कर सके थे। इनमें से 84 अभियुक्त तो ऐसे थे जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखा था। स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त अभियुक्तों की संख्या 33 थी। अधिकांश कैदियों की शिक्षा का निम्न स्तर होने के कारण वे उन पर लगाए आरोपों की बारीकियों एवं उसके निहितार्थों को समझने में असमर्थ थे। सामाजिक दृष्टि से तीन-चौथाई कैदी पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्ग से सम्बंधित थे। बहुसंख्यक कैदियों के पिछड़े वर्ग से सम्बंधित होने से यह अर्थ तो नहीं निकाला जा सकता कि न्यायिक प्रक्रिया में उनके साथ कोई भेदभाव होता है, मगर यह कहा जा सकता है कि सीमांत और निम्न आर्थिक स्थिति के कारण वे न्यायालयों में अपने पक्ष का प्रतिपादन करने में असमर्थ रहते हैं।
मृत्यु दंड प्राप्त कैदियों को निर्णय मिलने में लगने वाले समय का अध्ययन करने पर पाया गया कि औसतन अवधि तो 4 वर्ष की थी, परन्तु 127 मामले में उन्हें 5 वर्ष से भी अधिक की अवधि लगी। मुकदमों के निर्णय में लगने वाली इतनी अधिक अवधि सामान्य मुकदमों में भी चिन्ता का विषय मानी जाती है, परन्तु मृत्यु दंड की संभावना वाले मामलों में देरी और अधिक प्रतिकूल प्रभावों वाली होती है।
मामले की गंभीरता को देखते हुए परिजन किसी महंगे नामी वकील की सेवाएं प्राप्त करते हैं, क्योंकि न्यायालय द्वारा उपलब्ध कराए गए वकील की सेवाएं अत्यंत निम्न स्तरीय होती हैं और उसकी मुकदमों में अनुकूल निर्णय प्राप्त करने में कोई रुचि भी नहीं होती। ज़िला अदालत के बाद उच्च न्यायालय में जिनका मुकदमा चलता है, उनमें से 60 प्रतिशत से अधिक के परिवार गम्भीर किस्म की कर्ज़ग्रस्तता के शिकार हो जाते हैं। इसके बावजूद वे कुशल वकील की सेवाएं प्राप्त करने में असफल रहते हैं। मुकदमोंें में लगने वाला समय अपराध की किस्म के साथ-साथ भी बदलता है।
यौन हिंसा के मामले में निर्णय में सबसे कम समय लगता है। इसके बाद बलात्कार-व-कत्ल के मामलों में लगने वाला समय कम होता है। यह प्रवृत्ति देश के सभी राज्यों में सामान्य रूप से देखी गई है। यह शोध का विषय है कि हमारे न्यायालयों में बलात्कार के मामले में निर्णय प्राप्त करने में समय कम क्यों लगता है। न्याय की दृष्टि से सभी मामलों में कम समय लगना चाहिए; कहा भी गया है कि न्याय में देरी का अर्थ न्याय से वंचित करने जैसा है।
चूंकि अधिकांश मृत्यु दंड प्राप्त कैदी निम्न सामाजिक वर्ग से आते हैं, वे कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले भी होते है, अत: जांच प्रक्रिया में वे प्राय: पुलिस की हिंसा के शिकार होते हैं। कई बार जब पुलिस वास्तविक अपराधी का पता नहीं लगा पाती है तब गिरफ्तार व्यक्ति के साथ गम्भीर मारपीट कर उससे खाली कागज़ पर हस्ताक्षर करवा लिए जाते हैं। फांसी के कैदियों से चर्चा करने पर ज्ञात हुआ कि लगभग सभी पुलिस की हिंसा के शिकार हुए हैं। पुलिस द्वारा मुलज़िम को जब न्यायालय में पेश किया जाता है, उसका आधारभूत अधिकार है कि उस समय कुशल वकील की सेवाएं प्राप्त हो। फांसी के 189 कैदियों से चर्चा करने पर ज्ञात हुआ कि उनमें से 169 को न्यायालय में प्रथम बार पेश किए जाने के समय उनका वकील मौजूद नहीं था। कैदियों को न्याय प्रक्रिया के दौरान उनको आवश्यक रूप से मिलने वाली सुविधाओं की कोई जानकारी नहीं होती है।
इस सारे विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि देश में मृत्यु दंड पाने वाले अधिकांश व्यक्ति समाज के निम्न सामाजिक श्रेणी के गरीब लोग होते हैं। इस वजह से न तो वे उन पर लगाए आरोपों को ठीक से समझ पाते हैं, और न ही प्रभावी वकील की सेवाएं प्राप्त कर पाते हैं। पुलिस द्वारा मारपीट कर खाली कागज़ों पर अंगूठा लगवाने या हस्ताक्षर करवा लेने के कारण कई बार निर्दोष होने के बावजूद अपराधी मान लिए जाते हैं। गरीब और निम्न वर्ग को न्याय सुनिश्चित करने की निकट भविष्य में कोई सम्भावना नहीं है। अत: फांसी के कैदी को निर्दोष होने के बावजूद फांसी दिए जाने की संभावना की पृष्ठभूमि में विश्व के अधिकांश राष्ट्रों की तरह भारत में भी फांसी की सज़ा पर प्रतिबंध लगाना उचित होगा। (स्रोत फीचर्स)