--कोकिल चौधरी
मनुष्यों सहित अधिकांश बहु-कोशिकीय जीवों में जीवन की निरन्तरता बनाए रखने में लैंगिक प्रजनन एक महत्वपूर्ण गुण है। पीढ़ियों की उत्तरजीविता में प्रजनन दरअसल पहला कदम होता है। जीवों में लैंगिक प्रजनन की इतनी अधिक उपस्थिति क्यों है, यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है और इसकी व्याख्या के लिए कई सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए हैं। सबसे संजीदा तर्क यह है कि लैंगिक प्रजनन के फलस्वरूप सन्तानों में विविधता उत्पन्न होती है। प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया इस विविधता में से छँटाई करती है और इस तरह से जीवनक्षम प्रजातियों की उत्पत्ति होती है। किन्तु यह बात हर मामले में लागू नहीं होती। जैसे कई जीव अलैंगिक प्रजनन करते हैं, वहाँ यह तर्क लागू नहीं किया जा सकता। जहाँ अलैंगिक प्रजनन में कोई कोशिका स्वयं अपनी प्रतिलिपियाँ बनाती है, वहीं लैंगिक प्रजनन करने वाले सभी जीवों में दो लिंग होते हैं। लेकिन इस बात को लेकर काफी विविधता पाई जाती है कि इन दो लिंगों का निर्धारण कैसे होता है और ये किस रूप में प्रकट होते हैं। इस लेख में हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि लैंगिक गुणधर्म कैसे तय होते हैं और जीवों में इन्हें तय करने की इतनी अलग-अलग प्रणालियाँ क्यों हैं। वैसे प्रणाली जो भी हो, सबका अन्तिम नतीजा तो एक ही होता है। चलिए, संक्षेप में देखते हैं कि लिंग निर्धारण की अलग-अलग विधियाँ कौन-सी हैं, जिनका अध्ययन किया गया है और समझा गया है।
गुणसूत्र सम्बन्धी विधियाँ
1. XY लिंग निर्धारण
जीव विज्ञान की कक्षा में हमें यही पढ़ाया गया था कि मनुष्य में 23 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं और आम तौर पर 23वीं जोड़ी में माँ से प्राप्त X गुणसूत्र होता है और पिता से प्राप्त X या Y गुणसूत्र होता है। अर्थात् हम सबमें 23वीं जोड़ी में दो गुणसूत्र होते हैं (XX या XY), बशर्ते कि प्रक्रिया में कोई गड़बड़ी न हुई हो। XX जोड़ी मादा की द्योतक होती है जबकि XY नर की।
लिंग निर्धारण की इस प्रणाली को XY प्रणाली कहते हैं, और यह हमारी सबसे जानी-पहचानी प्रणाली है। इस प्रणाली का उपयोग अधिकांश स्तनधारियों में होता है। स्तनधारियों के अलावा, यह व्यवस्था गुबरैलों और कुछ कीटों व पौधों में भी पाई जाती है। तो इस प्रणाली को और समझने से पहले इस प्रणाली की पृष्ठभूमि को थोड़ा जान लेते हैं।
तेइस जोड़ी गुणसूत्र मनुष्य की समस्त कोशिकाओं में पाए जाते हैं और इन्हीं पर जीन्स होते हैं। लेकिन अण्डाणु और शुक्राणु में प्रत्येक जोड़ी का एक गुणसूत्र ही पहुँचता है। अर्थात् प्रत्येक शुक्राणु और अण्डाणु में तेइस इकहरे गुणसूत्र होते हैं। अण्डाणु में 23वाँ गुणसूत्र सदैव X होता है जबकि शुक्राणु में यह X या Y में से कोई एक होता है। निषेचन के दौरान जब अण्डाणु और शुक्राणु की मुलाकात होती है तो माता-पिता दोनों 22-22 गैर-लिंग गुणसूत्र का योगदान देते हैं और एक-एक लिंग-गुणसूत्र का - माता से हमेशा X तथा पिता से X या Y मिल सकता है। स्पष्ट है कि पिता का योगदान ही सन्तान का लिंग तय करता है।
निषेचन की क्रिया के बाद भ्रूण विकसित होने लगता है। शुरुआत में भ्रूण के लैंगिक अंग (प्रजनन अंग) लिंग-निरपेक्ष जननग्रन्थि के रूप में होते हैं। यह उस स्थान के नज़दीक एक छोटी-सी मोटी लकीर के रूप में होती है जहाँ आगे चलकर उदर बनने वाला है। अर्थात् स्व-निर्धारित विकल्प (यानी जब कोई अन्य क्रिया न की जाए) वास्तव में सदा मादा होती है। तो फिर नर लिंग के निर्माण की बात कहाँ से आती है? यह होता है Y गुणसूत्र पर उपस्थित एक जीन SRY के कारण। SRY दरअसल एक ट्रांस्क्रिप्शन कारक है। इसका मतलब यह होता है कि यह एक ऐसा आनुवंशिक तत्व है जो अन्य जीन्स की क्रिया यानी अभिव्यक्ति को चालू करवा सकता है। तो, किसी विकसित होते जीव में ‘नर’ जीन का सक्रिय होना SRY नामक मास्टर स्विच पर निर्भर करता है। अर्थात् इकलौते Y गुणसूत्र की उपस्थिति नर-निर्माण का रास्ता खोल देती है। यदि Y गुणसूत्र (यानी SRY जीन) न हो तो कोशिका टेस्टोस्टेरोन की बजाय एस्ट्रोजन का स्राव करती है और XX सन्तान में मादा प्रजनन अंग बनते हैं।
इस तरह के विभेदन का एक उदाहरण क्लाइनफेल्टर सिंड्रोम में देखा जा सकता है। इसमें व्यक्ति में दो X तथा एक Y गुणसूत्र पाया जाता है लेकिन इनमें वृषण का विकास होता है और ये सामान्यत: ‘नर’ नज़र आते हैं। दूसरी ओर, स्वायर सिंड्रोम (जहाँ SRY जीन में उत्परिवर्तन हो जाता है) के मरीज़ बाहर से तो मादा नज़र आते हैं किन्तु उनमें अण्डाशय नहीं बनते और वे वंध्य होते हैं।
पहले कई जीव वैज्ञानिक लिंग के बारे में स्तनधारियों के जाने-माने उदाहरणों के आधार पर सोचने के आदी थे। वे यह मानकर चलते थे कि लिंग-गुणसूत्रों के माध्यम से लिंग निर्धारण ही सामान्य तरीका है। उन्हें लगता था कि अन्य सारे वैकल्पिक तरीके अजूबे और असामान्य हैं। लेकिन अब प्रकृति में बेहिसाब विविधता के मद्देनज़र हम जानते हैं कि लिंग निर्धारण की कई व्यवस्थाएँ अस्तित्व में हैं।
2. ZW लिंग निर्धारण
यह व्यवस्था पक्षियों, तितलियों, कुछ सरिसृपों में पाई जाती है और XY के विपरीत ढंग से काम करती है: मादा पक्षी ‘XY’ होंगे और नर पक्षी ‘XX’। चूँकि इस व्यवस्था के लिए भी X और Y अक्षरों का उपयोग करना भ्रामक हो सकता है, इसलिए इन गुणसूत्रों को Z और W कहते हैं। इसके अनुसार नर ‘ZZ’ होते हैं और मादा ‘ZW’। यहाँ माता का योगदान सन्तान का लिंग तय करता है। जिस तरह से स्तनधारियों में Y गुणसूत्र पर नर-निर्धारक SRY पाया जाता है, उसी तरह से पक्षियों में W गुणसूत्र पर दो मास्टर स्विच FET1 और ASW पाए जाते हैं जो सन्तान में मादा अंगों के विकास के लिए ज़रूरी होते हैं। इनकी अनुपस्थिति में सन्तान हमेशा नर बनती है।
3. XO लिंग निर्धारण
यह व्यवस्था कई कीटों में देखी गई है। इस प्रणाली में भी मादा तो ‘XX’ ही होती है किन्तु नर में Y गुणसूत्र नहीं होता, बल्कि उनमें सिर्फ एक X गुणसूत्र ही पाया जाता है। अर्थात् वे ‘XO’ होते हैं। उदाहरण के लिए, टिड्डों में कोई Y गुणसूत्र नहीं होता। यहाँ ‘O’ का मतलब है कोई गुणसूत्र नहीं पाया जाना। परिणाम यह होता है कि नर के शुक्राणु में या तो X गुणसूत्र होगा या कोई गुणसूत्र नहीं होगा। दोनों तरह के शुक्राणु बनने की सम्भाविता 50-50 प्रतिशत होती है। इस व्यवस्था में भी, XY प्रणाली के समान, सन्तान के लिंग का निर्धारण नर के योगदान से होता है।
अन्य तरीके
1. अगुणित-द्विगुणित व्यवस्था
अगुणित-द्विगुणित प्रणाली का एक प्रमुख उदाहरण मधुमक्खियों का है। मधुमक्खियों में अनिषेचित अण्डे (जिनमें गुणसूत्रों का एक सेट ही होता है, और इन्हें अगुणित या अर्धसूत्री कहा जाता है) विकसित होकर नर बनते हैं जबकि निषेचित अण्डे (जिनमें गुणसूत्रों के दो-दो सेट होते हैं, यानी द्विगुणित) मादा के रूप में विकसित होते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि यह प्रणाली XO प्रणाली से भिन्न है, जिसमें सन्तान को गैर-लिंग गुणसूत्र के दो सेट मिलते हैं चाहे वह किसी भी लिंग की हो। किन्तु अगुणित-द्विगुणित प्रणाली में नर को लिंग और गैर-लिंग, दोनों तरह के गुणसूत्रों की एक प्रतिलिपि ही मिलती है।
मधुमक्खियों के रोचक संसार के बारे में थोड़ी और चर्चा करते हैं और देखते हैं कि छत्ते में किसी मधुमक्खी की नियति - वह मजदूर बनेगी या रानी - जेनेटिक रूप से कैसे निर्धारित होती है।
मधुमक्खियों की बस्तियाँ एक इकलौती उर्वर रानी के इर्द-गिर्द गठित होती हैं और नर ड्रोन्स तथा मादा मजदूरों की पूरी फौज इसकी सेवा में लगी रहती है। रानी बड़ी संख्या में अण्डे देती है। इनमें से कुछ निषेचित होते हैं। रानी तय करती है कि किसी अण्डे का निषेचन होगा या नहीं।
मादा मधुमक्खियाँ (रानी और मजदूर) निषेचित अण्डे से बनती हैं। प्रजननक्षम नर मधुमक्खियाँ हमेशा अनिषेचित अण्डों से बनती हैं, अर्थात् इस प्रणाली में नर का कोई पिता नहीं होता और वे नर सन्तानें पैदा भी नहीं कर सकते हैं।
इसके अलावा, यदि रानी मात्र एक नर के साथ समागम करे, तो उसकी सारी मादा सन्तानों में 75 प्रतिशत जीन्स एक जैसे होते हैं क्योंकि उन सबको पिता के जीन्स का आधा नहीं बल्कि पूरा सेट मिलता है। (जबकि मनुष्यों में भाई-बहनों के बीच 50 प्रतिशत जीन्स ही एक समान होते हैं)।
तो हमने देखा कि यह एक निहायत रोचक मामला है जहाँ जेनेटिक ढंग से निर्धारित लिंग उस मधुमक्खी की समुदाय में भूमिका का भी निर्धारण करता है।
2. पर्यावरण आश्रित लिंग निर्धारण
और अन्त में लिंग निर्धारण की उन प्रणालियों की चर्चा करते हैं जो गुणसूत्रों पर निर्भर नहीं हैं। मगरमच्छों, घड़ियालों, अधिकांश कछुओं और कुछ मछलियों में अण्डों की परवरिश जिस वातावरण में होती है, कुछ संवेदनशील अवधियों में उसका तापमान सन्तानों के लिंग का निर्धारण करता है। अधिक तापमान पर अण्डों से निकलने वाली सन्तानें मादा होती हैं। दूसरी ओर, यदि तापमान कम रहे तो भ्रूण का विकास धीमी गति से होता है और वह नर बन जाता है।
वैसे यह नियम सभी प्रजातियों पर लागू नहीं होता और कभी-कभी उल्टा नियम भी चलता है। या यह भी हो सकता है कि इन्तहाई तापमान (चाहे कम या अधिक) एक लिंग को जन्म दे जबकि मध्यम तापमान दूसरे लिंग को।
कुछ घोंघे और मछलियाँ तो अपने जीवनकाल के बीच में पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार लिंग परिवर्तन भी कर सकते हैं। इस प्रक्रिया को लिंग-पलट कहते हैं। लिंग निर्धारण करने के मामले में कई अन्य पर्यावरणीय उद्दीपन भी पहचाने गए हैं। जैसे एम्फीपोडा कुल के समुद्री जीवों में और बार्नेकल्स में प्रकाश-अवधि के अनुसार लिंग तय होता है जबकि मूंगा चट्टानों में रहने वाली कुछ मछलियों तथा लिम्पेट्स में सामाजिक कारक लिंग का निर्धारण करते हैं। अलबत्ता, यह स्पष्ट नहीं है कि ये कारक लिंग के विकास को कैसे प्रभावित करते हैं।
3. कुछ और
लिंग निर्धारण की कुछ अन्य विधियों पर भी शोध जारी है। जैसे बहु-जीन आधारित लिंग निर्धारण (PSD)। इसमें लिंग निर्धारण का कोई एक मास्टर नियामक नहीं होता बल्कि कई सारे जीन्स और गुणसूत्र मिलकर सन्तान के लिंग का निर्धारण करते हैं। उदाहरण के लिए, कैंटालूप फल में चार लिंग बनते हैं। ज़ेब्रा मछली भी PSD के सहारे रहती है।
अधिकांश पौधों और गैस्ट्रोपोड्स (घोंघे वगैरह) तथा केंचुओं में एक ही जीव में नर व मादा, दोनों प्रजनन अंग पाए जाते हैं। इन्हें उभयलिंगी कहा जाता है। ये एक-दूसरे के साथ समागम कर सकते हैं और लैंगिक प्रजनन में जो जेनेटिक सम्मिश्रण होता है, उससे लाभ ले सकते हैं। अलबत्ता, यदि समागम के लिए साथी उपलब्ध न हो तो ये स्व-निषेचन भी कर सकते हैं। इस सन्दर्भ में क्लाउन मछली क्रमिक उभयलिंगी होती है। ये पैदा तो नर के रूप में होती हैं किन्तु आगे चलकर मादा में परिवर्तित हो जाती हैं।
जैव-विकास से मिले कुछ संकेत
हमने लिंग निर्धारण की विभिन्न व्यवस्थाएँ देखीं। एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि जब लैंगिक प्रजनन एक बार अस्तित्व में आ गया तो यह इतनी अलग-अलग तरह से क्यों आगे बढ़ा और यह हमें किस तरह प्रभावित करता है। जवाब अभी तक हमें मुँह चिढ़ा रहे हैं।
कुछ अध्ययन बताते हैं कि ‘XY’ और ‘ZW’ एक साझा पूर्वज के ज़रिए आपस में जुड़े हुए हैं। प्लेटीपस का उदाहरण इस बात का समर्थन करता है। प्लेटीपस में पूरे 10 लिंग-गुणसूत्र होते हैं (इनमें नर XY नहीं बल्कि XY XY XY XY XY होते हैं)। यह काफी हद तक पक्षियों के Z गुणसूत्र के समान होता है किन्तु तकनीकी रूप से ‘XY’ प्रणाली के नियमों के अन्तर्गत काम करता है। और मज़ेदार बात यह है कि प्लेटीपस में SRY का अभाव होता है। लिहाज़ा, यह कह सकते हैं कि प्लेटीपस इन दो प्रणालियों के बीच की कड़ी है।
दूसरे किस्म के प्रमाण Y गुणसूत्र के विश्लेषण से मिले हैं। यह सुझाव दिया गया है कि Y गुणसूत्र का विकास X गुणसूत्र से हुआ है और विभेदन की किसी घटना ने इन्हें अलग-अलग भूमिकाएँ प्रदान कर दीं। Y गुणसूत्र दरअसल X गुणसूत्र से काफी छोटा होता है और ऐसा लगता है कि इसने X गुणसूत्र के सारे अनावश्यक जीन्स को तिलांजलि दे दी है। एक परिकल्पना यह भी है कि ‘XO’ लिंग निर्धारण प्रणाली का विकास Y गुणसूत्र को पूरी तरह तिलांजलि देकर हुआ है, जिसे मूलत: उसकी अकार्यक्षमता की वजह से छोड़ दिया गया।
सारांश
जीव विज्ञान रायता फैलाने वाले अपवादों और अतिरिक्त नियमों का विज्ञान है। जैसा कि ऊपर की चर्चा से ज़ाहिर है, मात्र X और Y लिंग-गुणसूत्रों की उपस्थिति पूरी तरह किसी जीव के लिंग को परिभाषित नहीं करती। कम-से-कम टिड्डियों और चींटियों में तो यह निश्चित तौर पर गलत है और पक्षियों में एकदम उल्टी व्यवस्था है। कुछ जीव ऐसे भी हैं जिनमें X या Y गुणसूत्र होते हैं लेकिन उनके लिंग का निर्धारण न तो शुक्राणु करते हैं, न अण्डाणु बल्कि भ्रूण का पर्यावरण करता है। जैव-विकास ने सजीवों को यह तय करने के लिए कई तरीके दिए हैं कि कोई जीव नर होगा या मादा। और हर प्रणाली प्रजाति के लिए विशिष्ट ढंग से लाभकारी होती है। तो, ‘नर’ और ‘मादा’ की अवधारणा उतनी सरल नहीं है जितनी हमने कभी सोची थी और इस विभाजन के बारे में नए सिरे से विचार करने का वक्त आ गया है।
कोकिल चौधरी: संदर्भ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।