--अरविंद सरदाना

कुछ ही दिन पहले लोगों में यस बैंक से पैसे निकालने को लेकर भगदड़ मच गई थी। यह तब हुआ था जब रिज़र्व बैंक ने घोषित कर दिया था कि यह बैंक संकट में है और इसका अधिग्रहण कर लिया जाएगा। लोग पैसा निकालने को दौड़ पड़े और इसे ही ‘बैंक पर टूट पड़ना’ कहा जाता है। हर कोई पैसा निकालने को भागता है। अलबत्ता, लोगों को बैंक के दरवाज़ों पर इस सूचना का सामना करना पड़ा कि वे सिर्फ 50,000 रुपए निकाल सकते हैं, उससे अधिक नहीं। इस बात को भूल जाइए कि वह पैसा आपका ही है और बैंक ने वायदा किया था कि मांग करने पर वह आपको आपका पैसा दे देगा। रिज़र्व बैंक ने चेक या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से बैंक के सारे लेन-देन पर रोक लगा दी। आप अपने खाते से न तो पैसा दे सकते हैं और न ही खाते में पैसा प्राप्त कर सकते हैं। यदि लोगों को छूट मिलती तो सम्भवत: सारा पैसा निकाल लिया जाता लेकिन सच्चाई यह है कि बैंक के पास इतना पैसा ही नहीं होता। वह अपने सारे जमाकर्ताओं का पैसा लौटाए बगैर ही धराशायी हो जाता। इसीलिए रिज़र्व बैंक ने लोगों को रोक दिया।
यदि बैंक के पास अपने सारे खाताधारकों को लौटाने के लिए पैसा नहीं होता, तो वह काम कैसे करता है? वह लोगों को यह वायदा कैसे करता है कि वह उनकी मांग पर या जब वे अपना पैसा वापिस लेने को दौड़ पड़ेंगे तो वह भुगतान कर देगा, जबकि उसके पास भुगतान के लिए पैसा ही नहीं होता?


भरोसा

बैंक पर टूट पड़ने की घटना इस बात को समझने का अच्छा अवसर है कि बैंक काम कैसे करता है। सारे बैंक भरोसे पर काम करते हैं। भरोसा वैसे तो एक अमूर्त चीज़ है लेकिन उसी तरह हमारे आसपास मौजूद होता है जैसे हवा। लोगों को भरोसा होना चाहिए कि जो पैसा वे जमा करते हैं, वह सुरक्षित है और सरकार रिज़र्व बैंक के माध्यम से पूरे तंत्र की निगरानी कर रही है। रिज़र्व बैंक की भूमिका को इस रूप में समझा जा सकता है कि वह एक चौकीदार है जो सारे जमाकर्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित करता है और एक रेफरी भी है जो इस बात का ख्याल रखता है कि सारे बैंक नियमों का पालन करें।
सब लोग पैसा निकालने को नहीं दौड़ते क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका पैसा सुरक्षित है। ऐसी स्थिति में औसत का नियम काम करता है। किसी भी कार्य दिवस पर औसतन कुछ लोगों को ही नगदी की ज़रूरत होती है और यदि बैंक अपने पास थोड़ी नगदी रखें, तो वे माँगे जाने पर भुगतान का अपना वायदा निभा सकते हैं। बैंक को अनुभव से अन्दाज़ लग जाता है कि प्रतिदिन कितनी नगदी की ज़रूरत होगी। देश का केन्द्रीय बैंक होने के नाते रिज़र्व बैंक यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक बैंक के पास पर्याप्त नगदी रहे। इसके लिए वह सबके लिए कुछ नियम निर्धारित करता है। रिज़र्व बैंक देश की सारी बैंक शाखाओं के लिए मुद्रा - सिक्के और नोट - के मुद्रण व प्रवाह की भी व्यवस्था करता है। उसे यह सुनिश्चित करना होता है कि देश में पर्याप्त मुद्रा हो और किसी बैंक को अभाव का सामना न करना पड़े। जब यह व्यवस्था काम करती है, तो आप हड़बड़ी नहीं करते और आराम-से बैंक या एटीएम से ज़रूरत के मुताबिक पैसा निकालते हैं। बैंक के पास पर्याप्त नगदी होती है, जो वास्तव में उसके पास जमा राशि का एक छोटा हिस्सा ही होता है। लोगों को भरोसा रहता है कि उनका पैसा सुरक्षित है क्योंकि माँग पर नगद मिलता रहता है। यदि भरोसा टूट जाए और हर कोई एक ही समय पर पैसा निकालने को दौड़ पड़े, तो बंटाधार हो जाता है। बैंक का धराशायी होना तय है क्योंकि उसके पास कभी इतना पैसा नहीं होगा कि वह सारे जमाकर्ताओं को भुगतान कर सके।

बैंक-जमा: धन का एक रूप
बैंक विशेष प्राणि हैं। वे किसी सेफ डिपॉज़िट लॉकर की तरह काम नहीं करते जिनके अन्दर आपका पैसा रखा रहे और जब चाहे निकाला जा सके। मान लीजिए आपने बैंक में 1,00,000 रुपए नगद जमा किए हैं। बैंक क्या करता है? वह इस पैसे के लिए आपके नाम का एक खाता खोल देता है और इसका हिसाब रखने के लिए आपको एक पासबुक दे देता है और ज़रूरत के हिसाब से पैसा निकालने के लिए एक एटीएम कार्ड दे देता है। आपका पैसा अब महज़ एक बैंक खाता संख्या है। बैंकों ने माँग-जमा (demand deposits) के रूप में एक नए किस्म के धन की रचना की है। ये उनके बही खाते में संख्याएँ होती हैं जो यह दर्शाती हैं कि बैंक आपको 1 लाख का देनदार है। जब आपको पैसे की ज़रूरत होती है, आप इस जमा के एवज में पैसा निकालते हैं। आपकी जमा संख्या बदलती रहती है। जैसे कि ऊपर बताया गया था, औसतन हर दिन कुछेक लोग ही पैसे की माँग करेंगे। लिहाज़ा, कुल जमा का एक छोटा हिस्सा ही नगदी के रूप में रखा जाए, तो माँग करने वाले किसी भी व्यक्ति को भुगतान का वायदा निभाना सम्भव होगा।
बैंकों के नियमों में एक नियम ऐसा है:
‘भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 के अनुच्छेद 42 के अनुसार प्रत्येक अनुसूचित व्यापारिक बैंक को रिज़र्व बैंक के पास नगद आरक्षित अनुपात (CRR) के रूप में एक न्यूनतम नगदी बेलेंस रखना होगा।

यह राशि रिज़र्व बैंक द्वारा समय-समय पर निर्धारित की जाती है।’

नए किस्म के धन के रूप में ये बैंक-जमा सबके लिए अत्यन्त सुविधाजनक हैं। लोग इन खातों के ज़रिए धन की प्राप्ति और भुगतान कर सकते हैं। यह चेक के माध्यम से या इलेक्ट्रॉनिक हस्तान्तरण के ज़रिए किया जा सकता है। उन्हें नगदी इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं होती। बैंकिंग प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि एक बैंक खाते से दूसरे को धन का हस्तान्तरण सुरक्षित व निश्चित ढंग से हो। बैंक इन चीज़ों का रिकॉर्ड रखते हैं और आपस में हिसाब-किताब कर लेते हैं। इस सारे काम की निगरानी रिज़र्व बैंक करता है। बैंक-जमा रूपी धन अर्थ व्यवस्था में धन का प्रमुख रूप है। इनके बगैर करोड़ों लेन-देन सम्भव नहीं होंगे।
बैंक सचमुच खास हैं। उन्होंने एक नए किस्म का धन निर्मित किया है जिसके रिकॉर्ड हमें पासबुक में नज़र आते हैं। यहाँ कोई भी भौतिक वस्तु नहीं है। ये सिर्फ संख्याएँ हैं, जिनका हिसाब-किताब ईमानदारी से रखे जाने की अपेक्षा होती है। हम सबको भरोसा है कि भुगतान और प्राप्तियों का सही रिकॉर्ड रखा जाएगा। इसीलिए बैंकों के पास हस्ताक्षर, पासवर्ड, खाता संख्या वगैरह की जाँच की विस्तृत व्यवस्थाएँ हैं ताकि हमें यकीन हो सके कि पूरा तंत्र विश्वसनीय है और हमारा पैसा सुरक्षित है। रिज़र्व बैंक को नियम निर्धारित करने होते हैं और प्रणाली की निगरानी करनी होती है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि लोग अपने जमा-खातों का उपयोग आसानी-से नगदी के रूप में कर सकें।

इसके साथ ही करोड़ों अन्य लेन-देन के लिए मुद्रा (सिक्कों और नोटों) की ज़रूरत होती है। देश की आबादी और शहरी व ग्रामीण इलाकों में एक विशाल अनौपचारिक क्षेत्र, जो लेन-देन के लिए नगदी का उपयोग करता है, के चलते भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मुद्रा-उत्पादक है। दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में रहने वालों के लिए बहुत कम बैंक शाखाएँ हैं।
रिज़र्व बैंक को नए नोटों और सिक्कों के मुद्रण की व्यवस्था करनी होती है, और यह सुनिश्चित करना होता है कि ये ज़रूरत के अनुसार बैंक शाखाओं तक पहुँच जाएँ, कोई अभाव न रहे। उसे यह भी देखना होता है कि फटे-पुराने नोटों की प्रतिपूर्ति हो तथा नकली नोट चलन में न रहें। यह सब उसकी विस्तृत मुद्रा प्रबन्धन प्रणाली का हिस्सा है। नेपथ्य में चल रहा यह प्रबन्धन ही नगदी में हमारे अनसोचे विश्वास को बनाए रखता है।

बैंक धन का निर्माण करते हैं
लोगों से जो पैसा बैंक जमा करता है, वह उसका करता क्या है? वह उसे ज़रूरतमन्द लोगों को उधार दे सकता है और ब्याज कमा सकता है। कर्ज़ पर ब्याज के रूप में इस कमाई के दम पर ही बैंक अपना कारोबार कर पाता है और जमाकर्ताओं को भी थोड़ा ब्याज दे पाता है।
एक तंत्र के रूप में बैंक के पास एक और शक्ति होती है जो अनोखी है। वह धन का निर्माण कर सकता है, लगभग शून्य में से। एक सरलीकृत चित्र देखने के लिए पहले के उदाहरण को थोड़ा विस्तार देते हैं। आपने बैंक में 1 लाख रुपए जमा किए हैं और बैंक ने आपके नाम एक खाता बना दिया है। आप इस खाते का उपयोग चेक अथवा इलेक्ट्रॉनिक तरीके से धन आहरित करने के लिए या लेन-देन के लिए कर सकते हैं। मान लीजिए एक अन्य व्यक्ति बैंक में आती है जिसके पास वस्त्रों की एक नई दुकान के लिए माल खरीदने का एक व्यापारिक प्रस्ताव है। उसे 5 लाख रुपए के कर्ज़ की ज़रूरत है। बैंक को यह व्यापार योजना ठीक-ठाक लगती है कि नई दुकान चल जाएगी और पैसा कमाएगी। बैंक चाहेगा कि उसे कर्ज़ दे और थोड़ा ब्याज कमाए। वह क्या करेगा? उसके पास नगदी तो 1 लाख ही है। वह धन का निर्माण करेगा। वह कर्ज़दार के नाम पर एक नया खाता खोलता है और उसके खाते में 5 लाख जमा के रूप में दर्शाता है। यह पैसा बैंक ने निर्मित करके उसे उधार दिया है। वह इसका उपयोग ठीक वैसे ही कर सकती है, जैसे आप अपने जमा-खाते का करते हैं। वह अपनी दुकान के लिए माल खरीदती है और इस खाते के ज़रिए भुगतान करती है। कभी-कभार वह विविध खर्चों के लिए भी पैसा निकालती है। जब दुकान चलने लगती है, तो वह अपनी कमाई को इस खाते में जमा करती है। महीने के अन्त में बैंक उससे 5 लाख रुपए पर ब्याज वसूल करता है और इसका भुगतान इसी खाते से किया जाता है। एक निश्चित अवधि के बाद वह कर्ज़ की पूरी राशि अदा कर देती है।
एक बार फिर, सारा काम भरोसे पर होता है। बैंक भरोसा करता है कि कर्ज़दार नई दुकान को चलाने का प्रयास करेगी और खुद के लिए पैसा कमाएगी और ब्याज समेत कर्ज़ अदा कर देगी। यह ज़रूर है कि बैंक उसके मकान के कागज़ात जैसी कोई जमानत अपने पास रख लेता है, खुदा न ख्वास्ता कुछ गड़बड़ हो जाए तो। लेकिन वह मूलत: इस भरोसे पर चलता है कि कर्ज़ की व्यवस्था दोनों के लिए लाभदायक होगी। यही अमूर्त भरोसा है, जिसे बनाए रखा जाए तो तंत्र काम कर पाता है।
क्या इस बात की कोई सीमा है कि बैंक नए जमा खाते खोल-खोलकर कितना धन उधार दे सकता है? इस बात को एक सरलीकृत उदाहरण से समझते हैं। यह कर्ज़ देने के बाद बैंक की स्थिति निम्नानुसार है:    

 वास्तव में, बैंक के पास अपनी कुल जमा राशि का 15-20 प्रतिशत अपने पास नगदी रूप में या रिज़र्व बैंक के पास नगदी रूप में या रिज़र्व बैंक द्वारा अनुमोदित सिक्यूरिटीज़ के रूप में होना चाहिए। यह सब यह सुनिश्चित करने के लिए है कि बैंकिग व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए नगदी तत्काल उपलब्ध रहे और भरोसा बरकरार रहे। ये नियम रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। उपरोक्त उदाहरण में आधारभूत नगदी एक लाख होने पर यही सर्वाधिक राशि है जो वह कर्ज़ के रूप में दे सकता है।
किसी बैंक के कामकाज के लिए ज़रूरी है कि दोनों पक्षों का भरोसा बना रहे। जमाकर्ताओं का भरोसा रहना चाहिए कि उनका पैसा सुरक्षित है और माँगने पर नगदी के रूप में मिल जाएगा और इस खाते के माध्यम से वे भुगतान और प्राप्तियाँ कर सकते हैं।
उधार लेने वालों के मामले में बैंक को भरोसा रखना होगा कि वे अपना कर्ज़ ब्याज सहित अदा कर देंगे। यह बैंक के लिए कमाई का साधन है, जिसके बल पर बैंक चलता है।
यह रिज़र्व बैंक की ज़िम्मेदारी है कि नियम निर्धारित करे और साथ ही निगरानी करे, अधीक्षण करे, निर्देश दे और ज़रूरी होने पर कार्रवाई करे। इसी वजह से इसे देश का केन्द्रीय बैंक कहा जाता है। यह सारे बैंकों के ऊपर एक छतरी जैसा है जो उनकी रक्षा भी करता है और मार्गदर्शन भी। जब यह ठीक से काम करता है तो तंत्र में लोगों का भरोसा बना रहता है। जब कोई बैंक गड़बड़ी करता है या रिज़र्व बैंक प्रभावशाली नहीं होता, तब इस अमूर्त भरोसे में दरारें पड़ने लगती हैं।

अविश्वास छूत की तरह होता है
एक ओर, बैंक के पास माँग-जमा के रूप में धन के सृजन का और लोगों को नगदी के बगैर लेन-देन करने का एक नया तरीका उपलब्ध कराने की ताकत है, तो दूसरी तरफ वह छूत का शिकार भी हो सकता है। यदि लोग किसी बैंक पर अविश्वास करते हैं, तो भरोसा टूटने की यह बात तंत्र के अन्य बैंकों में भी फैलने की क्षमता रखती है। इस मामले में अफवाहें बहुत शक्तिशाली होती हैं। चाहे वे सही न हों, लेकिन उनमें बैंकों को ज़मींदोज़ करने की ताकत होती है। यस बैंक संकट के बाद फैले जज़्बातों और सन्देशों पर गौर कीजिए।
“व्हॉट्सऐप पर निराधार व तथ्यात्मक रूप से गलत सन्देश प्रसारित किए जा रहे हैं। हम आपको यकीन दिलाते हैं कि कोटक महिन्द्रा बैंक वित्तीय रूप से सुदृढ़ है।”
“महाराष्ट्र सरकार ने मामले को यह घोषणा करके बिगाड़ दिया है कि राज्य सरकार के सारे खातों को निजी बैंकों से हटाकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में लाया जाएगा।”
“करूर वैश्य बैंक (KVB) अपने 104 साल के पूरे इतिहास में लगातार लाभदायक रहा है। KVB बुनियादी रूप से एक सशक्त संस्थान है।”
एक निजी बैंक RBL ने कहा था, “संस्था की वित्तीय हालत और अस्थिरता की अफवाहें, खास तौर से सोशल मीडिया पर, अनुपयुक्त और स्वार्थ से प्रेरित हैं तथा तथ्यों पर आधारित नहीं हैं।”

(टाइम्स ऑफ इंडिया, मार्च 2020 की एक रिपोर्ट से)
ऐसी अफवाहें फैलती क्यों हैं? इसका कारण यह है कि लोगों को पता नहीं होता कि किस पर भरोसा करें - बैंक पर या उस फैलते सन्देश पर? सन्देश सही हुआ तो? मैं क्यों जोखिम मोल लूँ? लोगों को पता नहीं था कि एक दिन पंजाब एंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक डूब जाएगा और कई लोग अपना पैसा गँवा देंगे। अब वे सभी सोच रहे होंगे कि हमें भी अपना पैसा निकाल लेना चाहिए था। डूबने से पहले वह किसी भी अन्य बैंक जैसा ही था। दरअसल, उसकी सेवाएँ बढ़िया और शिष्टाचार पूर्ण थीं। लोग सोच रहे हैं कि हमने अपना पैसा रिज़र्व बैंक की घटिया निगरानी की वजह से गँवाया है।
भरोसा टूट गया है। इस सन्दर्भ में जमाकर्ताओं के विरोध प्रदर्शनों की तस्वीरें देखिए। कुछ तो जान से हाथ धो बैठे। सरकार जिस बात को नहीं समझती है, वह यह है कि एक अमूर्त चीज़ के रूप में भरोसा बहुत तेज़ी-से काफूर हो जाता है और अविश्वास छूत की तरह फैल सकता है। एक कहावत है: “भरोसा दूध की तरह होता है, फट गया तो बहाल नहीं किया जा सकता।”

यह याद रखना बेहतर होगा कि दुनिया भर में केन्द्रीय बैंकों का गठन बैंकों का निरीक्षण करने और गड़बड़ियों की रोकथाम के लिए किया गया है। 1907 की भगदड़ के दौरान यू.एस.ए. में कुछ बैंक ताश के पत्तों के किलों की तरह ढह रहे थे। कुछ अन्य बैंकर्स ने एक समूह बनाया और पैसा उधार देने के लिए आगे आए। तब बैंक अचानक धन आहरण की माँग के सामने टिक पाए। जब लोगों ने देखा कि आहरण का सम्मान किया जा रहा है, तो भगदड़ रुक गई। इस अनुभव ने केन्द्रीय बैंक की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। 1913 में यू.एस.ए. में फेडरल बैंक तथा 1935 में भारत में रिज़र्व बैंक की स्थापना हुई थी।
किसी बैंक की महत्वपूर्ण जानकारी तक पहुँच सिर्फ रिज़र्व बैंक को होती है और उसकी ज़िम्मेदारी है कि वह बैंक की ऋण सम्बन्धी गतिविधियों पर निगाह रखे। कर्ज़ ठीक-ठाक सीमा में रहना चाहिए ताकि जमाकर्ता अपने पैसे को सुरक्षित समझें। जब कर्ज़दार कर्ज़ का भुगतान करते हैं, तो बैंक की कमाई होती है और वह सामान्य ढंग से काम करता है। समस्या तब शुरू होती है जब लिए गए कर्ज़ लौटाए नहीं जाते।

कर्ज़ डूबते क्यों हैं?
बैंकों की दृष्टि से कर्ज़ कई कारणों से डूब सकते हैं। हो सकता है यह ऐसी परिस्थितियों के कारण हुआ हो जो कर्ज़दार उद्यमी के नियंत्रण के बाहर हों। लोग अपने कारोबार को सफल बनाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं लेकिन बाज़ार के जोखिम होते हैं जिनकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
इसके अलावा, यह भी हो सकता है कि बैंक लालची हो जाए और ज़्यादा ब्याज कमाने के चक्कर में ऐसी परियोजनाओं का वित्तपोषण करने लगे जिनमें ज़्यादा जोखिम है। दूसरे शब्दों में, वे कर्ज़ देने के मामले में विवेकपूर्ण नहीं होते, जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बैंक अधिकारी उनको नियंत्रित करने वाले राजनैतिक या प्रबन्धन से जुड़े अधिकारियों के दबाव में होते हैं कि उन्हें कतिपय समूहों को तरजीह देना है। ये परियोजनाएँ जोखिमपूर्ण होती हैं और अक्सर ऐसे लोग इरादतन चूककर्ता (डिफॉल्टर) होते हैं। उनका कर्ज़ चुकाने का इरादा ही नहीं होता।
फिर, सीधे-सीधे धोखाधड़ी भी होती है, अधिकांशत: बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से। उदाहरण के लिए, पीएमसी मामले में एक रिपोर्ट कहती है, “इस मामले में दर्ज एक एफआईआर के मुताबिक HDIL के प्रवर्तकों ने बैंक प्रबन्धन के साथ मिलीभगत की ताकि बैंक की भाण्डुप शाखा से कर्ज़ लिए जा सकें। बैंक अधिकारियों ने भुगतान न होने के बावजूद इन कर्ज़ों को गैर-निष्पादित परिसम्पत्तियों (non-performing assets - NPA) के रूप में वर्गीकृत नहीं किया। रिपोर्ट का अनुमान है कि समूह से बैंक का कुल कारोबार लगभग 6500 करोड़ का है यानी बैंक के सारे अग्रिमों का लगभग 73 प्रतिशत - और इस सबका ब्याज नहीं चुकाया जा रहा है।” (बिज़नेस स्टैण्डर्ड, व्हाट इज़ पीएमसी बैंक क्राइसिस, फरवरी 18, 2020)

बैंक कर्ज़ों पर रिज़र्व बैंक की निगरानी कितनी सख्त है?
यह काफी समय से पता रहा है कि देश ऐसे कर्ज़ की समस्या से जूझ रहा है जो डूबने की प्रक्रिया में हैं। बैंक की शब्दावली में इन्हें गैर-निष्पादित परिसम्पत्तियाँ यानी NPA कहा जाता है। बैंकों को यह जानकारी रिज़र्व बैंक को बतानी होती है। रिज़र्व बैंक को उनके बही-खातों की जाँच करने, निर्देश देने और यहाँ तक कि बैंक का अधिग्रहण करने तक का अधिकार है।
वर्तमान परिदृश्य में रिज़र्व बैंक अपनी भूमिका में कमज़ोर है और लगता है कि उसे संकट का पता आखरी चरण में चलता है। उदाहरण के लिए, पीएमसी बैंक के मामले में धोखाधड़ी हुई थी, और अधिकारी घटनाक्रम को रिज़र्व बैंक से छिपाने में सफल रहे थे, जबकि गड़बड़ी का सन्देह था। ऑडिटर्स से अपेक्षा होती है कि वे स्वतंत्र होंगे, लेकिन लगता है कि उन्होंने प्रबन्धन का पक्ष लिया। इसी प्रकार से यस बैंक के मामले में एक रिपोर्ट कहती है, “पिछले तीन वर्षों से यस बैंक गलत कारणों से खबरों में रहा था - लगातार दो वर्षों (2016 और 2017) तक हिसाब-किताब की गलत जानकारी देना, बोर्ड सदस्यों और निदेशकों के इस्तीफों का सिलसिला, प्रवर्तकों के बीच आन्तरिक कलह, बढ़ते खराब कर्ज़, जानकारियाँ छिपाना, अपर्याप्त पूंजी, वित्त जुटाने में असमर्थता, कमज़ोर अनुपालन और परिसम्पत्तियों का गलत वर्गीकरण। इस पूरे दौरान, जानकारी होने के बावजूद, रिज़र्व बैंक ने हस्तक्षेप करके इस कुप्रबन्धन के लिए ज़िम्मेदार व्यक्तियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की।” (फायनेंशियल अकाउंटेबिलिटी नेटवर्क-इंडिया, मार्च 19, 2020)
जब बैंक डूबने की कगार पर था, तब रिज़र्व बैंक ने आहरण पर रोक लगाई और एक महीने के अन्दर एक नई अधिग्रहण योजना का वायदा किया। जैसा कि आपने ऊपर व्यक्त भावनाओं में देखा, लोगों का विश्वास घायल हुआ। कारण यह है कि रोकथाम के उपाय बहुत कमज़ोर या निष्प्रभावी रहे हैं। पीएमसी ने बोरिया-बिस्तर बाँध लिया है और कई जमाकर्ता आज भी अपना पैसा वापिस पाने का इन्तज़ार कर रहे हैं या उम्मीद खो चुके हैं। और हाल के वर्षों में अन्य कई सहकारी बैंक भी डूबे हैं लेकिन वे खबरों में नहीं आए।

ऐसे माहौल में बैंकिंग प्रणाली के प्रति अविश्वास के सन्देश बहुत गम्भीर रूप ले लेते हैं। हमें इतिहास से सबक लेना चाहिए कि झूठी अफवाहों ने बैंकों को तबाह किया है। कामकाज करने की उनकी क्षमता लोगों के भरोसे पर टिकी है। अविश्वास का माहौल छूत की तरह होता है। यस बैंक के मामले में रिज़र्व बैंक बीच में आया और सुनिश्चित किया कि जमा राशियाँ सुरक्षित रहें क्योंकि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया आगे बढ़कर इस बैंक का पुनर्निर्माण करेगा। यदि वह ऐसा न करता तो पूरा वित्तीय तंत्र धराशायी होने लगता जिसकी शुरुआत निजी बैंकों से होती। ऐसी स्थिति की कल्पना कीजिए जब निजी बैंकों के सारे जमाकर्ता अपना पैसा निकाल लें और सार्वजनिक बैंकों का रुख करें, सिर्फ इसलिए कि महाराष्ट्र सरकार कहती है कि पैसा सार्वजनिक बैंकों में ही सुरक्षित है, कहीं और नहीं। यह तो सारे निजी बैंकों के लिए हड़कम्प की स्थिति होगी, चाहे उनकी वित्तीय हालत ठीक-ठाक हो। बैंक बगैर किसी गलती के तबाह हो जाएँगे। अच्छी खबर यह है कि यस बैंक ने कामकाज बहाल कर दिया है। अलबत्ता, पीएमसी के जमाकर्ता आज भी इन्तज़ार कर रहे हैं।

रिज़र्व बैंक पर सिर्फ सरकारी नहीं, सारे बैंकों की ज़िम्मेदारी है। ये भावनाएँ संकट का सबब बन सकती हैं और इसीलिए किसी एक बैंक के टूट पड़ने की स्थिति अन्य बैंकों में छूत की तरह फैल सकती है। यह इस बात पर निर्भर है कि इस तंत्र को लेकर लोगों का एहसास विश्वास का है या अविश्वास का। बैंक जब काम करते हैं, तो वे अद्भुत संस्थाएँ होती हैं, लेकिन गड़बड़ी हो जाए तो वे नरक समान हो जाते हैं।
लोगों का विश्वास बहाल करने के लिए रिज़र्व बैंक और सरकार को कार्रवाई की कोई विश्वसनीय योजना के साथ आगे आना चाहिए। कार्रवाई दो स्तरों पर ज़रूरी होगी। इसके ज़रिए ठप हो गए बैंकों को बहाल करना होगा और जमाकर्ताओं को सुरक्षा प्रदान करनी होगी। बैंक में प्रत्येक जमाकर्ता को मात्र 5 लाख का बीमा मिलता है। कई लोगों की जमा राशि इससे कहीं ज़्यादा होती है। यदि योजना के तहत जमाकर्ताओं को सुरक्षा नहीं मिलती, तो बहानेबाज़ी से काम नहीं चलेगा। लोग निजी बैंक इस आधार पर छोड़कर जाने लगेंगे कि संकट के समय सरकार सिर्फ सार्वजनिक बैंकों की रक्षा करेगी। हो सकता है कि शुरुआत जिस संकट से हुई थी, हम उससे भी बड़े झमेले में फँस जाएँ। यदि आप घाव का इलाज नहीं करते, तो हो सकता है कि भुजा को ही काटना पड़े। दूसरे स्तर पर रिज़र्व बैंक को सरकार का समर्थन मिलना चाहिए कि वह गैर-निष्पादित परिसम्पत्तियों के मुद्दे को गम्भीरता से उठा सके और इरादतन चूककर्ता, बैंक व ऑडिटर्स द्वारा गलत रिपोर्टिंग के विरुद्ध कार्रवाई कर सके।


अरविंद सरदाना: सामाजिक विज्ञान समूह, एकलव्य से सम्बद्ध हैं। एन.सी.ई.आर.टी. एवं अन्य राज्यों की पाठ्यपुस्तकों की निर्माण प्रक्रियाओं से जुड़ाव रहा है।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।