--संजय गुलाटी शिक्षकों की कलम से

एक से चार अप्रैल 2013 के बीच मुझे आधिकारिक रूप से छत्तीसगढ़ एस.सी.ई.आर.टी. टीम के साथ बस्तर जाने का अवसर मिला था। बस्तर जाने का यह मेरा पहला मौका था। इस दौरे का मुख्य उद्देश्य छत्तीसगढ़ में चल रहे पाठ्यचर्या में बदलाव के लिए पालकों, शिक्षकों, बच्चों, शिक्षक-प्रशिक्षकों आदि से चर्चा करना था। इसके लिए डाईट ने बस्तर ज़िले के नेतानार संकुल की दो प्राथमिक शालाओं, शा.प्रा. शाला किचकरास और चैखुर का चयन किया था। ये दोनों स्कूल ज़िला मुख्यालय से लगभग 35 कि.मी. की दूरी पर घने जंगल में स्थित हैं। इस क्षेत्र में ज़्यादातर धुरवा जनजाति के लोग रहते हैं।
पूरी टीम सुबह करीब दस बजे किचकरास स्कूल पहुँची। यदि आप कार से जा रहे हैं तो आपको करीब 300–400 मीटर पहले ही उसे छोड़ना होगा क्योंकि इसके आगे संकरे रास्ते पर कार नहीं जा सकती। स्कूल में उस समय 15 बच्चे, दो शिक्षक और एक रसोइया उपस्थित थे। शिक्षक स्थानीय नहीं थे, वे करीब 600 कि.मी. दूर से आकर यहाँ अपनी सेवाएँ दे रहे थे। बच्चों की संख्या के बारे में पूछने पर बताया गया कि कुछ बच्चे अपने माता-पिता के साथ लकड़ी, महुआ, कपास आदि बीनने के लिए जंगल गए हैं। स्कूल में उपस्थित दो-तिहाई बच्चे कक्षा–4 के थे, बाकि सभी 1 से 3 तक की कक्षाओं के थे।  


बच्चों से मेल-मिलाप
सभी बच्चों ने नमस्ते कहकर टीम का स्वागत किया। टीम के सदस्य भी उत्साहित होकर बच्चों से पूछने लगे, “कौन-सी कक्षा में पढ़ते हो, तुम्हारा नाम क्या है, कहाँ रहते हो?” आदि। परन्तु यह क्या, बच्चों की तरफ से कोई जवाब ही नहीं आ रहा था। टीम ने सोचा कि नए लोगों को देखकर बच्चे संकोच कर रहे हैं, तो उनका हौसला बढ़ाने के लिए उनसे और बातें करना शुरू कीं, परन्तु बच्चों ने फिर भी कोई जवाब या प्रतिक्रिया नहीं दी। इस पर चौथी कक्षा के एक बच्चे ने कहा, “ये लोग हिन्दी नहीं समझते हैं।” टीम ने शिक्षकों से पूछा तो शिक्षक बताने लगे कि उन्हें छोटे बच्चों को पढ़ाने में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। बच्चे और उनके माता-पिता घर में, गाँव में, बाज़ार में धुरवी भाषा या अन्य स्थानीय भाषा का उपयोग करते हैं। बच्चों के पास स्कूल के अलावा हिन्दी भाषा को सीखने और उपयोग करने के मौके नहीं के बराबर हैं। शिक्षकों ने यह भी बताया कि उन्हें स्वयं स्थानीय भाषा का कोई ज्ञान नहीं है। वे बच्चों से ही कुछ शब्द सीखने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार बहुत देर तक बच्चों के साथ कोई सार्थक बातचीत नहीं हो पाई। इस बीच कुछ बच्चे, जो जंगल गए थे, वापस आ गए और अन्य बच्चों के साथ बैठ गए।
इस दौरान शिक्षकों ने रसोइए को बुलाया, उसे हिन्दी, धुरवी तथा अन्य स्थानीय भाषा का अच्छा ज्ञान था। रसोइए ने दुभाषिए की भूमिका निभायी और बच्चों के साथ बातचीत शुरू हुई। टीम के सदस्यों ने बच्चों से पाठ्यपुस्तक के कुछ चित्रों पर बातचीत की। वे हिन्दी में कुछ शब्द बोल पाने में भी कठिनाई महसूस कर रहे थे। कक्षा-4 के कुछ बच्चे हिन्दी में पहाड़े बोल पा रहे थे। बच्चों के भोजन अवकाश का समय होने के कारण जब टीम बच्चों के पालकों से मिलने गाँव पहुँची, तो ज़्यादातर पुरुष जंगल, खेत में काम पर गए हुए थे। माताएँ घर के काम में व्यस्त थीं, वे भी हिन्दी में अपने आप को सहज नहीं महसूस कर रहीं थीं। उसके बाद टीम जब दूसरे स्कूल चैखुर पहुँची तो वहाँ भी किचकरास स्कूल जैसा ही अनुभव हुआ।

कक्षा में स्थानीय भाषा का प्रवेश
इस दौरे ने एस.सी.ई.आर.टी. की टीम पर गहरी छाप छोड़ी। रायपुर में संचालक महोदय से बात करने के उपरान्त यह निर्णय लिया गया कि प्रयोग के तौर पर बस्तर ज़िले के धुरवा बाहुल्य इलाकों के स्कूलों में कक्षा–1 से स्थानीय भाषा का उपयोग कर कक्षाएँ संचालित की जाएँ।
प्रारम्भिक तैयारी के रूप में धुरवा संस्कृति और भाषा को जानने व समझने वाले शिक्षकों और समुदाय के सदस्यों की एक टीम बनाई गई। इस टीम के साथ, राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा – 2005 के सिद्धान्तों और धुरवा बच्चों के सांस्कृतिक सन्दर्भों का ध्यान रखते हुए कक्षा–1 के लिए धुरवा–हिन्दी द्विभाषी प्रायमर पर काम करना प्रारम्भ किया गया। प्रायमर बनाने के लिए धुरवा समाज के सामुदायिक ज्ञान का उपयोग किया गया। कक्षा में शिक्षण के माध्यम के रूप में बच्चों की मातृभाषा का उपयोग करते हुए बच्चों को दूसरी भाषा हिन्दी सिखाने का कार्य बीस स्कूलों में (जहाँ 100% धुरवा बच्चे और शिक्षक थे) सत्र 2015-2016 से किया गया। सत्र 2017-18 में इसे कक्षा–3 तक बढ़ाया गया। द्विभाषी प्रायमर के साथ-साथ कक्षा–1 के लिए धुरवी भाषा में गणित की अभ्यास पुस्तिका व शिक्षकों के लिए शिक्षक-निर्देशिका का निर्माण भी किया गया। कुल 52 स्कूलों में करीब 3000 बच्चों को इस प्रयोग का फायदा मिला। शिक्षकों ने बताया कि मातृभाषा के उपयोग से स्कूल में बच्चों की सक्रियता बढ़ी, उनकी उपस्थिति में सकारात्मक बदलाव आए, पालकों और समुदाय का स्कूल से जुड़ाव बढ़ा, एवं बच्चों ने शैक्षिक कौशलों में अच्छा प्रदर्शन किया।

बच्चे जब स्कूल आते हैं तो वे अपने जाने-पहचाने सन्दर्भों में दैनिक जीवन में उपयोगी मूर्त वस्तुओं के बारे में अपनी मातृभाषा में बातें कर सकते हैं। वे धारा प्रवाह बोल सकते हैं, उन्हें बोली जाने वाली भाषा के बुनियादी व्याकरण और बहुत-से मूर्त शब्दों का ज्ञान भी होता है। वे अपनी सारी ज़रूरतें मातृभाषा में बता सकते हैं। उनमें आपसी बातचीत का बुनियादी कौशल होता है। इस प्रकार का ज्ञान और कौशल कक्षा-1 के बच्चों के लिए पर्याप्त होता है, जहाँ शिक्षकों से यह उम्मीद की जाती है कि वे बच्चों से उन सभी विषयों पर बातचीत करें जिसके बारे में बच्चों का अपना पूर्व-अनुभव एवं ज्ञान होता है।

विविध संस्कृति, जाति और भाषा के बच्चे सीखने के उद्देश्य से स्कूल आते हैं और यहाँ वे एक समग्र भाषाई समुदाय बनाते हैं। हर बच्चा जन्मजात भाषाई क्षमता के साथ कक्षा में आता है। कक्षा में बच्चे की भाषा का उपयोग करने की अवधारणा को बहुभाषी शिक्षा कहा जाता है। इस प्रकार की शिक्षा बच्चों के सन्दर्भों और संस्कृति पर आधारित होती है। यह ज्ञान के सृजन, सामुदायिक भागीदारी और शाला-समुदाय के सम्बन्धों को प्रोत्साहित करती है। बहुभाषी शिक्षा सामाजिक न्याय और शिक्षा में समता हासिल करने का सशक्त माध्यम है।


गर शिक्षण का माध्यम हो मातृभाषा
बड़ी कक्षाओं में बच्चों को बौद्धिक और भाषिक रूप से अधिक अमूर्त अवधारणाओं को समझना होता है। उन्हें अपने परिवेश से दूर की बातों को समझने और उन पर बातें करने की आवश्यकता होती है, जैसे भूगोल व इतिहास की पाठ्यवस्तु में। कई बार ऐसी बातों को भी समझना होता है जिन्हें देखा नहीं जा सकता, जैसे गणित की अवधरणाएँ या सच्चाई, ईमानदारी, प्रजातंत्र जैसे शब्दों एवं उनसे सम्बन्धित मूल्यों का अर्थ आदि। उन्हें भाषा और अमूर्त तर्क के आधार पर बिना मूर्त वस्तुओं की मदद से समस्या सुलझाने की आवश्यकता होती है। इस प्रकार की संज्ञानात्मक-अकादमिक भाषाई कुशलता की आवश्यकता कक्षा-3 से आगे होती है और यह कुशलता बच्चों में धीरे–धीरे ही विकसित होती है। इस बात की आवश्यकता है कि बच्चों में इस प्रकार की अमूर्त क्षमता उनकी मातृभाषा आधारित ज्ञान के आधार पर ही विकसित हो। यदि मातृभाषा आधारित संज्ञानात्मक-अकादमिक भाषाई कुशलता के विकास का अवसर बच्चों को स्कूल में आने के बाद न मिले तो उन्हें किसी भी भाषा में अमूर्त चिन्तन के विकास के अवसर नहीं मिल पाएँगे।

यदि स्कूलों में शिक्षण एक ऐसी भाषा में होता है जो स्थानीय/आदिवासी/अल्पसंख्यक बच्चे नहीं जानते हैं, तब वे बिना कुछ समझे प्रारम्भिक वर्षों में कक्षाओं में बैठते हैं और बिना समझे यांत्रिक रूप से शिक्षक की बातों को दोहराते हैं। इस प्रकार उनमें भाषा की मदद से चिन्तन क्षमता का विकास नहीं हो पाता है और वे अन्य अकादमिक विषयों में भी पिछड़ जाते हैं। इसी कारण ये बच्चे पढ़ना, लिखना और अन्य स्कूली विषयों को सीखे बिना ही स्कूल छोड़ देते हैं।
यदि बच्चों को उनकी मातृभाषा, स्कूल में शिक्षण के माध्यम के रूप में मिले तो वे पढ़ाई गई बातों को समझेंगे, मातृभाषा में संज्ञानात्मक-अकादमिक भाषाई कुशलता विकसित कर सकेंगे और इस बात की पूरी सम्भावना होगी कि वे एक चिन्तनशील व्यक्ति के रूप में अपनी शिक्षा को जारी रखेंगे। शोध लगातार यह बताते हैं कि स्कूल के प्रारम्भिक सालों में मातृभाषा में शिक्षण की वजह से बच्चों के शाला त्यागने की दर में गिरावट आती है और यह कार्यक्रम ‘हाशिए पर’ रुके समूहों को शिक्षा के प्रति अधिक आकर्षित करता है। जिन बच्चों को मातृभाषा आधारित बहुभाषी शिक्षा का लाभ मिलता है, वे अपनी दूसरी भाषा में भी अच्छा प्रदर्शन करते हैं।

बच्चे जब अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करते हैं तो उनके पालक भी बच्चों के सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। पालकों का इस प्रकार का जुड़ाव बच्चों के बौद्धिक और सामाजिक विकास के लिए महत्वपूर्ण होता है। भाषाई-अल्पसंख्यक बच्चों के पालक प्राय: इस प्रकार की सहायता प्रदान करने में असमर्थ होते हैं।
बहुभाषी शिक्षा कार्यक्रम घर की संस्कृति, स्कूल की संस्कृति और समाज के बीच एक पुल का काम करता है। यह कार्यक्रम केवल बच्चों के सीखने के स्तर में ही सुधार नहीं करता है बल्कि सहिष्णुता बढ़ाता है और सांस्कृतिक विविधता के सम्मान को बढ़ावा देता है।
प्रारम्भ में बहुभाषी शिक्षा की लागत एकल-भाषा शिक्षा से अधिक होती है परन्तु इस कार्यक्रम के दीर्घकालिक लाभ प्रारम्भिक निवेश से बहुत अधिक होते हैं। बहुभाषी शिक्षा से उन हज़ारों बच्चों की क्षमताओं की पहचान कर उनका उपयोग किया जा सकता है जो समाज से छुपी रहती हैं।

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इस प्रकार मातृभाषा आधारित बहुभाषी शिक्षा बच्चों में स्वयं को व्यक्त करने के साथ–साथ स्कूलों में अलग-अलग विषयों की अवधारणाएँ सीखने का विश्वास देती है। यह कार्यक्रम बच्चों को उनकी भाषा, संस्कृति, उनके पालकों और समुदाय से अलग होने से रोकते हैं; और हम ऐसी स्थिति से भी बचते हैं जहाँ बच्चों को एक अलग भाषा का उपयोग करने के कारण परेशान किया जाता है, जिसके कारण वे अपनी संस्कृति और विरासत के बारे में नकारात्मक सोचने को मजबूर होते हैं।


संजय गुलाटी: मेकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक। 25 वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। बस्तर, छत्तीसगढ़ की धुरवा जनजाति के लिए बहुभाषी शिक्षा लागू की। लेंग्वेज एंड लर्निंग फाउण्डेशन, नई दिल्ली के अन्तर्गत छत्तीसगढ़ के राज्य समन्वयक के रूप में काम किया। वर्तमान में स्वतंत्र रूप से काम कर रहे हैं।
सभी फोटो: संजय गुलाटी।