किशोर पंवार    [Hindi PDF, 270 kB]

प्रकाश-संश्लेषण
पिछले साल मुझे अम्बुुजा सीमेंट फाउण्डेशन (ए.सी.एफ.) द्वारा प्रायोजित एक शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में जाने का मौका मिला जो डारलाघाट, हिमाचल प्रदेश में आयोजित हुआ था। ए.सी.एफ. वहाँ फील्ड एजुकेशन के तहत सरकारी स्कूलों में अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराने का कार्य कर रहा है। डारलाघाट एक सुन्दर प्राकृतिक जगह है जहाँ अम्बुजा की सीमेंट इंडस्ट्री स्थापित है। यहाँ चारों तरफ चीड़, सरू, नीम, अंजीरी, तिरमिरा, आड़ू, अखरोट एवं प्लम के पेड़ हैं। जहाँ एक तरफ चीड़ व सरू के पेड़ हैं वहीं चट्टानों पर केक्टस की भी भरमार है यानी सदाबहार टेम्परेट वन और रेगिस्तानी शुष्क वनस्पति, दोनों एक साथ।

यहाँ अनार के पेड़ प्राकृतिक रूप से उगते हैं। यही कारण है कि इस गाँव को यह नाम मिला डारलाघाट। दाड़ला अनार के संस्कृत नाम दाड़िम का अपभ्रंश है जो दाड़ला से डारला हो चुका है।
इस प्रशिक्षण में सातवीं व आठवीं कक्षाओं में विज्ञान पढ़ाने वाले कुल 13 शिक्षकों ने भाग लिया। इनमें कुछ मेडिकल और कुछ नॉन-मेडिकल शिक्षक थे। यह शब्द मैंने परिचय के दौरान पहली बार सुना था। पता चला कि जीव विज्ञान पढ़ाने वाले शिक्षक को मेडिकल और मेथ्स पढ़ाने वाले को नॉन-मेडिकल कहते हैं। शिक्षकों का आग्रह था कि उन्हें बेकार पड़ी या उपयोग की जा चुकी सामग्री से कुछ विज्ञान के प्रोजेक्ट तैयार करना सिखाया जाए। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि प्रकाश-संश्लेषण एवं वाष्पोत्सर्जन के प्रयोग करने में कठिनाई आती है। स्कूल में इन्हें कराने के लिए उपकरण उपलब्ध नहीं होते। कोशिका की समझ से जुड़ी कुछ समस्याएँ भी थीं जिन्हें वे प्रयोगों के माध्यम से सीखना-समझना चाहते थे।
इस दो-दिवसीय प्रशिक्षण में शिक्षिकाओं ने काफी जोश एवं उत्साह से भाग लिया।

पहला दिन - पत्ती का मॉडल
प्रशिक्षण में पहले दिन कोशिका की रचना एवं कार्य प्रणाली को समझने के लिए कुछ प्रयोग करवाए गए। इसमें एकलव्य द्वारा निर्मित माड्यूल ‘कोशिका - जीवन की एक इकाई’ बहुत उपयोगी पाया गया। कोशिका में केन्द्रक, क्लोरोप्लास्ट एवं स्टोमेटा सभी ने देखे।
इन अवलोकनों और जानकारी के आधार पर शिक्षकों ने पत्ती का एक 3क़् मॉडल भी बनाया जिसमें पत्ती की ऊपरी एवं निचली एपीडर्मिस को गहरे हरे एवं हल्के रंग की ड्रॉइंग शीट का उपयोग कर बनाया गया। मीज़ोफिल कोशिकाओं की एयर केविटीज़ को दर्शाने के लिए हवा भरे प्लास्टिक के बुलबुलों वाली ब्लिस्टर-पेकिंग को काम में लिया गया। शिक्षकों ने पत्ती की क्यूटिकल पर्त कड़क पारदर्शी शीट से बनाई।
पत्ती की नसों को दर्शाने के लिए मिस्त्री वाली लेवल पाइप का इस्तेमाल किया गया। छोटी नसों को दर्शाने के लिए सेलाइन की पतली नलियों का उपयोग किया गया। एक शिक्षिका ने अपनी सूझ-बूझ और ट्रेनिंग में देखे स्टोमेटा के आधार पर स्कूल की पंचिंग मशीन से कचरे में निकली गोल-गोल डिस्क को स्टोमेटा दर्शाने के लिए पत्ती की निचली सतह पर नसों के आसपास बड़े सलीके से फेवीकोल से चिपका दिया।
पत्ती की रचना और कार्य प्रणाली को समझने और समझाने का यह एक बहुत सुन्दर प्रयास था। सभी ने मिल-जुलकर इसे बनाया। हाँ, चुनाव करते समय यह ध्यान रखा गया कि पत्ती बड़े आकार की हो। ऐसी पत्ती उन्हें स्कूल के पास बह रहे एक नाले में मिल गई। वह पत्ती अरबी की थी जिसमें बड़े-बड़े डण्ठल होते हैं और फलक बड़ा।

दूसरा दिन - कबाड़ से जुगाड़
इस प्रशिक्षण में दूसरे दिन सुबह परिभ्रमण का आयोजन किया गया जिसमें शिक्षकों ने फर्न, ब्रायोफाइट एवं पेड़ों के तनों पर लगे लायकेन पहली बार देखे। मुझे एक-दो नई तितलियाँ भी दिखाई दीं।

पोटोमीटर
प्रशिक्षण के दूसरे दिन, उपयोग की गई सामग्री से पौधों की एक महत्वपूर्ण क्रिया वाष्पोत्सर्जन को दिखाने के लिए सरल पोटोमीटर बनवाए गए। इस हेतु शिक्षकों को एक दिन पूर्व ही घर से उपयोग किए हुए बॉलपेन, उनकी खाली रिफिल, मिनरल बॉटल, कैंची एवं एम-सील लाने के निर्देश दिए गए थे।
पोटोमीटर पौधों की वाष्पोत्सर्जन दर निकालने के काम आते हैं। प्रचलन में तीन तरह के पोटोमीटर उपलब्ध हैं-
1. डार्विनस पोटोमीटर
2. फारमर्स पोटोमीटर
3. गेनोंग्स पोटोमीटर
ये नाम इनके आविष्कारकों के नाम पर आधारित हैं। सबसे सरल डार्विन का पोटोमीटर है और सबसे विकसित गेनोंग्स का। ये पोटोमीटर इस सिद्धान्त पर काम करते हैं कि पौधों द्वारा अवशोषित पानी की मात्रा उनके द्वारा वाष्प के रूप में उड़ाए जाने वाले पानी के लगभग बराबर होती है। और ये पोटोमीटर एक निश्चित समय में पौधे द्वारा अवशोषित पानी की मात्रा नापते हैं।

इन पोटोमीटर को सेट करना ज़रा कठिन होता है क्योंकि ये वायुरोधी होने चाहिए परन्तु अक्सर इनसे यहाँ-वहाँ से पानी निकलता रहता है, अत: लीकेज के कारण ये काम नहीं करते। यही कारण है कि कॉलेज की प्रायोगिक कक्षाओं में भी इन्हें बस ऐसे ही दिखा दिया जाता है। लीकेज को रोकने के लिए ग्रीस या प्लास्टीसीन लगाने का ज़िक्र है किताबों में, परन्तु अनुभव यह कहता है कि बाहरी सतह यदि गीली हो जाए तो फिर वहाँ ग्रीस या वेसलीन नहीं टिकता।

इन समस्याओं के चलते होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान सेलाइन की खाली बॉटल का उपयोग कर 1987 में भोपाल के रीजनल कॉलेज ऑफ एजुकेशन में एक पोटोमीटर बनाने का सफल प्रयास किया गया था। इस बॉटल में चूँकि पहले से ही छेद-युक्त एक रबर का ढक्कन लगा होता है अत: यह बढ़िया काम करता है। एक छेद में पौधे की टहनी और दूसरे में काँच की नली लगाने से एक अच्छा पोटोमीटर बन जाता है। बॉटल भारी होने से टहनी लगाने पर लुढ़कती भी नहीं थी।

अपना पोटोमीटर
डारलाघाट में इसमें कुछ परिवर्तन कर काँच की बोतल की जगह मिनरल वॉटर बॉटल का प्रयोग किया गया। ढक्कन में दो छेद कर एक में मिस्त्री जो लेवल पाइप काम में लाते हैं वह लगा दिया। और दूसरे में इसी तरह की एक छोटी ट्यूब (चित्र-2)। छेद करने के लिए छोटी कैंची का प्रयोग किया गया। इस हेतु ढक्कन में कैंची का एक सिरा घुसाकर उसे गोल-गोल घुमाते हैं और सही नाप का छेद तैयार करते हैं। पूरी बॉटल को पानी से भरकर बड़ी नली में उसके नाप से थोड़ी मोटी कोई टहनी काटकर ताज़े पानी में लगा दी। इस कार्य के लिए कोलिय के पौधे उपयुक्त पाए गए। कोई अन्य जंगली पौधा भी इस काम लाया जा सकता है (चित्र-2)। टहनीयुक्त ढक्कन लगाते ही पोटोमीटर काम करना शुरू कर देता है।

दूसरी नली में पानी का स्तर धीरे-धीरे कम होने लगता है। चूँकि रबर की नली में उसकी मोटाई से थोड़ी ज़्यादा मोटी टहनी लगाई गई है अत: यह उपकरण अपने आप एअरटाइट (व वाटर टाइट) हो जाता है। न ग्रीस की ज़रूरत पड़ती है न रबर कॉर्क की, जिसमें छेद करना ही बड़ा मुश्किल काम है।
इस तरह तैयार किए गए पोटोमीटर शिक्षक अपने साथ ले गए। खर्च कुछ भी नहीं और प्रयोग करने का मज़ा पूरा।
फ्लोटिंग लीफ डिस्क ऐसे (assay)
प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया का प्रदर्शन दिखाने के लिए इन्वरटेड फनल एवं विलमॉट्स बबलर जैसे उपकरण उपलब्ध हैं परन्तु इनमें दो परेशानियाँ हैं। पहली, इनके लिए जलीय पौधा हाइड्रिला (चित्र-3) ज़रूरी है और दूसरी परेशानी यह है कि इन्वरटेड फनल उपकरण में पानी से भरी टेस्ट ट्यूब उलटना ज़रा मुश्किल काम है।
हाइड्रिला हर कहीं नहीं मिलता। यह झीलों, तालाबों या नदियों के किनारों पर पाया जाता है। हमारे कई स्कूल-कॉलेज ऐसे हैं जहाँ नदी-तालाब नहीं हैं। एक और दिक्कत हो सकती है - हाइड्रिला की पहचान। जिसने हाइड्रिला न देखा हो उसके लिए यह मुश्किल काम है।
इन दोनों समस्याओं का एक सरल समाधान है ‘फ्लोटिंग लीफ डिस्क ऐसे’ जो ब्रैड विलयमसन द्वारा डिज़ाइन किया गया है। यह नेट पर इसी नाम से उपलब्ध है।

फोटोसिन्थेसिस जहाँ हाइड्रिला न हो
इसमें आवश्यक सामग्री की सूची नेट पर दी गई है वह इस प्रकार है:
1. सोडियम कार्बोनेट
2. प्लास्टिक सीरिंज 10 मि.ली., बिना नीडल के
3. लिक्विड सोप
4. पंचिंग मशीन
5. प्लास्टिक कप
6. टाइमर/घड़ी
7. लाइट सोर्स 200 वॉट बल्ब।
इसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में बदलकर लगभग आधे संसाधनों के साथ किया जा सकता है। लिक्विड सोप, टाइमर, पंचिंग मशीन और लाइट बल्ब के बिना भी इसे सफलता पूर्वक किया जा सकता है। डारलाघाट की ट्रेनिंग में हमने इन बदलावों के साथ इस प्रयोग को करके देखा।

कैसे करें
सबसे पहले कोई पत्ती चुनें। प्रयोग में पालक का उदाहरण दिया गया है। हमने डारलाघाट में डेहलिया, अंजीरी, कोलियस और अपामार्ग (आधी झाड़ा) की पत्तियाँ चुनी थीं।
1. पत्तियों से पंचिंग मशीन या प्लास्टिक की कड़क स्ट्रॉ से शिराओं को छोड़कर 10 लीफ डिस्क यानी गोल बिन्दियाँ काटकर पानी में रखें।
2. इन्हें पिस्टन निकालकर सिरिंज में डालें। सोडियम बाय कार्बोनेट का 1 प्रतिशत घोल बनाएँ जिसे इस सिरिंज में भरें। पिस्टन लगाएँ। अब सिरिंज के मुँह पर जहाँ नीडल लगाई जाती है वहाँ उँगली रखकर पिस्टन को अपनी ओर खींचें।
3. आपको पत्तियों की डिस्क से बुलबुले निकलते दिखाई देंगे।
4. दो तीन बार ऐसा करने पर जो डिस्क पानी में तैर रही थीं वे अब नीचे बैठ जाएँगी। इस तरह सोडियम बाय कार्बोनेट का घोल डिस्क के अन्दर चला जाता है।
5. अब पिस्टन निकालकर इस डिस्क को प्लास्टिक के पारदर्शी कप (डिस्पोज़ेबल किस्म) या काँच के गिलास में डाल दें। सब डिस्क नीचे बैठ जाएँगी।
6. इन कप को अब धूप में रखें या टेबल लैंप के नीचे।
7. आप देखेंगे की लीफ डिस्क धीरे-धीरे ऊपर उठ रही हैं।
8. प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया शुरू होने पर निकलने वाली ऑक्सीजन के बुलबुले बनने से पत्ती के हल्के हो जाने के कारण ऐसा होता है।
9. प्रत्येक डिस्क के ऊपर आने का टाइम नोट करें। 10 डिस्क में से पाँच डिस्क के ऊपर आने का समय फोटोसिन्थेसिस शुरू होने का औसत समय होगा।

10. आप देखेंगे कि कुछ सेंकड में ही हरकत होने लगती है। लगभग 2-3 मिनिट में पूरा प्रयोग हो जाता है।
11. डारलाघाट में सबसे बढ़िया रिज़ल्ट अंजीरी की पत्तियों से आए थे। 10-12 सेंकड में सभी डिस्क ऊपर आ गई थीं।
12. आप अपनी सुविधानुसार अन्य पत्तियों से भी कोशिश कर सकते हैं।
13.डारलाघाट में टेबल लैंप की व्यवस्था न होने से जुगाड़ से एक बढ़िया टेबल लैंप बनाया गया। हमने उस लैंप और प्रकृति के सबसे बड़े लैंप यानी सूरज, दोनों की रोशनी में यह प्रयोग किया। बिना हाइड्रिला के इतना बढ़िया रिज़ल्ट देने वाले इस प्रयोग में सबको मज़ा आया। और हाइड्रिला की उपलब्धता की समस्या भी हल हुई। पत्ती की डिस्क को नीचे से ऊपर नाच-नाच कर आते देखना एक अनूठा अनुभव था।


किशोर पंवार: होल्कर साइंस कॉलेज, इन्दौर में बीज तकनीकी विभाग के विभागाध्यक्ष और वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक हैं।
सभी फोटो: किशोर पंवार।
प्रशिक्षण में आरती सोनी की भूमिका प्रमुख थी। वे ए.सी.एफ. की कार्यक्रम अधिकारी हैं।