अब्दुल कलाम [Hindi PDF, 240 kB]
शिक्षकों के सेवाकालीन प्रशिक्षण के दौरान एक संकुल के शिक्षकों के साथ बहुभाषिता के सिद्धान्त पर चर्चा हो रही थी। बहुभाषिता के महत्व व सिद्धान्त को बेहतर समझने के उद्देश्य से प्रतिभागियों के साथ एक गतिविधि के साथ शुरुआत की गई। सभागार में बैठे शिक्षक साथियों से पूछा गया कि इस कक्ष में कितनी भाषाओं को जानने वाले लोग हैं। मतलब यहाँ उपस्थित हमारे साथी किन-किन भाषाओं को बोलना, लिखना-पढ़ना और समझना जानते हैं।
भाषा-मातृभाषा
शिक्षक साथियों ने बोलना शुरू किया, कुछ हद तक अपेक्षा के अनुरूप ही प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं। लगभग छह से सात सामान्य भाषाओं -- हिन्दी, अँग्रेज़ी, छत्तीसगढ़ी, पंजाबी, उर्दू, मराठी आदि की सूची ब्लैक-बोर्ड पर तैयार थी। इस क्षेत्र के बारे में मेरा अनुभव मुझे उकसा रहा था कि हो न हो इस कक्षा में कुछ और भाषाओं को जानने, समझने वाले साथी ज़रूर मौजूद हैं, बस अपने आप को बाहर नहीं ला रहे हैं। तीन-चार बार यह दोहराने पर कि क्या हम इस सूची को अन्तिम मान लें; क्या हमारे बीच इन भाषाओं के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा जानने वाले साथी मौजूद नहीं हैं; प्रतिभागियों की ओर से एक स्वर में प्रतिक्रिया आई कि “नहीं सर, हम लोग बस इतनी ही भाषाएँ जानते हैं।” इतने में पीछे बैठे एक शिक्षक साथी ने आवाज़ लगाई, “ये सर ‘कमारी’ भाषा जानते हैं।” पूछने पर उन्होंने संकुचाते हुए हामी भरी कि “हाँ सर, मैं ‘कमारी’ भाषा जानता हूँ, मेरी मातृभाषा ‘कमारी’ है।”
मैंने उनसे पूछा, “सर, आपने पहले अपनी भाषा को ब्लैक-बोर्ड पर क्यों नहीं लिखवाया?”
वे निरुत्तर थे, लेकिन मैं कुछ-कुछ समझ गया था कि क्यों उन्होंने अपनी भाषा का उल्लेख पहले नहीं किया था। थोड़ी देर से ही सही पर अब कमारी भाषा भी उतनी ही मज़बूती और स्पष्टता के साथ बोर्ड पर लिखी हुई थी, जितनी कि हिन्दी, अँग्रेज़ी और अन्य भाषाएँ।
अन्य शिक्षकों ने उन सर से कमारी भाषा में कुछ लिखने का निवेदन किया। उन्होंने लिखा-
* स्कूल जावदें (स्कूल जाना है)।
* पानी पियवा (पानी पीना है)।
* आम रोटी खावा।
बाकी शिक्षक साथी उनके लिखे वाक्यों को हिन्दी अनुवाद के साथ अपनी कॉपी में उतारते हुए दोहराते जा रहे थे और साथ ही कुछ अन्य वाक्यों को बोलकर उन्हें कमारी में लिखने का आग्रह भी कर रहे थे। कुछ देर तक कमारी भाषा के शब्दों और वाक्यों से सभाकक्ष का माहौल भर गया। हर कोई कमारी के नए-नए शब्द जानने के लिए उन शिक्षक को घेर रहा था। इतने में एक और शिक्षिका उठीं और बोलीं, “सरजी, मैं भी अपनी ‘कुडुख’ भाषा को सभी को बताना चाहँूगी और अपनी भाषा में कुछ लिखना चाहँूगी।” बस्तर इलाके में जशपुर के आसपास बोली जाने वाली कुडुख भाषा में उन्होंने लिखा-
* बरा नाम स्कूल कालोत (मैं स्कूल जाऊँगी)।
* एन अस्मा मोखदन (मैं रोटी खाऊँगी)।
* नम कुदा कालोत (हम घूमने जाएँगे)।
* निगहे एन्देर नामे (आपका नाम क्या है)।
वो मैडम नए-नए वाक्य लिखती और बोलती रहीं, बाकी शिक्षक साथी कुडुख भाषा के उन वाक्यों का भी हिन्दी अनुवाद पूछकर अपनी कॉपी में उतारते रहे। हर कोई कुडुख और कमारी भाषा के नए-नए शब्द जान लेने को आतुर नज़र आ रहा था। वे दोनों शिक्षक साथी जिन्होंने शुरुआत में अपनी भाषा का उल्लेख नहीं किया था अब पूरे आत्मविश्वास के साथ सभी को कुडुख व कमारी भाषा के नए-नए वाक्य लिखकर बता रहे थे। अन्य शिक्षकों द्वारा किसी दूसरी भाषा को सीखने की ललक उन्हें अपनी कमारी और कुडुख भाषा में लिखने और बोलने को और ज़्यादा प्रोत्साहित कर रही थी।
सभागार में सीखने-सिखाने का यह रचनावादी माहौल काफी देर तक जारी रहा।
भाषा: ताकत या कमज़ोरी?
यह कहने पर कि ‘आप दोनों ने पहले अपनी भाषा का ज़िक्र क्यों नहीं किया था? आपको अपनी भाषा शु डिग्री में ही इसी आत्मविश्वास के साथ सबके समक्ष रखनी चाहिए थी। सोचिए, आपके चुप रहने से अन्य साथी इन दो महत्वपूर्ण भाषाओं के बारे में जानने से वंचित रह जाते। हमारी भाषा हमारी ताकत है, न कि कमज़ोरी’, उन्होंनें मेरी इन बातों का कोई जवाब नहीं दिया।
वास्तव में यह सवाल पूछना बड़ा आसान था कि उन्होंने अपनी भाषा को शुरुआत में क्यों नहीं लिखवाया, किन्तु इसका जवाब देना इतना आसान नहीं, न उन दो शिक्षकों के लिए और न मेरे स्वयं के लिए।
यह सोचने वाली बात है कि सभागार में बैठे प्रतिभागियों ने जिन भाषाओं को सर्वप्रथम लिखवाया था, क्या वे उन सभी भाषाओं को समझ या बोल पाते होंगे? उदाहरण के तौर पर कुछ साथियों ने पंजाबी, किसी ने उर्दू और किसी ने मराठी भाषा को लिखवाया, पर क्या ये लोग जिन्होंने इन भाषाओं का ज़िक्र किया इनमें पारंगत होंगे? मुझे इस बात पर शक है। जैसा कि एक शिक्षक ने स्वयं स्वीकारा कि इन भाषाओं को फिल्मों में सुना है तो कुछ-कुछ शब्द समझ पाते हैं बस। इसके बावजूद ये भाषाएँ कमारी और कुडुख से पहले और अत्यन्त आत्मविश्वास के साथ ब्लैक-बोर्ड पर पहुँच गईं थीं।
क्या भाषा-क्या बोली?
इस पूरी चर्चा में एक और बात निकलकर आई कि अधिकतर साथी भाषा और बोली में अन्तर करके देख रहे थे, और अपनी मातृभाषाओं को वे हिन्दी से कमतर आँक रहे थे। ऐसा हो भी क्यों न? हमारी अपनी कक्षाओं में भी हिन्दी को भाषा और बुन्देलखण्डी को बोली की पहचान के साथ ही पढ़ाया गया है और उसी व्यवस्था से निकले हुए ये शिक्षक साथी भी छत्तीसगढ़ी को बोली मान रहे हैं। ऐसा हो सकता है कि उन दो शिक्षकों ने शायद कुडुख और कमारी को भी बोली मानकर यहाँ उल्लेखित न किया हो। इस पर एक सवाल और उभरता है कि यदि ऐसा है तो वे छत्तीसगढ़ी को भी तो बोली मान रहे थे पर छत्तीसगढ़ी को तो उन्होंने बड़े आत्मविश्वास के साथ लिखवाया था। तो मामला यहाँ सिर्फ बोली-भाषा के अन्तर की समझ का भी नहीं है।
प्रशिक्षण हॉल में जो कुछ भी हुआ उससे उभरे पहलू विचारणीय हैं और उनकी ओर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। पहला सवाल यही है कि जिस आत्मविश्वास के साथ शिक्षक साथियों ने छत्तीसगढ़ी को रखा, कमारी और कुडुख भाषा को जानने वाले शिक्षक साथी क्यों अपनी भाषा को उतनी मज़बूती से नहीं रख पाए? क्या इसलिए कि वे किसी विशेष जनजाति द्वारा सीमित क्षेत्र में उपयोग की जाने वाली भाषाएँ हैं? या इसलिए क्योंकि इन भाषाओं को बोलने वाले समुदाय को समाज में एक अलग दृष्टि से देखा जाता है? या फिर इसलिए क्योंकि उनकी भाषा के बारे में जानकर अन्य शिक्षक उनकी हँसी उड़ाते? या फिर इसलिए कि वे अपनी भाषा को भाषा ही नहीं मान रहे थे? कारण और भी बहुत सारे हो सकते हैं।
शिक्षकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी कक्षा के बच्चों द्वारा बोली जाने वाली अलग-अलग मातृभाषाओं के बारे में समझ और सम्मान की भावना विकसित करें। वे बच्चों द्वारा बोली जाने वाली उनकी अपनी भाषा को कक्षा में सीखने-सिखाने में स्थान दें और अपनी कक्षा की भाषाई विविधता को समझते हुए उसे एक संसाधन के रूप में इस्तेमाल कर बच्चों को विविध भाषाई कौशल और ज्ञान के विकास के लिए सहज एवं रचनात्मक वातावरण प्रदान करने का प्रयास करें।
उपर्युक्त उदाहरण में हम पाते हैं कि शायद शिक्षक साथियों में स्वयं की भाषा को लेकर संकोच एवं हीनभावना है। और यह भी समझ में आया कि वे खुद अपने बीच की अलग-अलग भाषाओं को किस दृष्टि से देखते हैं। ऐसे में एक बहुभाषी कक्षा में वे किस तरह उन बच्चों की भाषा को स्थान और सम्मान दे पाएँगे जो बच्चे हलबी, गोंडी, कुडुख या कमारी आदि भाषाएँ बोलते हैं?
भाषा का सत्ता से गहरा सम्बन्ध है, भाषा हमेशा से सत्ता के अधीन रही है। सत्ता और राजनीति ने ही किसी भाषा को शीर्ष पर पहुँचाया है तो किसी भाषा के समूचे अस्तित्व के विलुप्त होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आज ज़रूरत है कि बच्चों की भाषा को कक्षा में सम्मान मिले। बच्चे बेहिचक अपनी बातें, अपनी भाषा में कह सकें ऐसे अवसर उपलब्ध हों और साथ ही इसके लिए सहज वातावरण निर्मित किया जाए।
इस प्रशिक्षण में भागीदारी कर रहे शिक्षक-साथी बहुभाषिता के सिद्धान्त की पुख्ता समझ भले ही न विकसित कर पाए हों परन्तु यह अनुभव उन्हें यह सोचने को ज़रूर प्रेरित करेगा कि कहीं उनकी कक्षा का कोई बच्चा ऐसा तो नहीं जो अपनी मातृभाषा को बोलने में झिझक महसूस करता हो; या फिर जाने-अनजाने कहीं कक्षा की भाषा बच्चों की भाषा में पहले से निहित उनके ज्ञान को विकसित होने में अवरोध तो नहीं पैदा कर रही।
अब्दुल कलाम: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, धमतरी, छत्तीसगढ़ में कार्यरत।
सभी चित्र: सौम्या शुक्ला: एन.आई.आई.एफ.टी., मुम्बई मे डिज़ाइनिंग में स्नातक (द्वितीय वर्ष) की छात्रा हैं।
संदर्भ में प्रकाशित भाषा से सम्बन्धित लेख: कौन भाषा, कौन बोली...? (अंक-13), बच्चों की भाषा सीखने की क्षमता, भाग 1 और 2 (अंक-28-29), बल, चल, हल... (अंक-91)