अपने आस-पास के पर्यावरण के बारे में  

सर्वें, र्टेÏस्टग और उनका विश्लेषण छोटे पैमाने पर सीमित विद्यार्थियों के साथ भी किए जा सकते हैं। इससे कई ऐसे सवाल उठ सकते हैं, संकेत मिल सकते हैं जो उस क्षेत्र या विषय में ऐसे और काम (सर्वे या टेÏस्टग)  की दिशा दिखाएं। ब्रिाटेन की तीन प्राथमिक शालाओं के 75 विद्यार्थियों का अपने आसपास के पर्यावरण के अवलोकनों के बारे में किया गया सर्वेक्षण और उसका विश्लेषण एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करता है।

इस टेÏस्टग का मकसल था यह पता लगाना कि बच्चों में अपने आसपास की नैसर्गिक बारीकियों की कितनी समझ है। कितना कुछ वे ध्यान से देखते हैं, महसूस करते हैं और याद रख पाते हैं। दरअसल ब्रिाटेन में लागू विज्ञान के देशव्यापी पाठ¬क्रम के मुताबिक कक्षा दूसरी और तीसरी के बच्चों को कुछ चुने हुए कुदरती आवासों की खोजबीन करनी होती है। उन्हें जानना-पहचानना होता है। दूसरी कक्षा का पाठ¬क्रम कहता है कि “.....कम-से-कम दो आवासों और उनमें बसे बाशिंदों (पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों) की जांच-पड़ताल करना.....।”   इसमें उनसे उम्मीद की जाती है कि वे उन तरीकों का भी पता लगाएं जिससे ये बाशिंदे अपने-अपने आवासों में रह पाते हैं। और यह भी पता लगाएं जिससे ये बाशिंदे अपने-अपने आवासों में रह पाते हैं। और यह भी मालूम करें कि इन सब पर इनके आसपास के हालातों के क्या असर पड़ते हैं। तीसरी कक्षा में इसके काम को स्थानीय कुदरती बाशिंदों से कुछ आगे बढ़ाकर कुछ और जीवों तक ले जाया जाता है। इसके अलावा इन बच्चों को कई फर्क-फर्क कुदरती आवासों से रूबरू हो जांच करना होती हैं।

यूं तो शहर के बच्चों के बारे में एक किंवदंती प्रचलित है कि उन्होंने शायद कोई जीती-जागती गाय भी न देखी हो। (हमारे देश के शहरी बच्चों के बारे में हम कह सकते हैं कि उन्होंने शायद ही कोई उल्लू या सियार देखा हो!) पर पर्यावरण अध्ययन के लिए इनके पाठ¬क्रम का तकाज़ा बहुत स्पष्ट है। वैसे भी कुछ बच्चे तो अपने आसपास रहने वाले अन्य जीवों को पहचानते ही होंगे। इन्हीं विचारों से लैस होकर हमने इस काम की शुरुआत की थी। बच्चों की मालूमात और अनुभव परखने के लिए।

जांच का तरीका
हमने यह जांच आठ साल की उम्र के 33 और दस साल की उम्र के 42 बच्चों के साथ की। हर बच्चे के साथ अलग-अलग बातचीत की गई। पहले समूह में (आठ साल उम्र वाले) 17 लड़के और 16 लड़कियां थीं। दूसरे समूह में (दस साल वाले) 23 लड़के और 19 लड़कियां थीं। बातचीत का खाका पहले से तय था। ये बच्चे शहरी इलाकों के तीन ऐसे स्कूलों में पढ़ते थे जहां सह-शिक्षा लागू थी और जो बेहतर माने जाते थे और हां, इस जांच के लिए बच्चों का चुनाव किसी अनियत तरीके से या बगैर किसी आधार के किया गया हो, ऐसा भी नहीं था - यह कोई रैण्डम सैम्पल नहीं था। इन बच्चों को इनके शिक्षकों ने खास चुना था1 उनकी रुचियों और काबिलियत को ध्यान में रखते हुए क्योंकि उन्हें इस जांच से अपने बच्चों की प्रतिभाओं का इज़हार करने का एक सुनहारा मौका-सा जो मिल रहा था।

सबसे पहले तो हमने इस प्रक्रिया में भागीदार बच्चों से गपशप करके एक दोस्ताना माहौल बनाने की कोशिश की। उन्हें यकीन दिलाया कि ये सवाल-जवाब किसी परीक्षा का हिस्सा नहीं हैं। और कि हर सवाल के कई संभावित जवाब हो सकते थे। किसी सवाल का कोई एक ही सटीक जवाब हो ऐसा नहीं है। और फिर शुरू हुआ सवाल-जवाब का सिलसिला।

बच्चों से कहा गया कि वे ऐसे जीवधारियों की फेहरिस्त (सूची) बनाएं जिन्हें उन्होंने या तो किसी पोखर, नाले या सोते के पास देखा हो या ऐसी जगहों पर देखने की उम्मीद करते हों। बातचीत के दौरान कुछ अन्य सवाल भी पूछे जाते थे। खासकर यह आंकने के लिए कि ऐसी जगह पर रहने के लिए उनमें जो अनुकूलन हुए हों, या ऐसी जगहों के हालातों का जीवों पर जो कुछ असर हो, उसे क्या कभी बच्चों ने महसूस किया है?

अगला सवाल स्कूल के पास के जंगल में पाए जाने वाले जीवधारियों के बारे में था। यहां भी फेहरिस्त ही बनानी थी। कुछ सुझाव देते रहने पर बच्चों ने स्तनधारी पशुओं, पक्षियों, कीड़े-मकोड़े और पेड़-पौधों के अलग-अलग नाम भी गिनाए। इस बातचीत खत्म की गई गिलहरियों पर, उनके खान-पान और आदतों की चर्चा के साथ।

चर्चा और नतीजे

1.  ताज़े पानी के स्‍रोतों में आवास 
पोखर में रहने वाले जानवरों में से बच्चों ने सबसे ज़्यादा याद किया मेंढक को। दस साल की उम्र के 42 बच्चों में से सिर्फ चार बच्चे मेंढक को भूल गए लेकिन उन्हें भी टेडपोल याद रहा। इसी तरह तुलना करें तो दस साल की उम्र वाले ज़्यादातर बच्चों ने मछली को गिनाया था। पर इनमें से भी सिर्फ आठ ऐसे निकले जिन्हें मछली की किसी प्रजाति का नाम ध्यान रहा हो।

इसी तरह पानी में रहने वाले कीड़े-मकोड़ों का ज़िक्र तो आठ साल की उम्र वाले कई बच्चों ने किया पर मिसाल बहुत ही सीमित थे। इनमें पानी का गुबरैला ‘वाटर बीटल’ सबसे लोकप्रिय था। दस साल की उम्र तक आते-आते बच्चों को कुछ बिना रीढ़ वाले जानवरों का भी इल्म हो जाता है और वे उन्हें याद रखते हैं।

आठ साल की उम्र के बच्चों में पानी में पाए जाने वाले पेड़-पौधों की जानकारी बहुत ही कम थी। कोई एक  तिहाई बच्चे ही इनके उदाहरण दे सके थे। कई बच्चे तो अभी पक्के तौर पर यह भी नहीं तय कर पाए थे कि पेड़-पौधों को जीवितों में गिनना चाहिए या नहीं। ताज्जुब की बात यह है कि दस साल की उम्र वाले बच्चों ने पेड़-पौधों का ज़िक्र और भी कम किया। वैसे उनकी फेहरिस्त में सरकंडों और शैवाल (काई) को भी जगह मिली थी।

फिर आई बात जीवों के अनुकूलन और हालातों के हिसाब से उनमें हुए परिवर्तनों, रूपांतरणों की। कुछ जीव पानी में क्यों रहते हैं और वहां ज़िंदा रह सकने के लिए, फलने-फूलने के लिए, उनमें किस तरह के बदलाव आए हैं - इसकी आठ साल के बच्चों में बहुत ही सीमित समझ थी। अधिकतर जवाब बहुत ही सरलीकृत थे। इनमें ‘तालाब ही उनका घर है’, ‘वे पानी से बाहर रह नहीं सकते’ और ‘प्रकृति ने उन्हें वहीं जगह दी है’ जैसे बयान शामिल थे। इन बयानों में कहीं भी पानी और उसके बाशिंदों को ध्यान से देखने की कोशिश नज़र नहीं आती है।

चौदह-पन्द्रह साल के बच्चों ने हालातों के हिसाब से ढल जाने की बात छेड़ी ज़रूर पर समझ उनकी भी सीमित ही थी। कुरेदकर पूछने पर वे ‘जानवरों के लिए साफ पानी की ज़रूरत’ और ‘इंसान द्वारा दूषित पानी से इनके दूर रहने’ जैसी बातों पर ज़ोर देते थे।

2. जंगली आवास   
जब बच्चों से यह पूछा गया कि जंगल में वे किन जीवों को देख पानी की उम्मीद करते हैं  तो आठ साल और दस साल दोनों समूहों ने ज़्यादातर स्तनधारियों का ज़िक्र किया। लोमड़ी और गिलहरी दोनों ही  समूहों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय थे। इसके बाद खरगोश और बिज्जू की बारी आती थी। सिर्फ दस साल वाले बच्चों ने हिरण और चूहों को याद रखा।

पक्षियों का ज़िक्र भी बच्चों ने बिना किसी सुझाव के अनायास ही किया। सबसे लोकप्रिय उदाहरण उल्लू था। इसके बाद थे मैना, कठफोड़वा, गौरेया और बुलबुल।

कीड़ों के बारे में तो बच्चों ने सीधे पूछे जाने पर ही कोई बात कही। तिस पर भी आठ साल के सिर्फ 13 बच्चों ने ही कीड़ों के नाम बताए। मज़ेदार बात यह थी कि इनमें सबसे लोकप्रिय थी मकड़ी। जो कीड़ा है ही नहीं! दसवें साल तक आते-आते ये बच्चे इसी श्रेणी में कुछ और ऐसे बिना रीढ़ वाले जानवरों को गिना देते थे जो कीड़े नहीं थे। पर इन को भी इन जीवों के नामों के अलावा कोई ज़्यादा पहचान नहीं थी इनकी।

बहुत ही कम बच्चों ने बगैर सुझाव के पेड़-पौधों का ज़िक्र किया। सुझाने पर भी आठ साल के बच्चे तब तक बार-बार ‘फूल’, ‘पत्तियां’ और पेड़। कहते रहे जब तक कि उन्हें साफ-साफ मिसाल गिनाने को नहीं कहा जाता। दस  साल वाले समूह की स्थिति कुछ बेहतर थी पर यहां भी पेड़ों के नाम तो चंद ही सामने आए। बच्चों ने सबसे ज़्यादा ओक का नाम लिया। आठ साल वाले तीन बच्चों का यह ख्याल था कि ओक और एकार्न (ओक के फल) के पेड़ अलग-अलग होते हैं। दोनों ही समूह के बच्चों ने पेड़ों को पेड़ के नाम से कम, उनके फलों के नाम से ही ज़्यादा पहचाना। (हमारे यहां तो यूं भी पेड़ों को फलों के नाम से ही जाना जाता है जैसे आम, पपीता, जामुन आदि। पर अंग्रेज़ी में अधिकतर पेड़ों के नाम और उनके फलों के नाम जुदा-जुदा होते हैं।)

झाड़ियों और छोटे पौधों का ज़िक्र तो बगैर सुझाए न के बराबर होता था। जब सीधे सुझाव के बाद कुछ नाम उभरे तो वे भी जंगली न होकर मैदानी क्षेत्र के पेड़ थे।

अगर तुम जंगल में जाओ तो तुम्हें वहां कौन-से जानवर मिलेंगे?
(रीढ़ वाले जानवर)

 3. गिलहरी का खान-पान और आदतें  
आठ साल वाले सभी बच्चों ने कहा कि गिलहरियां मूंगफली और बादाम खाती हैं और लोमड़ी उनका शिकार करती है। कुछ बड़े बच्चों ने शिकारी पक्षियों जैसे उल्लू आदि का ज़िक्र किया। अक्सर गिलहरियों के खान-पान की ज़रूरतों के हिसाब से हुए बदलावों में दांत और पंजे गिनाए जाते। इनके छुपे रहने और जल्दी भाग जाने की आदत को बच्चों ने शिकारी जानवरों से बचने के तरीकों के रूप में पहचाना।

इस जांच-पड़ताल से कुछ तो ऐसी ही प्रवृत्तियां पहचानी जा सकीं जिनकी हमें अपेक्षा थी। जैसे जानवरों का ज़िक्र करो तो जो नाम सबसे पहले बच्चों के ज़हन में आते हैं वे स्तनधारियों के ही होते हैं। इनके बाद बारी आती है रीढ़ वाले जानवरों की और फिर बिना रीढ़ वालों की। इसी तरह पेड़-पौधों की बनिस्बत जानवरों को ही ज़्यादा आसानी से जीवितों की श्रेणी में याद रखा जाता है।

कुछ परिणामों की तो हमने कल्पना भी नहीं की थी और इन्होंने हमें काफी चौंका दिया। मसलन बच्चों में बड़े पेड़ों, छोटे पौधों और कीटों, खासकर तितलियों के बारे में जानकारी की कमी। छात्रों को सीधे सुझाव देने पर भी हमें ऐसे कोई संकेत नहीं मिले कि उनके पास इनके बारे में कोई जानकारी है। दूसरी बात जो अचंभित करती है वह यह कि आठ साल की उम्र और उस साल की उम्र के बीच बच्चों में जानकारी और समझ का विकास भी बहुत ही सीमित होता है।

परिणाम और उनसे क्या मिला
हमारे परिणामों ने हमें यह सोचने पर महबूर किया कि तीसरी, चौथी कक्षा में और उससे पहले भी प्राथमिक शाला की पढ़ाई के दौरान अपने पर्यावरण, पौधों और पशुओं के बारे में जानकारी और समझ बढ़ाने पर दिए जाने वाले ज़ोर का क्या अर्थ है? परिणाम यह भी बताते हैं कि उच्चतर शाला के छात्रों की अपने क्षेत्र में मौजूद पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों से लेकर बहुत आम पौधों और जानवरों से भी बेइंतहा सीमित वाकफियत है। अगर इसी तरह के ही परिणाम और भी ऐसी ही जांच-पड़ताल से सामने आते हैं या फिर इनकी तुलना ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले बच्चों से कर के देखा जाए तो शायद हमें तत्काल कार्यवाही की ज़रूरत समझ में आए। कुछ ऐसी कार्यवाही जिससे भविष्य की पीढ़ियों में अपनी कुदरती धरोहर की जानकारी और उसके प्रति रूझान की क्षति को दूर या कम किया जा सके। जहां आजकल सभी पाठ¬क्रमों को पर्यावरण से जोड़ते और पर्यावरण शिक्षा की बात ज़ोर-शोर से चल रही है, वहां शायद यही सही वक्त हे कि हम अपने राष्ट्रीय पाठ¬क्रम के इन तत्वों की ओर गम्भीरता से देखें और प्राथमिक शालाओं में पहले प्रचलित परिभ्रमण और अपने पर्यावरण के बारीक अवलोकन व अध्ययन की ओर वापस रुख करें।


यह सर्वेक्षण-विश्लेषण ब्रिाटेन के रोजर लोक, डेबी के. और हेलन मेसन द्वारा किया गया। स्कूल साइंस रिव्यू के जून 1995 अंक से टुलटुल विश्वास द्वारा अनुदित।