रश्मि पालीवाल

सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम में सरकार के ढांचे के विभिन् न पहलू अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। सरकार क्या है; कैसे बनती है; कैसे काम करती है आदि मुद्दों पर बच्चों की समझ विकसित करना निस्संदेह ज़रूरी है। पर यह कहना जितना आसान है करना उतना सहज कदापि नहीं।

राज्य सरकारी, केन्द्र सरकार, विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका आदि बिन्दुओं पर लिखे पाठ आपने भी कई कक्षाओं की पाठ्य-पुस्तकों में पढ़े होंगे। उनका मूल खाका एक-सा ही होता है। कक्षा आठ के कुछ बच्चों से चर्चा करने पर हमें लगा कि ये पाठ बच्चों की समझ की कई गांठों को छू ही नहीं पाते। बहुत विधिवत देने के बावजूद वे पुख्ता अवधारणा बनाने की दिशा में कमज़ोर पड़ जाते हैं। सरकार के ढांचे को बूझने में समझ का सूत्र कहां-कहां उलझ सकता है? चलिए यहां दी गई तीन चर्चाओं से भांपने की कोशिश करते हैं। मैंने कक्षा-8 के गौरीशंकर के साथ अलग से बैठकर बातचीत की। उसने केन्द्र सरकार का पाठ कक्षा में पढ़ा हुआ था।

— “यह बताओ कोई प्रधानमंत्री कैसे बनता है?”

— “जनता वोट डालेगी।”

— “फिर?”

— “जब दोनों पक्ष बराबर होंगे तो राष्ट्रपति वोट डालेगा। राष्ट्रपति चुन के उनमें से किसी को भी बना देगा।”

— “उदाहरण के लिए, अभी प्रधानमंत्री किस पार्टी का है?”

— “कांग्रेस का।”

— “क्या नाम है उसका?”

— “पी.वी. नरसिंहराव।”

— “ठीक है तो एक पक्ष कांग्रेस का है तो दूसरा पक्ष कौन-सा है?”

— “जनता पार्टी है।”

— “अच्छा, तो प्रधानमंत्री जनता पार्टी का नहीं बना?”

— “नहीं।”

— “क्यों नही बना?”

— “क्योंकि वो हार गई।”

— “हार गई मतलब?”

— “वो वोट से हार गए।”

— “पर उनके कुछ लोग तो हैं संसद में। फिर उनमें से क्यों नहीं प्रधानमंत्री बनाया गया?”

— “जी उनको राष्ट्रपति ने नहीं चुना।”

— “राष्ट्रपति ने किसे चुना?”

— “प्रधानमंत्री को।”

— “तो कांग्रेस पार्टी से चुन लिया?”

— “जी।”

— “जनता पार्टी से क्यों नहीं चुना?”

— ... (चुप्पी)

— “अच्छा चलो अपनी किताब में पढ़कर देखो।

उसने मंत्रिमण्डल के गठन वाला अंश किताब खोलकर पढ़ा।”

— “क्या बात बताई है इसमें? अपने-आप बताओ ज़रा।”

— प्रधानमंत्री जब चाहे किसी को मंत्री बना सकता है। चाहे तो किसी को हटा भी सकता है।

— “हुं, किसी को भी मंत्री बना सकता है? प्रधानमंत्री चाहे तो मुझे बना सकता है?”

— “बना सकता है।”

— “मतलब कैसे? क्या ऐसा हो सकता है कि कल मेरे पास प्रधानमंत्री की एक चिट्ठी आ जाए - मैं आपको अपना मंत्री बना रहा हूं...।”

— “हां जी। यदि आपका काम अच्छा है तो प्रधानमंत्री आपको मंत्री बना रहने देगा। आपका कार्य गलत है तो हटा देगा।”

— मुझे कोई चुनाव नहीं लड़ना पडेगा मंत्री बनने के लिए?

— “नहीं जी - क्योंकि प्रधानमंत्री चाहे जिसे रख सकता है। आपका कार्य अच्छा होगा तो आपको उसी पद पर रहने देगा, नहीं तो हटा देगा।

— “अच्छा? बिल्कुल प्रधानमंत्री के ऊपर है? वह चाहे जिसको भी मंत्री बनाए?”

— “हां...।”

— “ऐसा नहीं है कि मुझे संसद सदस्य बनना होगा...तभी मैं मंत्री बनी रह सकती हूं... ऐसा ...है कि नहीं?

— “यह है तो... पर।”

— “अच्छा यह बताओ कि मंत्री संसद के सदस्य होते हैं या नहीं?”

— “होते हैं...।”

— “और संसद क्या होती है?”

— “यहां कानून बनाए जाते हैं गल्तियों को सुधारा जाता है।”

— “संसद में जो 512 लोग हैं - वे चुनाव जीतकर संसद में पहुंचे हैं। वे सब एक ही पार्टी के होंगे या अलग-अलग पार्टी के?”

— “एक ही पार्टी के।”

— “512.....सारे-के-सारे?”

— “जी हां।”

— “अभी कौन-सी पार्टी के संसद सदस्य हैं?”

— “कांग्रेस के।”

— “सारे?”

— “जी हां।”

— “जनता पार्टी के नहीं हैं?”

— “हैं कुछ ...जो...”

— “अच्छा इन 512 सदस्यों में से प्रधानमंत्री को कैसे चुना राष्ट्रपति ने?”

— “512 ने वोट डाले...”

पार्टीगत राजनीति और संसदीय प्रणाली का संबंध गौरीशंकर को उलझाए हुए है। इसी तरह प्रधानमंत्री की मंत्रियों को चुनने की स्वतंत्रता को संसद के सदस्य होने की बाध्यता के साथ गौरीशंकर संतुलित नहीं कर पा रहा है। जब हम कहते हैं कि कोई अवधारणा पेचीदगी लिए है - तो उसका मतलब ऐसा ही कुछ निकलता है जैसा यहां आए उदाहरणों से स्पष्ट हो रहा है। सीधी सटीक जानकारी देने के उद्देश्य से लिखे पाठ किसी अवधारणा की पेचीदगियों का खुलासा नहीं कर सकते। हर अवधारणा की पेचीदगियों को खास ध्यान में रखते हुए ठोस उदाहरणों को चुनना होगा और उनके माध्यम से ही पाठों में चर्चा करनी होगी।

सरकार के ढांचे से संबंधित कुछ और विकट पहलू हैं। जैसे लोकसभा व राज्यसभा की भूमिका में फर्क। आगे जो चर्चाएं प्रस्तुत हैं, वे ऐसे ही पहलुओं को सामने लाती हैं।

मैंने गौरीशंकर के साथ अलग से बैठकर जैसी बातचीत की थी, वैसी ही राजेन्द्र और सरला के साथ भी की।

सरकार के बारे में चर्चा करने में राजेन्द्र गौरीशंकर से कहीं ज़्यादा सहज और आत्मविश्वासी है। मैंने उसके साथ भी पहले जैसे ही बातचीत शुरू की।

— “कोई प्रधानमंत्री कैसे बनता है?”

— “राष्ट्रपति नियुक्त करता है।”

— “किसी को भी?”

— “नहीं, जो लोकसभा के सदस्य होते हैं उनमें से।”

— “लोकसभा में तो 545 सदस्य होते हैं। इनमें से किसी को भी वह प्रधानमंत्री बना सकता है?”

— “जिसके अधिक वोट होंगे उसको।”

— “मतलब? किससे अधिक वोट होंगे?”

— “राष्ट्रपति सदस्यों के वोट लेगा। लोकसभा व राज्यसभा के वोट लेगा...कि आप किसको प्रधानमंत्री बनाते हैं? जिसको वो चुनेंगे उसे ही नियुक्त कर देगा।”

— “फिर प्रधानमंत्री, मंत्री चुनेगा। पर ऐसे लोगों को जिसे लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त हो।”

बहुमत का विश् वास यह बात संपूर्ण पार्टी के लिए लागू होती है। उसके हरेक सांसद के लिए अलग-अलग नहीं। यह व्यक्तिगत मसला नहीं; दलगत मसला है। पर क्यों? जिस भी व्यक्ति को सबसे अधिक सदस्य पसंद करें उसे मंत्री बनना ही चाहिए। नहीं भाई... सरकार बनाना दलीय बहुमत का मामला है। व्यक्तिगत लोकप्रियता का नहीं। यह एक और तरह की पेचीदगी है।

और आखिर में, सरलता से हुई बातचीत पर गौर से फरमाइए।

— “सरकार में कौन होता है? बताओगी?

— ..... चुप्पी

— “अच्छा मुख्यमंत्री जानती हो? मुख्यमंत्री क्या होता है?”

— ..... चुप्पी-और परेशानी भरी कसमसाहट।

— “चलो पाठ पढ़कर देखते हैं क्या-क्या लिखा है।”

राज्ससभा-लोकसभा वाला अंश सरला पढ़ लेती है।

— “हां, तो राज्यसभा क्या हुई? क्या बताया है यहां?”

— “यह चुनी जाती है।”

— “ठीक। किसके द्वारा चुनी जाती है?”

— “लोगों द्वारा...”

— “अच्छा। क्या अपने गांव में वोट पड़ते हैं राज्यसभा के लिए?”

— “जी हां।”

— “और, लोकसभा के लिए भी?”

— ........... चुप्पी..............

— “अच्छा, यह बताओं, ये लोकसभा और राज्यसभा एक ही चीज़ है या अलग-अलग है?”

— “एक ही चीज़ है।”

— “अच्छा। चलो अब पाठ में से आगे पढ़कर देखते है।”

सरला केन्द्र व प्रान्त सरकार के बीच काम के विभाजन से संबंधित तीन सूचियों के बारे में लिखी पंक्तियां पढ़ती है।

— “प्रान्त सरकार किन चीज़ों पर कानून बना सकती है, सरला?”

— ............चुप्पी............

— “प्रान्त सरकार है कहां? इसकी राजधानी कहां है?”

— “अच्छा कौन-सी सरकार बड़ी है; केन्द्र की या प्रान्त की?”

— “केन्द्र सरकार।”

— “वाह। बढ़िया क्यों बड़ी है?”

— “क्योंकि केन्द्रों की सरकार है।”

— “केन्द्र कहां है? यानी केन्द्र सरकार कहां काम करती है?”

— ...........चुप्पी...............

— “दिल्ली में कौन-सी सरकार बैठती है?”

— “प्रान्त सरकार।”

— “अच्छा अभी अपने प्रधानमंत्री कौन हैं, उनका नाम जाती हो?”

— “पी.वी. नरसिंहराव।”

— “हां। वे कैसे बन गए प्रधानमंत्री?”

— “लोकसभा और राज्यसभा के द्वारा बन गए।”

— “अच्छा। समझाओं तो कैसे बने वे प्रधानमंत्री?”

— “कोई वोट करेगा...कोई बोलेगा कि ये प्रधानमंत्री बन जाए... कोई बोलेगा कि न बने। आधे से ज़्यादा बोलेंगे कि ये बन सकते हैं तो बनेंगे।” 

— “हां। अच्छा बताया तुमने। अच्छा लोकसभा में कौन लोग होते हैं? क्या सभी लोग एक पार्टी के होते हैं।”

— “जी हां।”

— “अभी किस पार्टी के प्रधानमंत्री हैं?”

— “जनता पार्टी के।”

— “नहीं यह तो ठीक नहीं है। पी.वी. नरसिंहराव तो कांग्रेस पार्टी के हैं या सिर्फ जनता पार्टी के या दोनों के?”

— “सिर्फ जनता पार्टी के हैं।”

गौरीशंकर और राजेन्द्र की तुलना में सरला को सरकार के पूरे मुद्दे में ही काफी ज़यादा अरुचि है। ये तीनों बच्चे किसी कक्षा में मौजूद विभिन्नताओं का एक नज़ारा प्रस्तुत करते हैं। संभव है यह लेख पढ़ते हुए आपके मन में आपके शिक्षण अनुभव भी ताज़े हो उठे हों। क्या कुछ सुझाव भी मन में उठते हैं? पाठ् यक्रम पर, पाठ् य-पुस्तकों पर या शिक्षण - विधि पर? अपनी प्रतिक्रियाएं भेजिए ताकि शिक्षण की वास्तविकताओं से सामना करते हुए हम विकल्पों को खोज सकें।


रश्मि पालीवाल - एकलव्य के सामाजिक अध्ययन शिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध


एक विधायक की कहानी

कौशलपुर एक काल्पनिक जगह है। इस कहानी में पार्टी और लोग भी काल्पनिक हैं। लेकिन विधायक चुनने का तरीका, नियम तय करने के तरीके, जो इस कहानी में बताए गए हैं, वे सब सही हैं।

कौशलपुर क्षेत्र में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। पांच पार्टियां चुनाव लड़ रही हैं। उन्होंने अपने चुनाव प्रत्याशी या उम्मीदवार तय कर लिए हैं। सबसे ताकतवर पार्टियां हैं मध्य भारत दल और महाकौशल संघ। मध्य भारत दल से चुनाव लड़ रहे हैं, विलासभाई और महाकौशल संघ से रामप्रसादजी। कुछ निर्दलीय उम्मीदवार भी हैं, जो किसी पार्टी के सदस्य नहीं हैं। कौशलपुर क्षेत्र से चुनाव के लिए कुल 8 उम्मीदवार या प्रत्याशी हैं - 5 पार्टियों के और तीन निर्दलीय।

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चुनाव 25 सितम्बर को होने वाले हैं। 15-20 दिन पहले ही चुनाव-प्रचार शुरू हो गया - लाउड-स्पीकर, जीप, तांगे, आमसभाएं। हर पार्टी के उम्मीदवार आश्वासन देते हैं। कोई कहता है, “हम महंगाई कर करेंगे।” तो कोई कहता है, “हम ज़मीन दिलवाएंगे।” और तीसरा कहता है, “हम मज़दूरी बढ़वाएंगे।” उम्मीदवार दूसरी पार्टी के सदस्यों की आलोचना भी करते हैं। 24 तारीख तक