पादप-प्लवक अपने जलीय पर्यावरण से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित कर लेते हैं इसलिए सुझाव है कि यदि समुद्रों में कृत्रिम रूप से लौह तत्व उपलब्ध करा दिया जाए तो पादप-प्लवक तेज़ी से फले-फूलेंगे और अपनी वृद्धि के लिए अधिक कार्बन डाईऑक्साइड सोखेंगे और वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में कमी आ सकती है। पर्यावरणविद इस रणनीति का विरोध कर रहे हैं और इसे भू-इंजीनियरिंग का उतावलापन बता रहे हैं।
लेकिन यह जल्द ही अमल में आ सकती है। पिछले हफ्ते समुद्र वैज्ञानिकों के एक पैनल ने कहा है कि इस तरह ‘लौह उर्वरण' के प्रयोग ज़रूरी हैं, और यूएस से 29 करोड़ डालर खर्च करने का आह्वान किया है ताकि 1000 वर्ग किलोमीटर समुद्र में 100 टन लौह छिड़का जा सके।
पृथ्वी की बदलती जलवायु से निपटने के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के प्रयास चल रहे हैं। लेकिन कई वैज्ञानिकों का मानना है कि गंभीर जलवायु परिवर्तन को थामने के लिए हमें नेगेटिव एमिशन टेक्नॉलॉजी का भी उपयोग करना चाहिए जो हवा से कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों को सोख लें। थलीय योजनाओं में तो अरबों डॉलर खर्च किए गए हैं, लेकिन इस मामले में समुद्र अपेक्षाकृत अछूते रहे हैं। वैसे तो समुद्र पहले ही मानव गतिविधियों से उत्सर्जित लगभग एक-तिहाई कार्बन सोख चुके हैं लेकिन वैज्ञानिकों को लगता है कि अभी और क्षमता बाकी है।
वैसे पैनल ने तटीय पारिस्थितिक तंत्रों के पुनर्वास, बड़े पैमाने पर समुद्री शैवाल उगाने, और समुद्र में गहराई से पोषक तत्व ऊपर लाकर प्लवक उत्पादन को बढ़ावा देने जैसे सुझाव भी दिए हैं। महंगे विकल्पों में बिजली की मदद से समुद्री जल से कार्बन डाईऑक्साइड निकाल कर ज़मीन में अंदर डालना; और चट्टानों के चूरे को समुद्र में फैलाकर इसे अधिक क्षारीय बनाकर कार्बन सोखने की क्षमता को बढ़ाना शामिल है।
लौह उर्वरण एक सस्ता विकल्प है। प्रकाश संश्लेषक प्लवक वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड सोख लेते हैं। उनके फलने-फूलने के लिए लौह तत्व उन्हें कई स्रोतों से मिलता है। लेकिन लौह की कमी के कारण उनकी वृद्धि में कमी आती है। अतिरिक्त लौह उनकी वृद्धि में मदद करेगा और वे अधिक कार्बन सोखेंगे। यह अंतत: समुद्र की गहराई में चला जाएगा और वहां सदियों तक पड़ा रहेगा।
लेकिन कई अगर-मगर हैं। जैसे, वास्तव में कितना अवशोषित कार्बन समुद्र में बना रहेगा? अन्य जीव इसका उपभोग करके इसे कार्बन डाईऑक्साइड के रूप में वापस उत्सर्जित कर सकते हैं। यह सवाल भी है कि इस प्रक्रिया की निगरानी कैसे की जाएगी?
कहा जा रहा है कि यदि कार्बन का 10 प्रतिशत भी गहराई में बना रहता है तो रणनीति कारगर होगी। लेकिन पिछले प्रयोगों के एक आकलन में देखा गया है कि इनमें से सिर्फ एक ने गहराई में कार्बन का स्तर बढ़ाया था। गौरतलब है कि अगले साल गर्मियों में भारत के इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन स्टडीज़ द्वारा अरब सागर के एक हिस्से में लौह की परत चढ़ी चावल की भूसी फैलाने की योजना है। (स्रोत फीचर्स)
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