डॉ. अमिताभ जोशी

यदि किसी चीज़ के देखे जाने का कोई रिकॉर्ड नहीं है, तो मात्र इस आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि वह चीज़ हुई ही न होगी।
संचार माध्यमों में हाल ही में यह खबर आई है कि भारत सरकार के मानव संसाधान विकास मंत्रालय के माननीय राज्य मंत्री डॉ. सत्यपाल सिंह ने जैव विकास के सिद्धांत को खारिज कर दिया है। माननीय मंत्री जी ने यह टिप्पणी औरंगाबाद में पत्रकारों से चर्चा के दौरान की। वे वहां अखिल भारतीय वैदिक सम्मेलन में शिरकत कर रहे थे। मंत्री जी के कार्यालय (@OfficeOfSPS) ने एक ट्वीट में इन टिप्पणियों का वीडियो भी जारी किया है।

हिंदी में बोलते हुए डॉ. सिंह ने कहा कि पिछले कई हज़ारों-लाखों सालों में हमारे पूर्वजों ने किसी बंदर के मनुष्य बनने के बारे में न कभी लिखा, न कहा। इसलिए, डॉ. सिंह के मुताबिक, जैव विकास के बारे में डारविन का सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से गलत है क्योंकि कभी किसी ने बंदर को मनुष्य में तबदील होते नहीं देखा है और आदमी जब से धरती पर आया है, तब से वह आदमी ही है और हमेशा ऐसा ही रहेगा।
उन्होंने कहा कि स्कूल और कॉलेजों की पाठ पुस्तकों में बदलाव किए जाने चाहिए ताकि यह बात उनमें झलके। इसके बाद आगे बढ़ते हुए उन्होंने यह भी बताया कि शायद श्रोताओं में से कई लोग यह नहीं जानते होंगे कि विदेशों में वैज्ञानिकों ने 35 साल पहले यह स्थापित कर दिया था कि जैव विकास की धारणा में कोई सच्चाई नहीं है।

जो कुछ डॉ. सिंह ने कहा, वह कई स्तरों पर गलत है। दरअसल, उनकी बातें तर्क और जीव विज्ञान दोनों को अस्वीकार करती हैं। पहला, कि जैव विकास के सामान्य तथ्य और वह कैसे होता है को लेकर दुनिया भर के वैज्ञानिकों के बीच सहमति है। और तो और, मनुष्यों तथा मनुष्य-सदृश प्राणियों में प्रमुख बदलावों की समयरेखा को लेकर भी आम सहमति है। निसंदेह, वैकासिक जीव विज्ञान (इवॉल्यूशनरी बायोलॉजी) के अंतर्गत कई बातों को लेकर मतभेद है, बहसें हैं, जैसा कि विज्ञान की किसी भी शाखा में होता है। किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि जैव विकास के डारविनवादी नज़रिए के मूलभूत तत्वों को लेकर कोई विवाद है। इस बात का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है कि जैव विकास की डारविन की व्याख्या गलत है। भारतीय वैज्ञानिकों समेत दुनिया भर के वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में बार-बार वैकासिक परिवर्तनों का अवलोकन करते हैं। इनमें वे परिवर्तन भी शामिल हैं जो प्रजनन-पृथक्करण के ज़रिए प्रजाति निर्माण के पहले कदम होते हैं।

मैं यह भी नहीं समझ पा रहा हूं कि 35 साल पहले वे कौन से प्रमाण प्रस्तुत किए गए थे जिन्होंने एक जीव वैज्ञानिक अवधारणा के तौर पर जैव विकास को गलत साबित कर दिया था। मैं सिर्फ अनुमान लगा सकता हूं कि डॉ. सिंह शायद 1970 के दशक में ‘खंडित साम्यावस्था’ यानी पंक्चुएटेड इकव्लिब्रिायम की धारणा को लेकर चली बहस की बात कर रहे हैं। वास्तव में यह एक तकनीकी दलील थी और इसका सम्बंध इस बात से था कि क्या वैकासिक परिवर्तन प्राय: धीमी गति से निरंतर होते रहते हैं अथवा ये तेज़ गति से होते हैं और बीच-बीच में अपेक्षाकृत कम परिवर्तनों की अवधियां होती हैं। यदि वास्तव में डॉ. सिंह इसी बहस की बात कर रहे हैं, तो ज़ाहिर है उन्होंने इस बहस की प्रकृति को समझा ही नहीं है।

इसके अलावा, तार्किक रूप से कहें, तो यदि किसी चीज़ के देखे जाने का कोई रिकॉर्ड नहीं है, तो मात्र इस आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि वह चीज़ हुई ही न होगी। किंतु इससे भी ज़्यादा अचरज तो डॉ. सिंह की इस अपेक्षा पर होता है कि हमारे पूर्वजों, जो मनुष्य ही रहे होंगे क्योंकि डॉ. सिंह उनसे अवलोकन करके लिखने-बोलने की अपेक्षा रखते हैं, ने बंदरों को मनुष्य में बदलते देखा होगा जबकि वे स्वयं पहले ही मनुष्यों में बदल चुके होंगे। जैव विकास के डारविनी नज़रिए को इस रूपक के तौर पर प्रस्तुत करना निहायत गलत है कि बंदर मनुष्यों में बदल जाते हैं। वैकासिक जीव विज्ञान कहता है कि मनुष्य, और सारे ऐप्स और प्रायमेट्स (बंदरों समेत) किसी एक साझा पूर्वज से विकसित हुए हैं और यह घटना वैकासिक इतिहास में अपेक्षाकृत हाल में ही हुई है। इस बात के पक्ष में प्रेक्षणीय प्रमाण काफी ज़ोरदार हैं। इनमें डीएनए अनुक्रम के आंकड़ों के आधार पर हमारे वैकासिक क्रम का पुनर्निर्माण शामिल है। इसके अलावा, आबादी-आधारित आणविक जेनेटिक्स ने मज़बूत प्रमाण उपलब्ध कराए हैं। ये दोनों शाखाएं जैव-चिकित्सकीय जीनोमिक्स के मूल में हैं और हमारे देश की सरकार इस शाखा को प्रोत्साहन देने के लिए खूब निवेश कर रही है।

माननीय मंत्री की टिप्पणियां डारविनी दृष्टिकोण के तहत भारतीय वैज्ञानिकों के महत्वपूर्ण योगदान के मद्दे नज़र भी निराशाजनक हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में नए ज्ञान के सृजन में बढ़-चढ़कर योगदान दिया है। भारतीय वैकासिक जीव वैज्ञानिकों ने वैकासिक जीव विज्ञान की हमारी समझ को आगे बढ़ाते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य अवधारणात्मक व प्रायोगिक शोध कार्य किया है। इनमें कीटों और पौधों का सह-विकास, पालक-संतान टकराव, संकरीकरण और नस्ल निर्माण, सामाजिकता का विकास, प्रतिस्पर्धात्मक क्षमताओं का विकास, भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न जंतु समूहों के विकास का इतिहास, जीनोम स्तर पर लैंगिक टकराव और बदलते पर्यावरण में विकास जैसे मुद्दे शामिल हैं। पिछले वर्ष ही भारत सरकार के विज्ञान व टेक्नॉलॉजी विभाग ने विकास सिद्धांत के ‘केंद्रीय’ अवधारणात्मक ढांचे की वर्तमान बहस में भारतीय वैकासिक जीव वैज्ञानिकों के योगदान को रेखांकित किया था।

प्रसंगवश, यह बताया जा सकता है कि 2006 में एक अंतरअकादमीय पैनल ने ‘जैव विकास शिक्षण पर वक्तव्य’  जारी किया था जिसे दुनिया भर की 67 विज्ञान अकादमियों का समर्थन हासिल है। इंडियन एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ और इंडियन नेशनल एकेडमी इस वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने वालों में शामिल थीं। इस वक्तव्य के शुरू में अकादमियों ने अपनी चिंता इन शब्दों में जताई थी:

“हम अधोहस्ताक्षरकर्ता विज्ञान अकादमियों को यह ज्ञात हुआ है कि दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कतिपय सार्वजनिक शिक्षा प्रणालियों में पढ़ाए जाने वाले विज्ञान पाठ¬क्रमों के अंतर्गत पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति व विकास सम्बंधी वैज्ञानिक प्रमाण, आंकड़े, और परीक्षण योग्य सिद्धांतों को छिपाया जा रहा है, खारिज किया जा रहा है या ऐसे सिद्धांतों के साथ उनकी खिचड़ी बनाई जा रही है, जिनका विज्ञान द्वारा परीक्षण संभव नहीं है। हम निर्णयकर्ताओं, शिक्षकों और पालकों से आग्रह करते हैं कि वे सारे बच्चों को विज्ञान की विधियों तथा खोजों में शिक्षित करें और प्रकृति के विज्ञान की समझ को बढ़ावा दें। प्राकृतिक विश्व, जिसमें वे रहते हैं, के बारे में ज्ञान लोगों को मानवीय ज़रूरतों की पूर्ति तथा (पृथ्वी) ग्रह की सुरक्षा के प्रति सशक्त बनाता है।

हम सहमत हैं कि पृथ्वी की उत्पत्ति और विकास तथा इस ग्रह पर जीवन की उत्पत्ति व विकास के बारे में निम्नलिखित प्रमाण-आधारित तथ्य हैं जो अनगिनत अवलोकनों से स्थापित हो चुके हैं तथा विविध वैज्ञानिक विषयों से प्राप्त प्रायोगिक परिणामों से व्युत्पन्न किए जा चुके हैं। हो सकता है कि वैकासिक परिवर्तन की बारीकियों के बारे में आज भी कुछ सवाल खुले हों, किंतु वैज्ञानिक प्रमाणों ने इन निष्कर्षों का कभी खंडन नहीं किया है:
1. ब्रह्मांड अपने वर्तमान स्वरूप में 11-15 अरब वर्षों में विकसित हुआ है, उसमें हमारी पृथ्वी लगभग 4.5 अरब वर्ष पूर्व बनी थी।
2. अपने निर्माण के बाद से, पृथ्वी, उसका भूगर्भ और पर्यावरण विभिन्न भौतिक व रासायनिक प्रभावों के कारण बदलते रहे हैं और आज भी बदल रहे हैं।
3. पृथ्वी पर जीवन कम से कम 2.5 अरब वर्ष पूर्व प्रकट हुआ था। इसके फौरन बाद प्रकाश संश्लेषी जीवों के विकास ने कम से कम 2 अरब वर्ष पूर्व से वायुमंडल को धीमे-धीमे बदलने में मदद दी और आज यह एक ऐसा वातावरण है जिसमें पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन उपस्थित है। प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया वह ऑक्सीजन उपलब्ध कराती है जिसमें सांस लेते हैं। इसके अलावा प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया ही सारी स्थिर ऊर्जा का अंतिम स्रोत है जिस पर हमारे ग्रह का जीवन, मानव सहित, निर्भर है।
4. पृथ्वी पर सबसे पहले प्रकट होने के बाद से जीवन ने कई रूप अख्तियार किए हैं और इन सबका विकास आज भी जारी है। इस विकास का विवरण हमें जीवाश्म विज्ञान और आधुनिक जीव वैज्ञानिक व जैव-रासायनिक विज्ञानों के ज़रिए मिलता है और ये स्वतंत्र रूप से बढ़ती सटीकता के साथ इसकी पुष्टि कर रहे हैं। आज जीवित सारे जीवधारियों (मनुष्य समेत) के जेनेटिक कोड में समानताएं स्पष्ट रूप से बताती हैं कि इनकी उत्पत्ति एक साझा आदिम रूप से हुई है।”

सृष्टिवादी लोग, खास तौर से यूएस के सृष्टिवादी, कई वेबसाइट्स चलाते हैं जहां यह बताने की कोशिश की जाती है कि वैकासिक जीव विज्ञान मात्र एक सिद्धांत (अटकल) है जिसे वैज्ञानिक समुदाय में व्यापक स्वीकृति हासिल नहीं है। कुछ लोग, जो डॉ. सिंह की विश्व दृष्टि से इत्तफाक रखते हैं, वे प्राय: ट्वीट्स में इस हठ के समर्थन में इन्हीं वेबसाइट्स का संदर्भ देते हैं।

भारतीय विज्ञान अकादमी, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी तथा राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, इंडिया का संयुक्त वक्तव्य

बताया गया है कि माननीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री श्री सत्यपाल सिंह ने कहा है कि “हमारे पूर्वजों सहित किसी ने भी कभी यह कहा या लिखा नहीं है कि उन्होंने बंदर को मनुष्य में परिवर्तित होते हुए देखा है। डार्विन का (मनुष्य के जैव-विकास का) सिद्धान्त वैज्ञानिक रूप से गलत है। अत: इसे विद्यालयों तथा महाविद्यालयों के पाठ¬क्रम में बदलना होगा।”

तीनों विज्ञान अकादमियां यह कहना चाहती हैं कि मंत्री महोदय के कथन का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। जैव विकास का सिद्धान्त (Theory of Evolution), जिसमें डारविन ने महान योगदान दिया है, सुस्थापित है। जैव विकास के मूल तथ्यों के बारे में कोई वैज्ञानिक मतभेद नहीं है। यह एक ऐसा वैज्ञानिक सिद्धान्त है जिसने ऐसी कई भविष्यवाणियां की हैं जिनका अनेकों बार प्रयोगों तथा निरीक्षणों के द्वारा पुष्टिकरण किया जा चुका है। जैव विकास के सिद्धान्त की एक महत्वपूर्ण अन्तदृष्टि यह है कि मनुष्य तथा अन्य बंदरों सहित इस ग्रह के सभी प्राणियों का विकास एक या कुछ साझा पैतृक प्रजनकों (common ancestral progenitors) से हुआ है।

विद्यालयों तथा महाविद्यालयों के पाठ¬क्रमों से जैव विकास के सिद्धान्त की पढ़ाई को निकाल देना या उसे किसी अन्य अवैज्ञानिक व्याख्याओं या कल्पित गाथा से अपमिश्रित करना, एक बहुत ही पश्चगामी कदम होगा।
चाल्र्स डारविन द्वारा प्रतिपादित और उनके बाद विकसित एवं विस्तारित प्राकृतिक चयन द्वारा जैव विकास के सिद्धान्त का आधुनिक जीव विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान तथा संपूर्ण विज्ञान पर महान प्रभाव रहा है। पूरे विश्व में इसका समर्थन किया जाता है। उदाहरण के लिए देखें: http://www.nas.edu/evolution/TheoryOrFact.html

ऐसे ट्वीट्स में एक संदर्भ एक ऐसे आलेख का है जिसका शीर्षक गुमराह करने वाला है: “ओव्हर 500 साइन्टिस्ट प्रोक्लेम देयर डाउट्स अबाउट डारविन्स थियरी ऑफ इवॉल्यूशन” (अर्थात 500 से ज़्यादा वैज्ञानिकों ने डारविन के सिद्धांत के प्रति अपने शंकाएं जतार्इं)। दरअसल, यह आलेख एक पुराने वक्तव्य का संदर्भ देकर लिखा गया है जिसमें ऐसे कुछ वैज्ञानिकों की सूची है जिन्होंने निम्नलिखित वक्तव्य पर हस्ताक्षर किए थे: “हम बेतरतीब उत्परिवर्तनों और प्राकृतिक वरण के आधार पर जीवन की जटिलता की व्याख्या करने की क्षमता को लेकर शंकित हैं। डारविनी सिद्धांत के पक्ष में उपलब्ध प्रमाणों की सावधानीपूर्वक छानबीन की जानी चाहिए।” कई वैज्ञानिकों ने इस सूची की आलोचना भी की है। ऐसी वेबसाइट्स छोटे-छोटे परिवर्तनों पर प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया और जैव विकास के क्रम को प्रभावित करने वाले उत्परिवर्तन सम्बंधी पूर्वाग्रहों के बीच चल रही संकीर्ण तकनीकी बहस को ऐसे दर्शाती हैं गोया यह डारविन के दृष्टिकोण की व्यापक अस्वीकृति हो।

यह भी संभव है कि आप ऐसी सृष्टिवादी वेबसाइट्स से गुमराह हो जाएं किंतु हमें उम्मीद थी कि डॉ. सिंह यह वक्तव्य देने से पहले कि जैव विकास को खारिज किया जा चुका है और हमारे पाठ¬क्रम को तद्नुसार बदल दिया जाना चाहिए, भारत के वैकासिक जीव वैज्ञानिकों से उनकी पेशेवर राय जानने की थोड़ी ज़हमत उठाते। और इनमें से अधिकांश वैज्ञानिक मानव संसाधन विकास मंत्रालय या विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा समर्थित संस्थाओं में काम कर रहे हैं।

यह खुशी की बात है कि इंडियन एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (बैंगलुरु), नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (नई दिल्ली) और नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़, इंडिया (इलाहाबाद) ने एक संयुक्त बयान जारी किया है, जिसमें कहा गया है: “भारत की तीन विज्ञान अकादमियां यह कहना चाहती हैं कि मंत्री के वक्तव्यों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। वैकासिक सिद्धांत, जिसमें डारविन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, सुस्थापित है। जैव विकास के मूलभूत तथ्य को लेकर कोई विवाद नहीं है।” अनगिनत वैज्ञानिकों, शिक्षकों और छात्रों ने एक वक्तव्य पर हस्ताक्षर करके माननीय मंत्री जी से अपना बयान वापिस लेने का आग्रह किया है।
वैकासिक जीव विज्ञान को न पढ़ाने के आव्हान के व्यावहारिक परिणाम भी हैं। यदि हम वैकासिक जीव विज्ञान के डारविनी दृष्टिकोण को खारिज कर देते हैं, तो हमारे लिए कई महत्वपूर्ण सामाजिक चुनौतियों का अध्ययन करना और उनके लिए समाधान खोजना असंभव हो जाएगा। बैक्टीरिया में बहु-औषधि प्रतिरोध की समस्या इस तरह की चुनौतियों का एक उदाहरण है।

डॉ. सिंह के ऐसे वक्तव्यों का एक खास तौर से दुखद पहलू यह है कि वे स्वयं विज्ञान में प्रशिक्षित हैं (रसायन शास्त्र में एम.एससी. और एम.फिल. हैं) और उस मंत्रालय के राज्य मंत्री हैं जो देश में उच्च शिक्षा का कामकाज देखता है। इस हैसियत के मद्देनज़र ये एक ऐसे व्यक्ति के अभिमत हैं जो सीधे-सीधे देश में शिक्षा व अनुसंधान की प्राथमिकताओं और कार्यसूची को प्रभावित कर सकता है। माननीय मंत्री द्वारा जीव विज्ञान की एक भलीभांति स्वीकृत अवधारणा को ‘वैज्ञानिक रूप से गलत’ बताना और यह आव्हान करना कि इसे न पढ़ाया जाए, डरावना है। खास तौर से इसलिए कि वे अपनी गलती को मानने से इन्कार कर रहे हैं। आज सवाल जैव विकास पर उठाया जा रहा है, कल किसे निशाना बनाया जाएगा: क्वांटम भौतिकी और आणविक जेनेटिक्स? ज़ाहिर है इनके बारे में भी हमारे पूर्वजों ने कुछ कहा या लिखा नहीं है। (स्रोत फीचर्स)


अमिताभ जोशी जवाहरलाल नेहरु सेंटर फॉर एडवांस्ड स्टडीज़ में प्रोफेसर हैं और इंडियन एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (बैंगलुरु), नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़, इंडिया (इलाहाबाद) और इंडियन नेशनल साइन्स एकेडमी (नई दिल्ली) के सदस्य हैं। वे जे.सी. बोस नेशनल फेलो भी हैं और शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार (जीव विज्ञान, 2009) तथा लक्ष्मीपत सिंघानिया नेशनल लीडरशिप अवार्ड (युवा नेतृत्व, विज्ञान व टेक्नॉलॉजी, 2010) से सम्मानित किए जा चुके हैं। वे पिछले 30 वर्षों से वैकासिक जीव विज्ञान के अध्ययन, अध्यापन व अनुसंधान में जुड़े हैं। यह आलेख मूलत: कॉन्फ्लुएन्स (Confluence, http://confluence.ias.ac.in/)में प्रकाशित हुआ था।