डॉ. ओ.पी. जोशी
डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन ने अपने एक लेख “प्लास्टिक कचरा इंसानों ने गढ़ा, जीवों ने हल खोजा”, (स्रोत, दिसम्बर 2017) में प्लास्टिक कचरे के निपटान में सूक्ष्म जीव आइडियोनिला सकाइनेसिस तथा फफूंद एस्परजिलस ट्यूबिजेंसिस की भूमिका बताई है। यहां इसी को विस्तार देते हुए यह बताने की कोशिश की गई है कि प्लास्टिक नियंत्रण के इसी प्रकार के प्रयोग कुछ अन्य जीवों के साथ भी किए गए हैं।
रायपुर के इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक प्रोफेसर पंकज अवधिया ने 1999 में प्लास्टिक भक्षी जीव नाम से एक प्रोजेक्ट शुरू किया था। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य ऐसे कीड़े की खोज करना था जो प्लास्टिक खाकर हजम कर सके। प्रोफेसर अवधिया ने लंबे समय तक 135 प्रकार के कीड़ों को जबरन प्लास्टिक खिलाकर प्रयोग किए एवं पांच कीड़ों में उन्हें कुछ सम्भावना नज़र आई। इन पांच में से चार प्रकार के कीड़ों के पेट में प्लास्टिक रह गया या मल के साथ बाहर निकल गया परंतु एक प्रकार के कीड़े ने प्लास्टिक हजम कर लिया। प्रो. अवधिया ने इन कीड़ों को ‘संभावित प्लास्टिक भक्षी’ की संज्ञा दी एवं इन्हें प्लास्टिक बम भी कहा जाने लगा।
प्रो. अवधिया ने जब अपने सारे प्रयोगों एवं परिणाम की जानकारी ई-मेल डिस्कशन ग्रुप में डाली तो विज्ञान से जुड़े 15 हज़ार से ज़्यादा लोगों ने इसकी सराहना की एवं उन्हें बधाई दी। देश-विदेश के कई वैज्ञानिकों ने इस कीड़े का वैज्ञानिक नाम जानना चाहा परंतु प्रो. अवधिया ने उसे गोपनीय रखा। कुछ अमेरिकी वैज्ञानिकों ने भी उनसे सम्पर्क किया परंतु उन्होंने ज़्यादा जानकारी नहीं दी। अपनी खोज का उन्होंने पेटेंट भी इसीलिए नहीं करवाया क्योंकि इससे गोपनीयता भंग होती है। प्रो. अवधिया किसी भारतीय संस्थान को अपना सारा कार्य सौंपना चाहते थे।
इसी प्रकार जी.बी. पंत कृषि विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के वैज्ञानिकों ने दस वर्षों की मेहनत के बाद एक ऐसा जीवाणु मिट्टी से खोजा था जो प्लास्टिक के आणविक बंधनों को कमज़ोर कर विघटन में सहायता देता था। यह भी बताया गया था कि यह जीवाणु लो-डेंसिटी-पोलीथीन को तीन माह में नष्ट करने में सक्षम था। इस जीवाणु को प्रयोगशाला में विकसित कर नेशनल रिसर्च डेवलपमेंट कौसिंल की सहायता से पेटेंट भी करवाया गया था। ये दोनों खोजें कुछ समय तक तो इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंट मीडिया में सुर्खियों में रही मगर जल्दी ही गुम हो गईं।
कैम्ब्रिाज विश्वविद्यालय में जैव रसायन के प्रोफेसर पाओलो बाम्बेली का भी एक शोध अध्ययन 2017 में करंट बायलॉजी में प्रकाशित हुआ था। इस अध्ययन के अनुसार मधुमक्खियों के छत्तों को खाने वाली इल्ली गेलेरीया मेलोनेला (Galleria Mellonella) प्लास्टिक की रासायनिक रचना को तोड़कर नष्ट करती है। निष्कर्ष की पुष्टि के लिए इन इल्लियों को एक सुपर मार्केट में प्लास्टिक कचरे पर छोड़ा गया। 40 मिनट में इल्लियों ने कचरे में हज़ारों सुराख पैदा कर दिए। बारह घंटे में प्लास्टिक की मात्रा लगभग 100 मिलीग्राम कम हो गई।
चीन के बोहांग विश्वविद्यालय के प्रो. यांग जून तथा जीनोमिक संस्थान के डॉ. झाओ जियाओ ने एन्वायर्मेंटल साइन्स एंड टेक्नॉलॉजी में प्रकाशित अपने शोध पत्र में जानवरों के पेट में उपस्थित येलो मील वर्म को पोलीस्टायरीन प्लास्टिक को पचाने में सक्षम बताया है। येलो मील वर्म वास्तव में टेनिब्रिायो मालिटर (Tenebrio molitor) नामक भृंग का लार्वा होता है। यह पोलीस्टायरीन पर क्रिया करता है। प्लास्टिक का यह प्रकार रासायनिक रचना के संदर्भ में सबसे जटिल बताया गया है। येलो मील वर्म से जुड़े ये सारे प्रयोग वर्ष 2005 में किए गए थे।
प्लास्टिक खाने-पचाने वाले व विघटित करने वाले इन जीवों पर आगे और व्यवस्थित शोध करके यदि इन्हें व्यावसायिक रूप दिया जाए तो प्लास्टिक कचरे की विकराल वैश्विक समस्या का निदान सम्भव है। (स्रोत फीचर्स)