डॉ. विजय कुमार उपाध्याय
ड्युटेरियम (जिसे भारी हाइड्रोजन भी कहा जाता है) हाइड्रोजन का एक स्थिर समस्थानिक है। इसका रासायनिक संकेत D या 2H है। ड्युटेरियम के नाभिक में एक प्रोटॉन तथा एक न्यूट्रॉन होता है। साधारण हाइड्रोजन समस्थानिक के नाभिक में सिर्फ एक प्रोटॉन होता है जबकि न्यूट्रॉन अनुपस्थित रहता है।
ड्युटेरियम की खोज सन 1931 में कोलम्बिया विश्वविद्यालय के रसायन शास्त्री हैरोल्ड यूरी द्वारा स्पेक्ट्रोस्कोपिक विधि द्वारा की गई थी। यूरी के सहयोगी फर्डिनांड ब्रिकवेडे ने वाशिंगटन स्थित नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैंडर्ड्स (जिसे अब नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ स्टेंडर्डस एंड टेक्नॉलॉजी कहा जाता है) की भौतिकी प्रयोगशाला में पांच लीटर द्रवित हाइड्रोजन का आसवन करके एक मिली लीटर द्रव प्राप्त किया। इसी विधि का उपयोग कर नियॉन का भारी समस्थानिक भी प्राप्त किया गया था। इस द्रव का स्पेक्ट्रोस्कोपिक विधि से विश्लेषण करने पर उसमें हाइड्रोजन के भारी समस्थानिक की पहचान स्पष्ट रूप से की गई।
अब प्रश्न उठा कि हाइड्रोजन के इस भारी समस्थानिक का नाम क्या रखा जाए? हैरोल्ड यूरी द्वारा सन 1934 में एक शोध पत्र प्रकाशित किया गया जिसमें भारी हाइड्रोजन के कई नाम सुझाए गए थे। इनमें शामिल थे प्रोटियम, ड्युटेरियम तथा ट्रीशियम। ड्युटेरियम नाम जी.एन. लुइस द्वारा सुझाया गया था। जी.एन. लुइस पूर्व में हैरोल्ड यूरी के वरिष्ठ सहयोगी एवं गाइड रह चुके थे। ड्युटेरियम शब्द ग्रीक भाषा के एक शब्द ड्युटेरॉस पर आधारित है जिसका अर्थ है द्वितीय।
कुछ ब्रिटिश रसायनविदों ने इस नए समस्थानिक का नाम डिप्लोजेन सुझाया था जो ग्रीक भाषा के शब्द डिप्लॉस से उत्पन्न हुआ है। परम्परा रही है कि किसी तत्व का नामकरण करने में उसके खोजकर्त्ता द्वारा सुझाए गए नाम को प्रमुखता दी जाती है। इसीलिए भारी हाइड्रोजन का नाम ड्युटेरियम ही रखा गया।
सन 1932 में जब न्यूट्रॉन की खोज हुई तो नाभिकों के अध्ययन से यूरी द्वारा खोजे गए नए समस्थानिक ड्युटेरियम के अस्तित्व की पुष्टि हो गई। इस महत्वपूर्ण खोज के लिए सन 1934 में हैरोल्ड यूरी को रसायन शास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
सन 1933 में जी.एन. लुइस द्वारा पहली बार भारी जल का निर्माण किया गया जो हाइड्रोजन ऑक्साइड के बदले ड्यूटेरियम ऑक्साइड होता है। यह भारी जल परमाणु रिएक्टरों में मॉडरेटर के रूप में काफी उपयोगी साबित हुआ। भारी जल का उपयोग मानव तथा अन्य जीव-जंतुओं में चयापचय दर की जांच हेतु किया जाता है। इस चयापचय जांच को नाम दिया गया है “डबली लेेबल्ड वॉटर टेस्ट”। भारी जल का उपयोग ट्रिशियम नामक तत्व के उत्पादन में भी किया जाता है। ट्रिशियम का उपयोग सेल्फ पावर्ड लाइटिंग तथा नियंत्रित नाभिकीय प्रगलन में एक क्रियाशील पदार्थ के रूप में किया जाता है। रिएक्टर में भारी जल से ट्रिशियम का उत्पादन उस समय होता है जब ड्युटेरियम एक न्यूट्रॉन को पकड़ लेता है।
अब प्रश्न उठता है कि ड्युटेरियम प्रकृति में कहां पाया जाता है तथा उसकी प्रचुरता कितनी है? प्राकृतिक रूप से यह समुद्री जल में पाया जाता है जहां उसकी प्रचुरता प्रति 6420 हाइड्रोजन परमाणुओं में सिर्फ एक है। अर्थात पृथ्वी पर उपलब्ध हाइड्रोजन परमाणुओं में ड्युटेरियम का अंश सिर्फ 0.0156 प्रतिशत है। यदि द्रव्यमान की दृष्टि से देखा जाए तो हाइड्रोजन की कुल मात्रा में ड्युटेरियम सिर्फ 0.0312 प्रतिशत है। अध्ययनों से पता चला है कि अलग-अलग प्रकार के प्राकृतिक जल में ड्युटेरियम की प्रचुरता में थोड़ा-थोड़ा अंतर पाया जाता है। यह भारी हाइड्रोजन अत्यल्प परिमाण में ड्युटेरियम गैस के रूप में प्रकृति में पाई जाती है परंतु ब्रह्माण्ड में अधिकांश ड्युटेरियम हाइड्रोजन के साथ बंधित अवस्था में मिलती है। अर्थात इसके अणु में एक-एक परमाणु दोनों तरह की हाइड्रोजन का होता है। पृथ्वी के अलावा कई अन्य खगोलीय पिण्डों में भी ड्युटेरियम पाई गई है, जिनमें सर्व प्रमुख है विशाल गैसीय ग्रह बृहस्पति। धूमकेतुओं में भी इस समस्थानिक की उपस्थिति पाई गई है। पृथ्वी की अपेक्षा धूमकेतुओं में ड्युटेरियम का अनुपात अधिक पाया गया है। इसके पीछे कारण यह बताया गया है कि सूर्य की गर्मी से धूमकेतुओं की बर्फ जब पिघलती है तो समस्थनिकों का विलगीकरण अधिक होता है। उदाहरण के तौर पर चुर्युमौव गिरासिमेंको नामक धूमकेतु पर पृथ्वी के समुद्रों की अपेक्षा ड्युटेरियम/हाइड्रोजन अनुपात तिगुना पाया गया है। यह जानकारी रोसेट्टा स्पेस प्रोब से मिली है।
सूर्य के बाहरी वायुमंडल में भी ड्युटेरियम पाई गई है। यहां ड्युटेरियम की सांद्रता लगभग उतनी ही है जितनी बृहस्पति ग्रह के वायुमंडल में पाई जाती है। सूर्य में ड्युटेरियम की यह सांद्रता सौर परिवार की उत्पत्ति के समय से ही रही है। बृहस्पति ग्रह के वायुमंडल में ड्युटेरियम की प्रचुरता की माप गैलीलियो स्पेस प्रोब द्वारा की गई थी। इस माप से पता चला है कि वहां हाइड्रोजन के प्रति दस लाख परमाणुओं में 26 परमाणु ड्युटेरियम के हैं। हेल बाप तथा हैली नामक धूमकेतुओं में ड्युटेरियम की प्रचुरता हाइड्रोजन के प्रति दस लाख परमाणुओं में 200 मापी गई है। संपूर्ण आकाश गंगा में ड्युटेरियम की प्रचुरता पराबैंगनी स्पेक्ट्रम के विश्लेषण के द्वारा मापी गई जिससे पता चला कि यहां हाइड्रोजन के प्रति दस लाख परमाणुओं में ड्युटेरियम के सिर्फ 23 परमाणु मौजूद हैं।
अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि प्रकृति में ड्युटेरियम की उत्पत्ति कैसे हुई? ऐसा माना जाता है कि बिग बैंग के दौरान उत्पन्न तत्वों की संख्या तथा उनके बीच आपसी अनुपात को व्यवस्थित रखने में ड्युटेरियम की बहुत बड़ी भूमिका रही है। थर्मोडाएनेमिक्स तथा ब्रह्मांडीय प्रसार के कारण होने वाले परिवर्तन को ध्यान में रखकर प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन के अंशों का निर्धारण उस तापमान के आधार पर किया जा सकता है जब ब्रह्माण्ड इतना ठंडा हो गया कि नाभिकों का निर्माण होने लगा। जब ब्रह्माण्ड का तापमान काफी कम हुआ तो ड्युटेरियम तथा हीलियम का निर्माण शुरु हुआ। वस्तुत: इसी समय पर कुछ अन्य तत्वों का निर्माण भी काफी परिमाण में हुआ। परन्तु जो भी तत्व बने उनमें स्थिर नाभिक वाले सिर्फ वे ही थे जिनकी परमाणु संख्या 8 से कम थी। अर्थात नाइट्रोजन से अधिक भारी तत्व जो भी निर्मित हुए वे स्थिर नहीं थे। भारी तत्वों की उत्पत्ति तारों के निर्माण के बाद तारों में ही हुई। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - May 2017
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