माधव केलकर

में एक बार परीक्षा में रसायन विज्ञान में बस फेल होते-होते रह गया। पास होने के लिए 33 अंक आवश्यक थे। वो तैंतीसवाँ अंक एक वस्तुनिष्ठ प्रश्न के ज़रिए मिल गया। वह सवाल अभी तक मुझे याद है। सवाल था चिली सॉल्ट पीटर के प्रचुरतम अयस्क किस देश में पाए जाते हैं? विकल्प के रूप में चार देशों के नाम दिए गए थे। इनमें से कुछ पढ़ा-पढ़ा सा, कुछ तुक्का भिड़ाकर मैंने चिली देश को सही विकल्प के रूप में चुना। बाहर दोस्तों से बातचीत के दौरान पता चला कि चिली सही जवाब है। नम्बरों की मारा-मारी वाली उस परीक्षा में किसी तरह तैंतीस का आँकड़ा मैंने चिली सॉल्ट पीटर की बदौलत छू लिया। और इस वजह से चिली सॉल्ट पीटर मेरी याददाश्त में अजर-अमर हो गया।

बाद में रसायन विज्ञान की पाठ्य-पुस्तकों में भी यह पढ़ा कि चिली सॉल्ट पीटर (सोडियम नाइट्रेट NaNO3) का उपयोग उर्वरक बनाने, विस्फोटकों में, सॉलिड रॉकेट प्रोपेलेंट आदि बनाने में होता है। तब मैं यही सोचता था कि चिली में इफरात में सॉल्ट पीटर की खदानें हैं, बस उसका शुद्धिकरण किया और माल निर्यात के लिए तैयार है।
पिछले साल एक बार फिर किसी वजह से चिली सॉल्ट पीटर से आमना-सामना हुआ। इस बार जो कुछ पढ़ा-समझा तो अपनी पुरानी समझ को एकदम तहस-नहस होते हुए देखा।

गुआनो के भण्डार
यदि सिलसिलेवार अपनी बात कहूँ तो कहानी कुछ इस तरह है। दक्षिण अमेरिका में चिली और उसके पड़ोसी देशों (पेरु और बोलिविया) में फैले हुए आटाकामा मरुस्थल में सोडियम नाइट्रेट (चिली सॉल्ट पीटर) के सबसे बड़े भण्डार पाए जाते हैं। इन्हें स्थानीय भाषा में गुआनो कहा जाता है, जो मूलत: स्पेनिश शब्द का बिगड़ा हुआ स्वरूप है। इसका अर्थ है - समुद्री पक्षियों, चमगादड़ों और सील के मल के संचय। इस मल में फॉस्फोरस और नाइट्रोजन काफी मात्रा में मौजूद होता है।

चिली के समुद्र तटीय मरुस्थली इलाकों में गुआनो के निक्षेप (deposit) काफी मात्रा में पाए जाते हैं। ऐसा भी माना जाता है कि यहाँ की गरम और सूखी जलवायु के कारण हज़ारों बरसों से एकत्रित मल संचय धीरे-धीरे सॉल्ट पीटर अयस्क में तब्दील हो गए हैं।

आटाकामा की स्थानीय जनता काफी पहले से गुआनो का इस्तेमाल अपनी कृषि भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए किया करती थी। यूरोपीय कम्पनियों को इन अयस्कों की उपयोगिता समझ में आने के बाद सन् 1840 से चिली, पेरु और बोलिविया में इनका व्यवसायिक खनन शुरू हुआ। उन दिनों यूरोप की जनसंख्या में काफी वृद्धि हो रही थी और खाद्यान्नों के उत्पादन में अपेक्षित सुधार नहीं हो पा रहा था। बार-बार अकाल और भुखमरी की घटनाओं का दोहराव हो रहा था।

जल्द ही चिली सॉल्ट पीटर के भण्डारों ने यूरोप और अमेरिका में हुई कृषि क्रान्ति को स्थायित्व दिया और अनाजों की पैदावार में वृद्धि भी की। लेकिन यह भी ध्यान में रखना होगा कि अनाजों की पैदावार बढ़ाने में संकर बीजों की भूमिका भी अहम थी।
बढ़ती हुई माँग की वजह से जल्द ही सोडियम नाइट्रेट का उत्खनन एक लाभप्रद उद्योग में बदल गया। सन् 1870 तक यूरोपीय देशों की मदद से चिली ने अपने देश में सॉल्ट पीटर शुद्धिकरण के संयंत्र लगाए। सन् 1872 में सान्तालौरा और हम्बरस्टोन (पुराना नाम लॉ पाम) में नाइट्रेट एक्सट्रेक्शन का काम शु डिग्री किया गया। कहने को ये प्लांट चिली में थे लेकिन यहाँ काम करने वाले लोग चिली, पेरु और बोलिविया के निवासी थे। इन लोगों ने मिलकर एक साझा संस्कृति को विकसित किया। जल्द ही ये नगर व्यस्ततम औद्योगिक नगरों में शुमार हो गए। देखते-ही-देखते चिली सोडियम नाइट्रेट का सबसे बड़ा निर्यातक बन बैठा। बोलिविया और पेरु की भी समझ में आ गया था कि वे दुनिया के सबसे बड़े सॉल्ट पीटर भण्डारों पर बैठे हुए हैं। इन दोनों देशों ने भी यूरोप और अमरीका को सॉल्ट पीटर का भरपूर निर्यात किया। पेरु का चींचा द्वीप तोे गुआनो की वजह से सामरिक महत्व का स्थान बन गया था।

वैसे तो सॉल्ट पीटर के ये भण्डार चिली, पेरु और बोलिविया के बीच फैले हुए थे। लेकिन इन भण्डारों पर कब्ज़ा करने और इनका मन-माफिक दोहन कर सकने के लिए इन तीनों देशों के बीच 1879-83 में युद्ध हुआ। इस युद्ध में चिली के सामने बोलिविया और पेरु की मिली-जुली सेना थी। इस युद्ध में विजय के बाद चिली ने अपनी उत्तरी सीमाओं का विस्तार करते हुए बोलिविया के काफी भूभाग पर कब्ज़ा कर गुआनो के भण्डारों पर भी अपना अधिकार जमा लिया।

वैकल्पिक तैयारियाँ
सन् 1890 से 1910 तक के बीस साल काफी उतार-चढ़ाव वाले थे। यूरोप में औपनिवेशिक ताकतों ने अपने-अपने हितों को साधने के लिए सामरिक इलाकों और प्राकृतिक सम्पदा पर कब्ज़ा जमाने के प्रयास तेज़ कर दिए थे। आर्थिक विस्तार के साथ सैन्य विस्तार की कोशिशें भी ज़ोरों पर थीं। इस दौर में चिली के नाइट्रेट की उर्वरक उद्योग के साथ-साथ विस्फोटक बनाने के लिए भी काफी माँग थी। सन् 1890 से 1920 के बीच चिली को अपनी कुल आय का आधा हिस्सा सॉल्ट पीटर से प्राप्त हो रहा था। इन सब के बीच पहले विश्व युद्ध की सुगबुगाहट भी महसूस होने लगी थी। चिली का नाइट्रेट उद्योग ब्रिटिश कम्पनियों के हाथों में था। ये कम्पनियाँ चिली को ब्रिटिश हितों के खिलाफ जाने से रोक सकती थीं। ऐसे माहौल में कुछ यूरोपीय देशों ने इस ओर सोचना शुरू कर दिया था कि चिली ने या नाइट्रेट के अन्य उत्पादकों ने आपूर्ति रोक दी तो क्या होगा?

उस समय जर्मनी चिली से सोडियम नाइट्रेट का आयात करता था। लेकिन युद्ध के दौरान सोडियम नाइट्रेट माँग के अनुरूप उपलब्ध हो सकेगा या नहीं इस अनिश्चितता की वजह से जर्मनी ने सन् 1910 में अमोनिया बनाने की हैबर विधि पर अपना ध्यान लगाया। इस विधि को जर्मनी के वैज्ञानिक फ्रिट्ज़ हैबर ने पेटेंट करवाया था। हैबर विधि में उत्प्रेरक की मौजूदगी में उच्च ताप एवं दाब पर नाइट्रोजन और हाइड्रोजन की क्रिया से अमोनिया का निर्माण किया जाता है। सिंथेटिक अमोनिया निर्माण की दिशा में यह एक बड़ा कदम था। इस अमोनिया से नाइट्रिक एसिड और नाइट्रिक एसिड से विस्फोटकों का निर्माण किया जाने लगा। अमोनिया से अमोनियम नाइट्रेट और अमोनियम फॉस्फेट बनाकर उर्वरक भी बनाए जाने लगे थे। जर्मनी की देखा-देखी अन्य देशों ने भी सिंथेटिक अमोनिया बनाने की कोशिशें तेज़ कर दी थीं।

हैबर विधि ने बिगाड़े समीकरण
प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम चाहे जो भी रहे हों लेकिन सिंथेटिक अमोनिया बनाकर जर्मनी ने किसी स्थान विशेष पर पाए जाने वाले खनिज अयस्कों, उनका शोधन एवं आपूर्ति सम्बन्धी सारे राजनीतिक-आर्थिक समीकरणों को मानो चुनौती ही दी थी। हैबर विधि की वजह से चिली को कितना नुकसान उठाना पड़ा इसे आप तालिका देखकर समझ सकते हैं। इस तालिका में सन् 1913 और 1934 में नाइट्रोजन निर्माण सम्बन्धी आँकड़े दिए गए हैं। ये दोनों साल इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि 1913 में जब प्रथम विश्व युद्ध शु डिग्री होने की कगार पर था उस समय नाइट्रेट की माँग काफी उच्च स्तर पर थी। दूसरा वर्ष सन् 1934 इसलिए क्योंकि तब तक दुनिया के कई देश विश्व व्यापी मन्दी के शिकार हो गए थे और कई उद्योगों की कमर टूट चुकी थी।
चिली जिसकी लगभग तीन चौथाई आमदनी सॉल्ट पीटर और ताम्बे के निर्यात से होती थी, उसकी खनिजों के खनन से होने वाली आय में 27 प्रतिशत और निर्यात से होने वाली आय में भी 28 प्रतिशत की गिरावट आ गई थी।

मन्दी के असर से चिली सॉल्ट पीटर का एक्सट्रेक्शन भी अछूता नहीं रहा था। सन् 1940 आते-आते लॉ पाम और सान्तालौरा की कम्पनी दीवालिया हो गईं। इन्हें एक दूसरी कम्पनी कोसाटान ने अधिग्रहित कर लिया। इसी समय लॉ पाम की कम्पनी का नाम इसके संस्थापक के नाम पर हम्बरस्टोन कर दिया गया। कम्पनी ने काफी प्रयास किए कि वे ऐसे तरीकों से उत्पाद बनाएँ जो प्रतियोगी बाज़ार में ठहर सकें।

सन् 1958 में कोसाटान कम्पनी भी खत्म हो गई। 1960 में इन दो जगहों पर सॉल्ट पीटर एक्सट्रेक्शन का काम पूरी तरह ठप्प हो गया। अंग्रेज़ी वास्तु शैली की इमारतों वाली औद्योगिक बस्तियाँ 1970 आते-आते भुतहा खण्डहरों में तब्दील हो चुकी थीं।
चिली-बोलिविया-पेरु के लोगों की साझा संस्कृति, औद्योगिक वैभव, देश को सम्पन्नता देने वाला उद्योग सब पुराने किस्से बनकर रह गए थे। सन् 2005 में यूनेस्को ने इन भुतहा बस्तियों की सुध ली और सान्तालौरा तथा हम्बरस्टोन की इन बस्तियों को विश्व की धरोहर घोषित किया। इनके संरक्षण के उपाय भी किए गए। आज ये बस्तियाँ पर्यटन के लिए खोल दी गई हैं।

हैबर विधि तक का सफर

हमारा वायुमण्डल नाइट्रोजन का एक विशाल भण्डार है इस बात से सभी वाकिफ थे। कैवेंडिश (1731-1810) ने नाइट्रोजन और ऑक्सीजन को विद्युत स्पार्क की मौजूदगी में नाइट्रोजन के ऑक्साइड में तब्दील किया था। इस ऑक्साइड से नाइट्रिक अम्ल बनाया जा सकता था, लेकिन इस क्रिया को औद्योगिक स्तर पर करवाने के लिए एक अनुमान के मुताबिक 2000-3000 डिग्री सेंटीग्रेड ताप की ज़रूरत थी। इसके लिए ज़रूरी सस्ती बिजली के स्रोत उस समय उपलब्ध नहीं थे। नॉर्वे में 1903 में शु डिग्री किए गए जल-विद्युत संयंत्र ने सस्ती बिजली को सम्भव बनाया।

फ्रिट्ज़ हैबर की रुचि उष्मागतिकी (थर्मोडायनामिक) क्रियाओं में थी, उन्होंने प्रदर्शित किया कि हाइड्रोजन और नाइट्रोजन की क्रिया लौह उत्प्रेरक की मौजूदगी में करवाई जाए तो यह क्रिया 1000 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर सम्पन्न हो जाती है। उष्मागतिकी में रुचि रखने वाले वॉल्टर नन्र्स्ट (Walther Nernst) ने हैबर का ध्यान इस क्रिया में दाब की स्थितियों की ओर दिलवाया। हैबर ने दोबारा पड़ताल करके देखा कि ओसमियम, यूरेनियम कार्बाइड या लौह उत्प्रेरक की मौजूदगी में, 200 वायुमण्लीय दबाव और 500 डिग्री सेंटीग्रेड ताप पर यह क्रिया सम्भव है। जल्द ही जर्मनी ने हैबर विधि से अमोनिया निर्माण को व्यवसायिक स्तर पर शुरु  कर दिया।
पहले विश्व युद्ध में जर्मनी की पराजय के बाद ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने जर्मनी में जाकर काफी करीब से हैबर विधि के आर्थिक पहलुओं का अध्ययन किया। उनकी राय में हैबर विधि काफी खर्चीला उपक्रम था। ब्रिटेन ने अपनी नाइट्रेट की ज़रूरतों के लिए सायनामाइड विधि पर अपना भरोसा बनाए रखा। आमतौर पर जर्मनी समेत कई देश सन् 1890 के बाद से ही इस विधि का एक वैकल्पिक विधि के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे।

एडोल्फ फ्रैंक और एन. कैरो द्वारा खोजी गई सायनामाइड विधि में नाइट्रोजन गैस की क्रिया उच्च ताप (1000 डिग्री सेंटीग्रेड) पर कैल्शियम कार्बाइड से करवाई जाती है। इससे कैल्शियम सायनामाइड बनता है। कैल्शियम सायनामाइड की जल वाष्प से क्रिया करवाने पर अमोनिया बनती है। लगभग सन् 1920 तक सायनामाइड विधि ने उर्वरक उद्योग को गति दी। सायनामाइड विधि वैसे तो सरल थी लेकिन पहले उच्च ताप पर कैल्शियम कार्बाइड का निर्माण और इस कैल्शियम कार्बाइड की फिर उच्च तापमान पर नाइट्रोजन से क्रिया करवाने की वजह से तुलनात्मक रूप से ऊर्जा का व्यय ज़्यादा होता था। इसलिए अगले बीस वर्षों में कई देशों ने (ब्रिटेन ने भी) हैबर विधि की ओर रुख किया।

एक बार मैं फिर अपनी पुरानी समझ की ओर लौटता हूँ। जिन दिनों मैं कॉलेज की पढ़ाई कर रहा था तब तक चिली साल्ट पीटर से सम्बन्धित औद्योगिक बस्तियों को भुतहा खण्डहरों में तब्दील हुए बीस साल से ज़्यादा गुज़र चुके थे। लेकिन हमारी रसायन या भूविज्ञान की पाठ्य पुस्तकों में कहीं भी इस बात का ज़िक्र तक नहीं था कि चिली का सॉल्ट पीटर उद्योग बन्द हो चुका है।
आमतौर पर भूविज्ञान और औद्योगिक भूगोल में सामरिक महत्व के खनिजों के बारे में काफी कुछ लिखा होता है लेकिन इन पाठ्य पुस्तकों में सान्तालौरा और हम्बरस्टोन को एक केस स्टडी के रूप में नहीं पढ़ाया जाता।

ग्रैज्यूएशन के दौरान मैंने हैबर विधि से अमोनिया बनाने का तरीका पढ़ा था, समीकरण भी याद किया था लेकिन इस विधि का निश्चित रूप से दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं पर क्या असर पड़ा होगा इसका उस समय कोई अन्दाज़ा नहीं था, न ही यहूदियों के भीषण संहार में हैबर के योगदान के बारे में जानने का मौका मिला।

प्राकृतिक नील बनाम सिंथेटिक नील

नील (इण्डिगो) की कहानी भी चिली सॉल्ट पीटर से बहुत फर्क नहीं है। भारत सहित दुनिया के काफी इलाकों में नील की खेती की जाती थी। सूती वस्त्र या सूती धागों को रंगने में नील का इस्तेमाल किया जाता था। यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति के बाद अचानक नील की माँग बढ़ने लगी।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कार्यकाल के दौर से ही बंगाल-बिहार में किसानों से ज़बरदस्ती नील की खेती करवाई जाती थी। बांग्ला नाटक - नीलदर्पण में उस समय किसानों पर ढाए जाने वाले ज़ुल्मों के ब्यौरे हैं। इस नील को इंग्लैंड भेजा जाता था। इससे इंग्लैंड के सूती वस्त्र उद्योग की ज़रूरत पूरी होती थी, साथ ही इंग्लैंड इसे अन्य देशों को निर्यात भी करता था।
सन् 1880 में जर्मन रसायनविद् जोहनान फेडरिख विलहेम ने सिंथेटिक नील बनाई। सन् 1897 से व्यवसायिक स्तर पर सिंथेटिक नील का उत्पादन किया जाने लगा।

इसके बाद प्राकृतिक नील की माँग कम होने लगी। लॉर्ड कर्ज़न ने नील सम्वर्धन के लिए बोर्ड भी बनाया लेकिन ये उपाय नाकाफी रहे। सन् 1913 आते-आते सिंथेटिक नील ने प्राकृतिक नील का स्थान ले लिया और भारत की प्रसिद्ध नील, प्रतिस्पर्धा के बाज़ार से बाहर होने लगी थी। शोषण एवं काश्त सम्बन्धी अधिकारों को लेकर बंगाल-बिहार के नील उद्योग में शामिल किसानों-काश्तकारों के अधिकारों के लिए चम्पारण में सत्याग्रह आन्दोलन शु डिग्री किया गया था।
चिली सॉल्ट पीटर, नील आदि के बाद यदि आप चाहें तो प्राकृतिक रबर और सिथेंटिक रबर या जूट उद्योग के बारे में भी खोजबीन कर सकते हैं। ऐसे कुछ अध्ययनों से आप प्राकृतिक संसाधनों की माँग-पूर्ति का चक्र, सिंथेटिक विकल्पों की लागत को कम-से-कम रखने के तकनीकी उपायों व इसके कारण समाज एवं अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव आदि के बारे में गहराई से जान पाएँगे।


जब भूविज्ञान विषय में प्राकृतिक खनिज संसाधनों के बारे में पढ़ा तब भी इन्सान और खनिजों के आपसी रिश्ते, खनिज संसाधनों पर एकाधिकार, बाज़ार की प्रतियोगिता और इनके चलते सिंथेटिक पदार्थों के निर्माण के ताने-बाने को समझ पाने में असफल रहा।
शायद कॉलेज स्तर की पढ़ाई में भी वैसी ही सब समस्याएँ हैं जिनका हम स्कूली शिक्षा के सन्दर्भ में ज़िक्र करते हैं। कॉलेज स्तर पर भी पाठ्य पुस्तकें लगातार अपडेट नहीं होतीं, शिक्षक अपने ज्ञान को पॉलिश नहीं करते और पहले की कक्षाओं में पढ़ी बातों का तारतम्य वर्तमान पाठ से जोड़ पाने के मौके नहीं रहते। एक विषय का दूसरे विषय के साथ किस तरह अन्तर्सम्बन्ध हो सकता है इसके लिए दिमाग को खोलने की कोशिश नहीं होती। साथ ही विविध मुद्दों पर खुलकर चर्चा भी नहीं हो पाती।

किसी उद्योग का शुरु होना तो उत्साहजनक घटना है लेकिन उद्योग का खात्मा त्रासदी भरा। उद्योग के शुरुआती दौर में इस उद्योग से जुड़े सामाजिक और आर्थिक तानेबाने उतने स्पष्ट नहीं होते जितने खात्मे के समय साफतौर पर देखे जा सकते हैं। शायद विज्ञान और तकनीक का रास्ता इसी तरह आगे बढ़ता है। सम्भव है कुछ साल बाद पेट्रोलियम भण्डारों के खत्म होने पर हम पेट्रोलियम उद्योग के सुनहरे अतीत से खण्डहरनुमा वर्तमान की समीक्षा कर रहे होंगे।