लेखक :   जेरल्ड डरैल
अनुवाद - मृणालिनी श्रीवास्तव 

जानवरों के साथ मेरा लगाव बचपन से ही था। मैं उनके चित्र इकट्ठे करता, जानकारियाँ जमा करता। दिन-दिन भर पार्कों में, बगीचों में घूमता, पेड़ों पर चढ़ता, मैं हर एक के बारे में सब कुछ जानना चाहता था, चाहे वह पशु हो या पक्षी, जलचर हो या नभचर। उसका खाना-पीना, स्वभाव, ज़रूरतें, ठिकाना, घर।
बड़े होते-होते मेरा शौक मेरा काम बन गया। पहले तो मैं ब्रिटेन के जंगलों में घूमा फिर फ्रांस और भूमध्य सागर के इर्द-गिर्द भी। जब मुझे अफ्रीका जाने और जानवर जमा करने का काम मिला तो मैं खुश हो गया। मेरे सामने अफ्रीका के सभी जंगलों की सूची थी जिसमें से मैंने ईशोबी को चुना। ईशोबी का जंगल कैमरून के घने जंगलों में से एक है। यहाँ जानवरों की बहुतायत है। इनमें ज़्यादातर गोरिल्ला, चिम्पैंज़ी, एग्वानटिबो, जंगली सुअर, बिलाव, हिरणों की विविध किस्में आदि पाए जाते हैं। इनके साथ ही उदबिलाव, चूहे, साही, पेंगुलिन, चमगादड़ और भी न जाने कितने प्रकार यहाँ मौजूद हैं। यहाँ आस-पास छोटे-छोटे गाँव हैं। लोग मिलनसार और ताकतवर हैं, ईश्वर के प्रति आस्था रखते हैं साथ ही उनके अपने अन्धविश्वास भी हैं।

एक सुबह कैम्प से बाहर आया तो देखा एक नंग-धड़ंग बच्चा हाथ में ताड़ की सींकों की टोकरी लिए खड़ा है। “क्या है इसमें?” मैंने पूछा।
उसे मेरी भाषा समझ नहीं आई, उसने टोकरी वाला हाथ आगे बढ़ा दिया। मेरे सहायक एलियस ने आगे बढ़कर टोकरी ले ली और कहा, “शाह, इसमें गिरगिट है।”
मैंने आगे बढ़कर झाँका, टोकरी में बड़ी-बड़ी उभरी आँखों वाला गिरगिट बैठा था। “अरे वाह! यह तो बहुत अच्छा है। एलियस इस बच्चे को बिस्किट का पैकेट दे दो।”
एलियस पैकेट ले आया, पर बच्चे ने लेने से मना कर दिया। “शाह, यह पैसा माँगता है,” एलियस ने उसकी बात का अर्थ समझाया। मैंने उसके हाथ पर एक चमकदार पेनी रख दी जिसे देखकर वह खुश हो गया और पेनी मुट्ठी में दबाकर भाग गया।
बच्चा जो गिरगिट लाया था वह कैमरून में मिलने वाला आम गिरगिट ‘फ्लैप नेक्ड’ था। यह अपना बचाव अपनी गर्दन को ज़ोर-ज़ोर से हिलाकर करता है। खतरा भाँपते ही यह सबसे पहले अपना रंग बदल लेता है फिर मुँह को चौड़ा करके खोल लेता है। बाहर निकली आँखों को और बड़ा करके गोल-गोल घुमाने लगता है। तोते जैसे पंजे वाले पाँवों पर आगे का धड़ उठाकर गर्दन को तेज़ी से इधर-उधर हिलाता है। देखने में यह छोटा दानव लगता है। इसे देखकर इसका शत्रु भले ही डर जाता हो पर हम सभी हँस-हँसकर लोट-पोट हो रहे थे।

इस बौने दानव से मुलाकात के बाद मेरी रुचि गिरगिटों में कुछ बढ़ गई। इसके बाद जो दूसरा गिरगिट हमारे कैम्प में आया वह बहुत ही अद्भुत था। यह सींग वाला पतला-सा गिरगिट था। इसके पास बहुत सारे हथियार होते हैं पर यह स्वभाव से उतना ही ज़्यादा शान्त होता है। इस पतलू गिरगिट के सिर पर एक टोप बना था जिस पर नीले रंग के दाने उभरे हुए थे मानो ईश्वर ने उसे हेलमेट पहना दिया हो। उसके सिर के दाएँ-बाएँ दो सींग थे, नुकीले और मुड़े हुए जैसे हाथी के दाँत। दोनों आँखों के बीच एक सींग था - बिलकुल सीधा। उसका रंग तो मोती जैसा था पर जब वह गुस्सा करता तब उसका रंग मैरून हो जाता। इसका स्वभाव और सीगों का उपयोग देखने के लिए मैंने इसके साथ काफी समय बिताया। मैंने उसे हाथ में उठाया तो उसने रंग बदलना शुरू कर दिया। छोटे-छोटे दानेदार धब्बे फैलकर मैरून होने लगे।

मैंने उसे गुस्सा दिलाने के लिए ज़मीन पर रख दिया और एक पतली लकड़ी चुभोई, वह न आगे बढ़ा न सींग बढ़ाए, केवल उसने अगले पंजे से लकड़ी को पकड़कर हटा दिया। हाँ, वह थोड़ा-सा फुफकारा ज़रूर। मैं उसके सींगों का उपयोग देखना चाहता था, इसलिए मैंने उसे नीची-सी एक डाल पर रख दिया और उसके सामने उसी जाति का दूसरा गिरगिट भी। दोनों एक-दूसरे को देखते रहे फिर खिसकने लगे। मुझे लगा कि पास आने पर वे सींगों से एक-दूसरे पर वार करेंगे, पर यह क्या? एक गिरगिट नीचे पेड़ की डाल से चिपक गया और दूसरा उसके शरीर पर से खिसक-खिसककर दूसरी ओर निकल गया। उनको लड़वाने की मेरी कोशिश बेकार हो गई। मैं और एलियस हँस पड़े। अपनी सोच पर मुझे शर्म आ रही थी। इन जीवों को प्रकृति ने भरपूर हथियार दिए हैं ताकि वे आक्रमण और बचाव कर सकें। लेकिन फिर भी ये जीव शान्ति से जीना जानते हैं।

गिरगिटों को कैम्प में रखना आसान काम नहीं, इन पर धूप व गर्म हवा का असर बहुत जल्दी होता है। जंगल में ये अपने स्वभावानुसार रहते हैं इसलिए इनकी ज़रूरतों को कैम्प में पूरा करना ज़रूरी था। घना छप्पर, दिन में तीन बार पानी का छिड़काव और खाने के लिए ग्रास हॉपर बहुत ज़रूरी थे।
कैम्प में अभी तक जितने भी गिरगिट थे वे आठ इंच से बड़े नहीं थे। कोई नई व बड़ी प्रजाति ढूँढ़ने की कोशिश में हमें पता चला कि दीमक की बाम्बियों में भी एक तरह का गिरगिट रहता है। गाँव के बाहर एक बाम्बी थी, ज़मीन के नीचे। ऊपर मिट्टी का टीला था और उसमें अनेकों छेद। इसका घेरा बारह फुट और ऊँचाई करीब चार फुट थी। इसके चारों तरफ की झाड़ियाँ हटाकर उसके छेदों को मिट्टी से भर दिया, बस दो-तीन छेद छोड़ दिए। एलियस ने लकड़ियाँ जलाकर धुँआ किया। छेदों से धुँआ अन्दर जाने लगा और दूसरी तरफ के छेदों से बाहर आने लगा पर कोई गिरगिट बाहर नहीं आया। धुँआ भरता रहा, लगभग आधा घण्टा हो गया तभी एलियस चिल्लाया, “शाह, इधर देखो कितना बड़ा गिरगिट बाहर आ रहा है।” मैं दौड़कर उधर गया, उसके साथ मैं भी हँस पड़ा।

एक छेद में से धुँए से हैरान-परेशान तीन इंच का गिरगिट बाहर आ गया था। मैंने उसे उठाकर हथेली पर रख लिया। इसकी नाक पर एक सींग था और पूँछ एक इंच लम्बी जिसे उसने हथेली पर रखते ही स्प्रिंग की तरह गोल कर लिया। यह था पिग्मी गिरगिट - इस छोटू के लिए यही नाम एकदम सही था। शर्मीला पिग्मी गिरगिट ज़ंग जैसे लाल रंग का था जिस पर काले धब्बे थे। मैं इसके बारे में खूब ज़्यादा जानना समझना चाहता था इसलिए ज़रूरी था उसे अपने पास रखूँ। पिग्मी खाता भी बहुत कम था। मेरे सामने उसने कुछ भी नहीं खाया, एक मक्खी भी नहीं। मैं जब-जब उठाकर उसे एक जगह से दूसरी जगह रखता वह आँखें बन्द कर लेता। इसके अलावा वह न गुस्सा हुआ न काटने आया।

इसके आने के बाद बच्चे कई पिग्मी गिरगिट लेकर आए। मैंने उनसे पूछा, “ये कहाँ मिला?” तो उन्होंने जवाब दिया, “मिट्टी में।” बहुत कोशिश करके भी मैं उनकी सही जगह नहीं ढूँढ़ पाया। जब इन सभी पिग्मी गिरगिटों को एक साथ एक पिंजरे में रखा गया, तो वे उसमें रखी पेड़ की डाली से चिपक गए। हमने उसमें कुछ पत्तियाँ डाल दीं तो चारों पिग्मी पेड़ से उतरकर पत्तियों में घुस गए। देखते-ही-देखते उनके शरीर का रंग सूखी पत्ती-सा हो गया। अब उन्हें खोज पाना अत्यन्त मुश्किल था।
कैमरून के जंगल में मैंने एक गिरगिट को नाचते देखा, बहुत-ही अद्भुत अनुभव था यह। हाँ, गिरगिट नाचते हैं - जब उनका मन करता है या जब वे अपने साथी को बुलाते हैं तब। बड़े तो बड़े, पिग्मी भी नाचने में सबसे आगे हैं।
गिरगिट नाचते वक्त अलग-अलग मुद्राएँ भी अपनाते हैं। नाचने का मूड बनते ही गिरगिट पिछले पंजों पर खड़ा हो जाता है। कभी अगला बायाँ और पिछला दायाँ पंजा उठा हवा में लहराता है तो कभी इसके विपरीत अगला दायाँ और पिछला बायाँ पंजा ज़मीन से ऊपर कर हिलाता है और फिर गर्दन हिलाकर और आँखें घुमाकर नाचता है। वह किस ताल, धुन और संगीत पर नाचता है उसको सुनने की शक्ति शायद प्रकृति ने उसे ही दी है।


जेरल्ड डरैल - ब्रिटेन के मशहूर पशु-शास्त्री। उन्होंने कई किताबें लिखीं। उनकी पहली किताब ‘दी ओवरलोडिड आर्क’ बहुत लोकप्रिय हुई। 1956 में प्रकाशित उनकी किताब ‘माय फैमली एण्ड अदर ऐनीमल्स’ ने जेरल्ड को प्रख्यात लेखक बनाया और वे एक प्रकृतिवादी के रूप में जाने गए। उनके लेखन में प्रकृति और जानवरों के लिए प्रेम झलकता है।
यह लेख जेरल्ड डरैल की पुस्तक ‘दी ओवरलोडिड आर्क’ से लिया गया है।
हिन्दी अनुवाद - मृणालिनी श्रीवास्तव - स्वतंत्र रूप से लेखन और अनुवाद करती हैं। सी.बी.टी (चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट) से दो किताबें प्रकाशित। दिल्ली में रहती हैं।