पारुल सोनी

एक तयशुदा नज़रिए से प्रकृति को देखने की वजह से हम जीव-जगत की यौन विविधता का अन्दाज़ा नहीं लगा पाते। कई सरिसृप, मछलियाँ तो इस विविधता को दिखाती ही हैं लेकिन पौधे भी पीछे नहीं हैं। आप यौन विविधता के कई आयामों को पढ़ेंगे इस लेख में।

अक्सर हम प्रकृति को अपने नज़रिए से देखने के आदी हो जाते हैं और सृष्टि के समस्त प्राणियों को मनुष्यों के मापदण्डों से आँकने लगते हैं। हमें लगता है कि अगर मनुष्यों में ऐसा होता है तो समस्त जीव-जन्तुओं में भी ऐसे ही होगा। अक्सर हमारा ध्यान इस ओर नहीं जाता कि मनुष्यों समेत अपने आस-पास के संसार में इतना वैविध्य है।
यह तो हमें मालूम ही है कि विभिन्न जीवों के विकास एवं व्यवहार में गुणसूत्रों व जीन की भूमिका तो है ही, परन्तु यह भी पाया गया है कि पर्यावरणीय कारक भी जीवों के गुणधर्म तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
कुछ जीवों में तापमान जैसे कारक की वजह से अण्डे के अन्दर ही भ्रूण का लिंग परिवर्तन हो जाता है। जीवों के ऐसे ही कुछ हैरत अंगेज़ व्यवहार के बारे में यहाँ चर्चा करेंगे।

कभी नर, कभी मादा
प्रकृति में यह घटना बहुत सरलता और सहजता के साथ होती रहती है। जीव-जन्तुओं में यौन सम्बन्धी अनेक विविधताएँ देखने को मिलती हैं। उदाहरण के लिए कुछ ऐसे नर कृमि होते हैं जो मादा जोड़ीदार न मिलने पर वे खुद को ही मादा में बदल लेते हैं और दूसरे नर के साथ संसर्ग करने लगते हैं।

एक अन्य जीव है मोती देने वाला ऑयस्टर (Oyster)। यह समुद्र की तली में ठोस सतह पर स्थायी रूप से चिपका रहता है। ऑयस्टर, दूसरे प्राणियों की तरह संसर्ग नहीं करते। बल्कि वे अपने (युग्मक) जन्यु यानी गैमीट पानी में छितरा देते हैं और निषेचन (यानी फर्टिलाइज़ेशन) की प्रक्रिया उनके शरीर के बाहर सम्पन्न होती है। ऑयस्टर में यौन परिवर्तन अत्यन्त स्वाभाविक रूप से होता है। एक ऑयस्टर किसी एक दिन मादा हो सकता है, तो कुछ ही दिनों में वह नर हो सकता है। जब वह मादा होता है तो अण्डाणु निषेचित करने के लिए अपने गलफड़ों के रास्ते शुक्राणु युक्त पानी खींचता है और हफ्ते भर के भीतर वही नर बनकर शुक्राणु छोड़ने लगता है ताकि उसके आस-पास की मादाएँ प्रजनन कर सकें। इस तरह ऑयस्टर तेज़ी से खूब सारे बच्चे पैदा करता रहता है। एक अनुमान के मुताबिक एक वयस्क ऑयस्टर साल में दस लाख सन्तानों को पैदा कर सकता है।

छोटा समुद्री स्लेटर, हेमियो-नियूसकस बलानी भी यौन परिवर्तन करता है। ये प्राणी जब तक युवा और गतिशील बने रह पाते हैं तब तक तो वे नर होते हैं लेकिन जैसे ही वे चलने-फिरने में असमर्थ होते जाते हैं तो मादा बन जाते हैं। ये स्वभाव से परजीवी होते हैं और बरनाकल (एक समुद्री जीव) से चिपककर उनके ऊतकों यानी टिशू से भोजन प्राप्त करते हैं। जब वे नर की भूमिका में होते हैं तो वे एक बरनाकल से दूसरे बरनाकल तक यात्रा करते हुए मादाओं का गर्भाधान करते चलते हैं। जैसे ही उन्हें मादाहीन बरनाकल मिलता है तो वह अपना घूमना-फिरना छोड़कर मादा बन जाते हैं।
इसी तरह ऑस्ट्रेलिया की ग्रेट बैरियर रीफ में रहने वाली क्लीनर मछलियाँ समूह में रहती हैं। हर समूह में 8-10 मछलियाँ होती हैं और इनमें सिर्फ एक नर होता है। इनमें सबसे बड़ी मादा के पास सबसे बड़ा क्षेत्र होता है जो सिर्फ नर मुखिया के क्षेत्र के मुकाबले में ही छोटा होता है। बाकी मादाओं के अपने छोटे-छोटे अधिकार क्षेत्र होते हैं जिन्हें वे संचालित करती हैं। अगर नर अचानक मर जाता है तो सबसे बड़ी मादा उसकी जगह पर मुखिया बन जाती है और कुछ ही दिनों में वह सचमुच नर में बदल जाती है। और फिर समूह की मादाओं का गर्भाधान करते हुए एकदम नर की तरह व्यवहार करने लगती है। जब कोई मादा, नर में बदलती है तो वह हरा, नारंगी और पीला रंग धारण कर लेती है।

परवरिश करते नर
बच्चों की परवरिश को लेकर उभयचरों में कई तरह की विविधता देखी गई है। चिली के दक्षिणी तट पर पाए जाने वाले नोज़ फ्रोग नाम के छोटे मेंढक बच्चों के पालन-पोषण के लिए प्रसिद्ध हैं। चूँकि इनकी खोज डार्विन ने की थी इसलिए इनका नाम राईनोडर्मा डार्विनी पड़ गया है। जब मादा मेंढक अण्डे दे देती है तो उसके दो हफ्ते बाद नर मेंढक उसके ज़्यादा-से-ज़्यादा अण्डे निगल लेता है जिसकी वजह से वह गले से लेकर जाँघों तक फूल जाता है। वहाँ पर ये अण्डे नर के ऊतकों से पोषण प्राप्त करते हैं और फिर छोटे-छोटे मेंढक बन जाते हैं। इसके बाद वे नर के मुँह से बाहर आ जाते हैं।

ट्री फ्रोग भी कुछ इसी तरह अण्डों को धारण करता है, इस फर्क के साथ कि अण्डे उसके शरीर के पिछले हिस्से पर चिपके रहते हैं और जब उनका विकास पूरा हो जाता है तो नर उन्हें नदी या तालाब के किनारे छोड़ देता है।

तापमान से भी तय होता है शिशु का नर या मादा बनना

कई सरिसृपों का लिंग तापमान द्वारा निर्धारित होता है। इसका मतलब यह है कि अण्डे में से नर निकलेगा या मादा, यह अण्डे सेने के तापमान या अण्डे के आस-पास के तापमान पर निर्भर करता है। सेन्ट्रल बियर्डेड ड्रेगन लिज़र्ड में सामान्य से अधिक तापमान होने पर अण्डे की अवस्था में ही भ्रूण नर से मादा बन जाता है, पर मगरमच्छ में कुछ उल्टा होता है। इस बात की पुष्टि करने के लिए एक प्रयोग में मगरमच्छ के अण्डों को दो अलग-अलग तापमान पर रखकर देखा गया। अण्डों के एक समूह को 33 डिग्री सेंटीग्रेड पर सेने के लिए रखा गया और दूसरे समूह को 34 डिग्री सेंटीग्रेड पर रखा गया। विकास के तीन चरणों में से बीच का समय यानी अण्डे देने के 23 से 46 दिनों के दौरान, वह समय है जब तापमान से लिंग निर्धारित होता है। ऊँचे तापमान (34 डिग्री सेंटीग्रेड) पर रखे गए सभी अण्डों में से नर बच्चे पैदा हुए और कम तापमान (यानी 33 डिग्री सेंटीग्रेड) पर रखे गए अण्डों में से केवल मादा बच्चे पैदा हुए। चूँकि 33 डिग्री सेंटीग्रेड पर सभी मादाएँ और 34 डिग्री सेंटीग्रेड पर सभी नर पैदा हुए इसलिए यह निष्कर्ष निकालना गलत नहीं होगा कि क्रान्तिक तापमान (Critical Temperature) इन्हीं दो तापमानों के बीच में रहा होगा।

पाईप मछलियों की दुनिया में भी कुछ इसी तरह होता है। जब मादा अण्डे दे देती है तब नर, उन बीजाण्डों (Ovules) को सहेजने का काम करता है और उन्हें अपनी पूँछ के नीचे की दरार या अपने उदर में या थैली में रख लेता है जहाँ वे निषेचित होते हैं।
स्टीकलबैक मछली में नर अपनी जोड़ीदार मादा को अपने द्वारा बनाए दड़बे में बन्द कर देता है और जब तक वह अण्डे नहीं दे देती तब तक उसकी पहरेदारी करता है। एक बार मादा द्वारा अण्डे देने के बाद नर आगे की सारी कार्यवाही खुद सम्भालता है।

इन उदाहरणों में नर मेंढक और नर मछली इंक्यूबेटर की भूमिका में हैं। दरियाई घोड़े के मामले में तो नर और मादा की भूमिकाएँ कुछ उलट जाती हैं। प्रजनन के लिए तैयार होने पर मादा अपने निप्पल जैसे अंग से नर के पेट में मौजूद एक विशेष थैली में अण्डे छोड़ देती है। नर उन पर अपने शुक्राणु छोड़ता है। जैसे ही अण्डे निषेचित हो जाते हैं नर का पेट गोल आकार ले लेता है। कालान्तर में जब छोटे-छोटे दरियाई घोड़े उसके पेट में विकसित हो जाते हैं तो वह उन्हें समुद्र में छोड़ देता है।

तापमान से यौन परिवर्तन
आमतौर पर यह माना जाता है कि जीव-जन्तुओं के यौन निर्धारण का सारा दारोमदार या तो जीन पर होता है या तापमान पर। लेकिन ऑस्ट्रेलिया में हुए अनुसन्धानों से यह बात सामने आई है कि यौन-निर्धारण का मामला इतना सीधा-सपाट नहीं है। प्रयोगों से यह तथ्य सामने आया है कि जीन और तापमान दोनों मिलकर भी यौन निर्धारण कर सकते हैं, बल्कि कुछ मामलों में बढ़ता तापमान यौन निर्धारण में जीन की भूमिका को पीछे छोड़ देता है। इसका एक उदाहरण ऑस्ट्रेलिया के रेगिस्तान में पाई जाने वाली एक छिपकली है। यह छिपकली अण्डे की अवस्था में सामान्य से अधिक तापमान में नर से मादा में बदल जाती है। इसी का एक उदाहरण सेन्ट्रल बियर्डेड ड्रेगन लिज़र्ड है जिनका नर या मादा होना यूँ तो उनके सेक्स क्रोमोसोम पर निर्भर करता है लेकिन उनके इंक्यूबेशन के दौरान तापमान बढ़ जाए तो अण्डे के अन्दर रहते हुए भी उनका लिंग परिवर्तित हो जाता है।

पौधों में भी होता है लिंग परिवर्तन

मौसम से भी पौधों का लिंग परिवर्तन हो सकता है। कोई पौधा एक मौसम में पूरी तरह नर हो सकता है और दूसरे मौसम में मादा। ऐसी प्रक्रिया को जिसमें एक मौसम से अगले मौसम में लिंग परिवर्तन होता है, डाइफेज़ी कहा जाता है।

यदि एक इलाके में केवल नर या केवल मादा पौधे हुए तो प्रजनन असम्भव हो जाएगा। ऐसी स्थिति में पौधे अल्पसंख्यक लिंग में परिवर्तित हो जाते हैं। पोषण के वितरण से भी यह तय होता है कि पौधा नर रहेगा या मादा। मादा पौधे में बीज बनते हैं इसलिए उनमें ज़्यादा पोषण की आवश्यकता होती है। पौधों को मिलने वाली धूप की मात्रा में अन्तर होने से उनके प्रकाश संश्लेषण पर असर पड़ेगा। ज़ाहिर है कि जिन पौधों में ज़्यादा प्रकाश संश्लेषण होगा उनमें ज़्यादा भोजन भी संग्रहित होगा। अत: उनमें मादा बनने की सम्भावना बढ़ जाएगी। तनाव की स्थिति में नर लक्षण उभरने की सम्भावना ज़्यादा होती है। जैसे सूखे की स्थिति में (मिट्टी या वायु में नमी कम होना) ककड़ी-खीरा के पौधों में नर फूल ज़्यादा लगते हैं। शारीरिक क्षति की स्थिति में मादा लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। पपीते में देखा गया है कि यदि पौधे को चोट पहुँचे तो मादा फूल ज़्यादा लगने लगते हैं। मेपल (ऐसर पेनसिल्वेनिकम) में देखा गया है कि पर्याप्त रोशनी मिलने पर पौधे में नर फूल पहले बनते हैं मगर रोशनी के कम होने पर मादा फूल बनने लगते हैं। ऐसा ही स्नेक लिली में देखा गया है। एक प्रयोग में एक ही पौधे की दो शाखाओं को अलग-अलग परिस्थितियों (एक छायादार स्थान और एक धूपदार स्थान) में रखा गया तो छाया वाले हिस्से में नर फूल लगे जबकि धूप वाले हिस्से में मादा फूल खिले। यही स्थिति ऑर्किड में भी देखी गई है।
-- स्रोत में प्रकाशित लेख पर आधारित


इन छिपकलियों में तापमान किस तरह सेक्स जीन को निष्क्रिय कर देता है इसे हम एक अवलोकन से समझ सकते हैं। जिन अण्डों को सामान्य से अधिक तापमान में यानी 93.2 से 98.6 डिग्री फैरनहाइट (34-370C°) पर इंक्यूबेट किया जाता है उनमें एक नर के मुकाबले 16 मादाएँ पैदा होती हैं। इस प्रक्रिया के नतीजे में मादा बच्चे इसलिए पैदा होते हैं क्योंकि मुख्य जीन तथाकथित झ् सेक्स क्रोमोसोम पर होता है जिनकी संख्या नर लिज़र्ड में दो होती है और मादा में सिर्फ एक। तापमान बढ़ने के कारण इनमें से एक जीन निष्क्रिय हो जाता है जिसके नतीजे में नर (ZZ) मादा (WZ) में बदल जाता है।
कुल मिलाकर, नर और मादा की कोटियाँ उस तरह दो-टूक स्पष्ट या एक-दूसरे की विरोधी नहीं हैं जैसा कि हम उन्हें देखने के आदी हैं। स्वयं प्रकृति में जगह-जगह यह विभाजन धुँधला या बेमानी लगता है। मानो प्रकृति ने ही प्राणियों को इसकी गुंजाइश दी है कि वे अपनी ज़रूरत या रुचि के अनुसार अपनी लैंगिक भूमिकाओं को बदल सकते हैं।