स्कू
ली अनुभवों और इर्द-गिर्द की छोटी-छोटी चीजों पर विस्तृत बातचीत की संभावना से वो समय याद आया जब हम सब बच्चों के साथ बाहर खेल रहे थे और अचानक काँव-काँव का शोर सुनकर जो ऊपर देखा तो कौवों का झुंड हमारे ऊपर मंडरा रहा था। खेल रुक गया और बातचीत शुरू हो ग, कौओं के बारे में...

मैंने पूछा, “अरे, इतने सारे कौवे यहाँ कैसे आ गए?"
एक बच्चा बोला, "किसी को ढूंढ रहे हैं, दीदी"
दीदी, “किसको ढूंढ रहे हैं?"
— "बच्चा खो गया, उसे उसके माँ-बाप, भाई-बहन खोज रहे हैं।”
दीदी, "क्यों, बच्चा कहाँ चला गया होगा?"
—“उड़ना सीख रहा होगा, रास्ता भूल गया होगा।”
दीदी, “तो अब कैसे मिलेगा?"
—“सुंघकर ढूंढ लेंगे।”
—"इनकी आवाज़ सुनकर वह आ जाएगा।"
—“नहीं दीदी, वह घर से भाग गया है।"
दीदी, "अच्छा, तो बाकी कौवों को कैसा लग रहा होगा?"
— "उसकी माँ रोएगी।" (और एक बच्चे ने रोने का नाटक शुरू कर दिया। फिर इस नाटक पर सब हँसने लगे)
तभी सारे कौवे एकाएक बिखरकर उड़ गए।
एक बच्चे ने पूछा, “वो कहाँ चले गए?"
दूसरे बच्चे ने जवाब दिया, “उन्होंने देख लिया कि बच्चा यहां नहीं है।”

इस बातचीत के बाद मैं सोचने लगी यह बच्चे कितने संवेदनशील हैं। इनको पक्षियों का एक समूह भी एक परिवार नजर आता है। कौए के बच्चे को खोजने सभी निकले हैं लेकिन बच्चे माँ की भावनाओं से ज्यादा परिचित हैं, तभी तो कह रहे थे कि - उसकी माँ रो रही होगी। बच्चे यह समझते हैं कि जैसा उनके साथ होता है वैसा दूसरे प्राणियों के साथ भी होता होगा। साथ ही वे आदमी और पक्षियों के बीच के अंतर को भी समझते हैं, तभी तो उन्होंने कहा कि - कौवे बच्चे को सुंघकर खोज लेंगे। अपने जीवन के सामान्य अनुभवों को प्राणि-जगत से जोड़कर देखना और कल्पना करना कि प्राणियों के जीवन में भी ऐसा होता होगा। कौवों के इस झुंड ने पाँच मिनटों के लिए उन बच्चों के जीवन में एक खिड़की खोल दी थी। मेरा सौभाग्य था कि उस रामय वहां थी और उनके अंदर झांक पाई।

वेणु एंडले
एकलव्य, होशंगाबाद