डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन
जब भी कोई नई दवा या उपचार (गोली, इंजेक्शन आदि) खोजा जाता है और यह जांचना होता है कि यह काम कर रहा है या नहीं, तो इसके लिए शोधकर्ता या दवा कंपनी क्लीनिकल परीक्षण के लिए मरीज़ों का एक बड़ा समूह चुनते हैं। इस समूह को दो भागों में बांटा जाता है। इनमें से एक समूह को वास्तविक उपचार (गोली या इंजेक्शन) दिया जाता है। दूसरे समूह को वास्तविक उपचार नहीं दिया जाता है बल्कि उन्हें एक ‘नकली’ गोली या इंजेक्शन दिया जाता है। दूसरे समूह को कंट्रोल समूह कहते हैं। दोनों समूहों में से कोई भी यह नहीं जानता कि किसे क्या दिया जा रहा है लेकिन दोनों को विश्वास होता है कि उन्हें ही वास्तविक उपचार दिया जा रहा है। यह तुलनात्मक प्रयोग 4-6 हफ्तों तक किया जाता है। ऐसा करने का मकसद यह जांचना है कि क्या वह उपचार काम करता है, कितना सुरक्षित है और नकारात्मक और सकारात्मक साइड-इफेक्ट क्या हो सकते हैं।
परीक्षण
परीक्षण शुरू करने से पहले शोधकर्ता प्रत्येक प्रतिभागी को बुलाकर समझाते हैं कि यह परीक्षण सुरक्षा और प्रभाविता की जांच के लिए किया जा रहा है और उन्हें इसके किन संभावित साइड-इफेक्ट (सकारात्मक और नकारात्मक) का सामना करना पड़ सकता है। और प्रत्येक से पूछा जाता है कि क्या वह परीक्षण में भाग लेने को सहमत है। शोधकर्ता प्रतिभागियों को यह भी बताते हैं कि किन्हीं भी कारणों से किसी भी समय वे इस परीक्षण से हट सकते हैं।
प्रतिभागियों की प्रतिक्रियाएं महत्वपूर्ण होती हैं। उनमें से कुछ कहते हैं कि उन्हें अच्छा लगने लगा है। ऐसा कहते हुए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें दवा दी गई थी या केवल डमी दवा दी गई थी। इसे अक्सर प्लेसिबो प्रभाव कहा जाता है। ‘प्लेसिबो’ शब्द लैटिन भाषा से आया है जिसका अर्थ है “मैं खुश करूंगा”। उसकी देखभाल की जा रही है, मात्र यही सोचकर मरीज़ को मनोवैज्ञानिक रूप से लाभ मिलने लगता है। यह उसी तरह है जिस तरह कोई व्यक्ति अपने पारिवारिक चिकित्सक से मिलने भर से बेहतर महसूस करने लगता है।
आप चाहें तो किसी डमी गोली पर दवा का ब्राांड नाम चिपका दें, और कुछ मरीज़ों को लगेगा कि वह कारगर है। हारवर्ड मेडिकल स्कूल के डॉ. रैमी बस्र्टाइन की टीम ने एक प्लेसिबो गोली पर मैक्साल्ट का लेबल चस्पा कर दिया और पाया कि मरीज़ों को यह कारगर लगी। मैक्साल्ट माइग्रेन के इलाज में काम आती है। हालांकि वास्तविक मैक्साल्ट का असर बेहतर रहा किंतु लेबल बदलने से कुछ मरीज़ों में प्लेसिबो प्रभाव भी ज़्यादा रहा। इससे पता चलता है कि लेबल का असर प्लेसिबो के असर पर पड़ता है।
कुछ मरीज़ कीमत देखकर भी प्रभावित होते हैं। उन्हें लगता है कि दवा जितनी महंगी होगी, इलाज में उतनी ज़्यादा कारगर होगी। एमआईटी के डॉ. डैन एरिएली और उनके साथियों ने एक दर्द निवारक दवा की क्षमता के परीक्षण के लिए 82 लोगों को लिया। उन्होंने एक समूह के 41 लोगों को 2.50 डॉलर प्रति गोली की कीमत की दवा दी और बिजली के झटके से उत्पन्न दर्द पर इसके असर की जांच की। दूसरे समूह के 41 लोगों को यही दवा दी लेकिन उन प्रतिभागियों को बताया गया कि यह आकर्षक डिस्काउंट में खरीदी गई है। इनमें भी बिजली के झटके से उत्पन्न दर्द पर इसकी क्षमता की जांच की गई। जिन लोगों को डिस्काउंट वाली गोली दी गई थी उन्होंने दावा किया कि वे कम दर्द सहन कर पा रहे थे बजाय नियमित कीमत वाली गोली के। इससे लगता है कि लोगों में एक धारणा है कि महंगे उत्पाद बेहतर काम करते हैं। क्या यही बात हमें सौंदर्य प्रसाधनों और अन्य उत्पादों के साथ भी नज़र नहीं आती? कई कंपनियां अपने उत्पादों को फैंसी पैकेज में लपेटकर और खरीदार को लुभाकर उनके इसी विश्वास का फायदा उठाती हैं, यह भी प्लेसिबो प्रभाव का एक उदाहरण है।
चिकित्सकों और शोधकर्ताओं ने कुछ प्रतिभागियों में प्लेसिबो का उलट भी देखा। यहां प्रतिभागी को प्रतिकूल या नकारात्मक असर की आशंका होती है और वह ऐसे असर महसूस भी करता है। डॉ. वॉल्टर केनेडी ने 1961 में इस परिघटना पर शोध किया था। इस प्रभाव को ‘नोसिबो’ कहते हैं जिसका अर्थ है “मैं आपको नुकसान पहुंचाऊंगा”। यह प्लेसिबो जैसा ही है। डॉक्टर बताते हैं कि यदि प्रतिभागियों को बताया जाता है कि शायद इस उपचार का कुछ साइड-इफेक्ट (जैसे खुजली या दर्द) हो सकता है, तो इतना कहना ही कुछ प्रतिभागियों को ऐसे असर महसूस कराने के लिए पर्याप्त होता है।
नोसिबो का एक बहुत ही अनोखा उदाहरण डॉ. टिनरमैन और अन्य द्वारा साइंस के 6 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित हुआ था और साथ में लुआना कोलोका की टिप्पणी भी थी। शोधकर्ताओं ने एक त्वचा क्रीम को दो एक जैसे दिखने वाले पैकेट में पैक किया और एक पर ऊंची कीमत जबकि दूसरे पर सस्ती कीमत लिख दी। पैकेट पर उन्होंने यह चेतावनी भी दी कि यह क्रीम खुजली में तो आराम पहुंचाती है लेकिन थोड़ा दर्द हो सकता है। वालंटियर्स के जिस समूह ने ज़्यादा महंगी क्रीम का उपयोग किया, उन्होंने बताया कि उन्हें काफी दर्द महसूस हुआ। दूसरे समूह ने कम दर्द रिपोर्ट किया। शोधकर्ताओं ने परीक्षण के दौरान वालंटियर्स की रीढ़ की हड्डी और मस्तिष्क के कुछ हिस्सों का इमेजिंग किया। जिस समूह ने महंगी क्रीम चुनी थी उनकी तंत्रिका गतिविधि स्पष्ट रूप से अधिक थी। गौरतलब बात यह है कि न तो इस क्रीम से खुजली मिटती है और न ही दर्द होता है। कोलोका लिखते हैं कि “दर्द की संवेदना के (अलग-अलग) पूर्वानुमान के चलते स्वस्थ प्रतिभागियों ने क्रमश: गैर-दर्दनाक और कम-दर्दनाक संवेदना को दर्दनाक और उच्च-दर्दनाक की तरह महसूस किया। ज़ुबानी तौर पर प्रेरित नोसिबो प्रभाव वास्तविक दर्द जितना ही शक्तिशाली होता है।”
साझा निर्णय
व्यावसायिक चिकित्सा का विज्ञान सिक्के का एक पहलू है। प्लेसिबो-नोसिबो प्रभावों के चलते मरीज़ के सामाजिक-मनोवैज्ञानिक लक्षणों को समझना भी ज़रूरी व संभव हो जाता है। यह सिक्के का दूसरा पहलू है। प्रथम पहलू शरीर के लिए है और एक सख्त ‘विज्ञान’ है। लेकिन दूसरा पहलू, यह व्यक्ति-व्यक्ति के लिए अलग-अलग है और कुछ का दावा है कि यह एक ‘कला’ है। लिहाज़ा, मरीज़ की देखभाल में इसे शामिल किया जाना चाहिए। इसे ‘साझा निर्णय प्रक्रिया’ (एसडीएम) कहा जाता है। इस तरह इसका एक नैतिक आयाम भी है। दोस्ताना, पारिवारिक डॉक्टर एसडीएम की प्रैक्टिस करते आए हैं। अस्पतालों, दवा कंपनियों और बीमा कंपनियों को एसडीएम शामिल करने की ज़रूरत है। मगर आजकल इस काम में जितनी संख्याएं शामिल होती हैं और जितना पैसा दांव पर लगा होता है, उसे देखते हुए यह मुश्किल लगता है। मगर ऐसा नहीं करने के नैतिक निहितार्थ हैं। (स्रोत फीचर्स)