वैज्ञानिकों द्वारा ताज़ा जानकारी के अनुसार मानव गतिविधियों से उत्सर्जित कार्बन में 2 प्रतिशत वृद्धि देखने को मिल सकती है। इसका मुख्य कारण चीन में कोयले का बढ़ता उपयोग है। गौरतलब है कि विश्वअर्थ व्यवस्था में वृद्धि के बावजूद वर्ष 2014 से 2016 के बीच कार्बन उत्सर्जन एक स्तर पर थमा रहा था।
ये परिणाम राष्ट्र संघ की एक बैठक में प्रस्तुत किए गए जहां कई देश 2015 के पेरिस जलवायु समझौते लागू करने की तैयारी में हैं। पेरिस समझौते का मुख्य उद्देश्य ग्लोबल वार्मिंग को डेढ़ से दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि तक सीमित करना है। दुनिया के ग्रीनहाउस गैस उत्पादन में अनुमानित उछाल एक चुनौती है। अगर नवीनतम विश्लेषण सही साबित होता है, तो वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन 2017 में 41 अरब टन के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच जाएगा।
नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित उपरोक्त अध्ययन के एक शोधकर्ता कोरीन ला क्वेरे का कहना है कि उत्सर्जन में वृद्धि की बजाय वृद्धि की मात्रा ज़्यादा चकित करने वाली है। देखने वाली बात यह है कि क्या 2017 एक अपवाद था या यह स्थायी रुझान बनेगा। यही दर रही तो वर्ष 2018 और भी अधिक निराशाजनक हो सकता है।
वर्ष 2014 से 2016 में स्थिरता के मुख्य कारण विश्वके सबसे बड़े उत्सर्जक चीन में आर्थिक मंदी; संयुक्त राज्य अमेरिका में कोयले की जगह गैस का उपयोग और विश्व में सौर एवं पवन ऊर्जा का बढ़ता उपयोग रहे हैं।
ताज़ा विश्लेषण के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में यूएस और युरोपीय संघ में क्रमश: 0.4 प्रतिशत और 0.2 प्रतिशत की गिरावट जारी रहेगी। भारत में भी उत्सर्जन वृद्धि में कमी आने की संभावना है, पहले 6 प्रतिशत प्रति वर्ष थी, अब 2 प्रतिशत प्रति वर्ष हो जाएगी। परन्तु चीन में परिस्थिति उल्टी है। विश्व कार्बन उत्सर्जन में चीन का योगदान 26 प्रतिशत है और उसके उत्सर्जन में 3.5 प्रतिशत की वृद्धि होने की सम्भावना है, जो लगभग 10.5 अरब टन हो जाएगा। इसके मुख्य कारण देश में बढ़ते कारखाने और पनबिजली-ऊर्जा उत्पादन कम होना है।
उक्त आंकड़े बताते हैं कि हम जलवायु परिवर्तन के मामले में अभी सुरक्षित स्थिति में नहीं हैं और काफी अनिश्चितताएं बाकी हैं। (स्रोत फीचर्स)