क्या किसी व्यक्ति की सांस या शरीर की गंध का उपयोग यह पता लगाने में किया जा सकता है कि उसे कौन-सी बीमारी हुई है या होने वाली है? यह सवाल कई शोधकर्ताओं को लुभाता है। जैसे कुछ साल पहले रिपोर्ट आई थी कि एक स्कॉटिश महिला व्यक्ति की गंध के आधार पर बता सकती थी कि उस व्यक्ति को पार्किंसन रोग हुआ है। कहा तो यहां तक गया था कि रोग का पता चलने से काफी पहले ही वह ताड़ लेती थी।
दरअसल, शोधकर्ताओं की रुचि इस विषय में खास तौर से इसलिए है कि यह रोग निदान का एक बहुत ही आसान तरीका हो सकता है। न खून निकालना और न कोई उपकरण शरीर में डालना। बस सांस की जांच कीजिए और पता चल जाएगा कि कौन-सी बीमारी हुई है।
मगर कई वैज्ञानिकों को इसकी सफलता में बहुत शंका भी है। केमिकल सेंसेस नामक पत्रिका के हाल के अंक में बताया गया है कि मस्तिष्क में चोट लगने पर चूहों के पेशाब में परिवर्तन होता है और अन्य चूहों को पेशाब की गंध में हुए परिवर्तन को ताड़ने का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। इस शोध पत्र के लेखक मोनेल केमिकल सेंसेस सेंटर के गैरी बोचेम्प के मुताबिक पेशाब की गंध का सम्बंध मस्तिष्क में चल रही किसी प्रक्रिया से हो सकता है।
मगर गंध में अंतर को पकड़ना एक बात है और यह पता करना दूसरी बात है कि कौन से अणुओं में परिवर्तन हो रहा है। जब तक आप इस गंध परिवर्तन का आणविक आधार नहीं समझ लेते तब तक यह प्रयोगशाला का ही विषय रहेगा, अस्पतालों और निदान केंद्रों तक नहीं पहुंचेगा। मसलन, कुछ वर्षों पहले एक चिकित्सक रीड ड्वाइक ने पाया था कि एक खास बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों की सांस में एक खास किस्म की गंध थी जो सामान्य स्वस्थ व्यक्तियों की सांस में नहीं पाई गई। उन्हें लगा था कि यह गंध रोग-निदान का अच्छा लक्षण साबित हो सकती है मगर विश्लेषण करने पर पता चला था कि वह गंध अस्पताल में उपयोग किए गए एक सफाई घोल के एक रसायन की थी। इसका बीमारी से कोई सम्बंध नहीं था।
यह भी देखा गया है कि कार से निकलने वाला धुआं भी लोगों की सांसों की गंध को बदल देता है। ऐसे कई कारक हैं जिनका असर सांसों की गंध पर पड़ता है। इन सबको अलग करके बीमारी को ‘सूंघना’ फिलहाल तो दूर की कौड़ी है। अलबत्ता कई वैज्ञानिक इस कोशिश में लगे हैं कि ऐसी बीमारियों को लेकर गंध निदान विकसित किए जाएं जो आसानी से पकड़ में नहीं आतीं। जैसे मोनेल सेंटर के ही वैज्ञानिक इस बात पर शोध कर रहे हैं कि अंडाशय के कैंसर के लिए गंध आधारित परीक्षण विकसित किया जाए।
वैसे सांस के विश्लेषण पर आधारित एक परीक्षण को मंज़ूरी मिल भी चुकी है। यह देखा गया है कि दमा के मरीज़ की सांस में नाइट्रिक ऑक्साइड नामक गैस की मात्रा काफी अधिक होती है। इस आधार पर एक उपकरण विकसित किया गया है जिसके उपयोग की स्वीकृति अमेरिका में मिल चुकी है। इसे मोबाइल फोन से जोड़कर एक नई टेक्नॉलॉजी विकसित करने के प्रयास चल रहे हैं ताकि व्यक्ति को आगामी दौरे की चेतावनी दी जा सके। (स्रोत फीचर्स)