नेहा सी वी

ऐसा माना जाता था कि शून्य की अवधारणा को समझने के लिए जिस तरह की उन्नत संज्ञान दक्षता की ज़रूरत होती है, वह सिर्फ उन प्राणियों में पाई जाती है जिनमें मेरु रज्जू होता है अर्थात् विकसित कशेरुकी प्राणी।
संख्याओं की दुनिया में शून्य का एक विशेष स्थान है। वह क्या चीज़ है जो इसे अन्य संख्याओं से अलग करती है? गिनने का मतलब आम तौर पर यह होता है कि वस्तुओं के एक संग्रह को देखकर उनकी उपस्थिति की मात्रात्मक समझ बनाई जाए। किन्तु यह बात शून्य पर लागू नहीं होती। आप किसी ऐसी चीज़ की गिनती कैसे करेंगे जो ‘विद्यमान नहीं है’? आपको  कैसे  पता  चलेगा  कि अनुपस्थिति  को  एक  उद्दीपन (stimulus) के रूप में दर्ज करना है? अमूर्तीकरण का यह विचार शून्य का अनोखा गुण है जिसके साथ अधिकांश जीव जूझते हैं।

शून्य को समझने के चार अलग-अलग चरण होते हैं। पहला, ‘कुछ नहीं’ यानी किसी उद्दीपन विशेष की अनुपस्थिति को शून्य के रूप में परिभाषित करना। इसके बाद दूसरा चरण यह होता है कि शून्य की तुलना संख्याओं के परास (spectrum) की अन्य राशियों से की जाए। तीसरा चरण होता है शून्य को धनात्मक संख्या रेखा के सबसे निचले छोर पर रखना। और चौथा व सबसे उन्नत चरण यह है कि शून्य के साथ एक चिन्ह का सम्बन्ध बनाना और इस चिन्ह का उपयोग गणनाओं में करना।

जीवों में शून्य की समझ 
जन्तु जगत में ऐसे प्राणियों की कोई कमी नहीं है जिनके पास ज़बरदस्त बौद्धिक व संज्ञान-सम्बन्धी क्षमताएँ हैं - किन्तु बहुत ही थोड़े-से जीव एक रिक्त समूह को समझने की क्षमता रखते हैं। यहाँ तक कि मनुष्यों को भी लगभग चार वर्ष की उम्र तक यह अमूर्त अवधारणा समझने में दिक्कत होती है। रीसस बन्दर, चिम्पैंज़ी जैसे मानवेतर प्रायमेट्स तथा अफ्रीकी धूसर तोतों जैसे कुछ पक्षी भी इस मायावी अवधारणा को समझ पाते हैं। अत: यह मान लिया गया था कि ऐसी उन्नत संज्ञान दक्षता मात्र विकसित कशेरुकी जन्तुओं में पाई जाती है - वे प्राणी जिनमें मेरु रज्जू होती है।

अलबत्ता यह विश्वास पिछले महीने ऑस्ट्रेलिया के रॉयल मेलबोर्न इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में किए गए एक अध्ययन के आगे टिक न सका। इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दर्शाया कि ‘मेरु रज्जू विहीन’ मधुमक्खी संख्याओं की  एक  निरन्तरता  में  शून्य  को मात्रात्मक ढंग से महसूस कर सकती है।

मधुमक्खी में क्या है खास? 
इस अध्ययन के लिए मधुमक्खी को ही क्यों चुना गया? अध्ययन के निदेशक एड्रियन डायर के अनुसार, ‘मधुमक्खियाँ काफी पेचीदा पर्यावरण में विचरती हैं। वे फूलों से मकरन्द इकट्ठा करती हैं। यह सम्बन्ध लाखों वर्षों में विकसित हुआ है। इस वजह से वे दृष्टि आधारित सीखने में काफी बढ़िया  होती  हैं।’  ‘मधुमक्खियाँ मस्तिष्क की साइज़ और संज्ञान क्षमता की तुलना के लिहाज़ से बढ़िया मॉडल जन्तु हैं। कारण यह है कि मधुमक्खी को प्रशिक्षित किया जा सकता है और कई घण्टों-घण्टों तक परीक्षण किए जा सकते हैं। इसके परिणामस्वरूप उच्च गुणवत्ता के आँकड़े मिल जाते हैं जिनका सुदृढ़ सांख्यिकीय विश्लेषण किया जा सकता है।’

एक्सेल ब्रॉकमैन नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइन्सेज़, बैंगलुरु में एक  शोधकर्ता  हैं  जिनकी  रुचि मधुमक्खियों में पेचीदा व्यवहार के तंत्रिका व आणविक आधार को समझने में है। ‘मधुमक्खियों को भोजन के किसी स्रोत के बारे में प्रशिक्षित करने की सम्भावना जन्तुओं तथा खासकर कीटों की दुनिया में अनोखी है। भोजन-स्रोत-प्रशिक्षण  की  मदद  से  हम मधुमक्खियों से सवाल पूछ सकते हैं। इसके लिए मधुमक्खियों के भोजन के स्रोत पर लौटकर आने से पहले हमें स्थितियाँ या परिस्थितियाँ बदलनी होती हैं।’ किसी भोजन-स्रोत के लिहाज़ से मधुमक्खियों के प्रशिक्षण की इस विधि का श्रेय कार्ल फॉन फ्रिश को जाता है। उन्हें यह दर्शाने के लिए 1973 का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार दिया गया था कि मधुमक्खियों का नृत्य संप्रेषण का एक तरीका है।

पूर्व के अध्ययनों से यह पता चल चुका है कि मधुमक्खियाँ ऐसे कामों को अंजाम दे सकती हैं जिनमें काफी संज्ञान हुनर की आवश्यकता होती है: वे चीज़ों को गिन सकती हैं, मकरन्द संग्रह के स्थानों के बीच की दूरी का हिसाब रख सकती हैं, समय के साथ भोजन-स्रोत तक अपने यात्रा-मार्ग में सुधार कर सकती हैं, दिशा व दूरी सम्बन्धी सूचनाओं को अपने साथियों के साथ साझा कर सकती हैं, वगैरह।

मधुमक्खियों को शून्य सिखाना
डायर और उनके साथियों ने इन मधुमक्खियों से अमूर्तीकरण की क्षमता को लेकर सवाल किए। इसमें उन्होंने शून्य को एक उदाहरण के रूप में इस्तेमाल किया। इसका जवाब पाने के लिए उन्होंने मधुमक्खियों को यह सिखाया कि जब दो चित्र दिखाए जाएँ तो वे उनमें से बड़ी संख्या को पहचान लें। प्रत्येक तस्वीर में एक से लेकर छ: तक वस्तुएँ दिखाई जाती थीं। जब वे सही चुनाव करतीं तो उन्हें शकर के घोल का पारितोषिक मिलता था जबकि गलत उत्तर पर उन्हें कड़वा घँूट पीना पड़ता था यानी उन्हें एक घोल मिलता था जिसका स्वाद भयानक होता था।

इसी प्रकार से मधुमक्खियों के एक अन्य समूह को संख्याओं की जोड़ी में से छोटी संख्या चुनना सिखाया गया।
जब मधुमक्खियाँ छोटी या बड़ी संख्याओं को ठीक-ठीक पहचानना सीख गईं, तो उन्हें ऐसी परिस्थिति में रखा गया जहाँ उन्हें अपरिचित विकल्पों के बीच चुनाव करना था। इसमें एक तस्वीर में कोई वस्तु नहीं थी (जिसे रिक्त समूह कहा गया) और दूसरी तस्वीर में एक से लेकर छ: तक वस्तुएँ दर्शाई गई थीं।

जिस समूह की मधुमक्खियों को छोटी संख्या चुनने का प्रशिक्षण दिया गया था, उन्होंने इस नई परिस्थिति में हर बार रिक्त समूह को चुना। दूसरी ओर जिस समूह को बड़ी संख्या चुनना सिखाया गया था, उसने हर बार रिक्त समूह के विरुद्ध चुनाव किया।
इन परिणामों से लगता है कि मधुमक्खियाँ अपनी ‘सीखी’ हुई संख्यात्मक अवधारणा की समझ को अनजान परिस्थितियों पर लागू कर सकती हैं। इसके अलावा, मधुमक्खियाँ यह भी समझती हैं कि बगैर वस्तु वाली तस्वीर - जो शून्य के तुल्य है - अन्य संख्याओं की तुलना में छोटी संख्या की द्योतक है। अर्थात् उन्होंने शून्य को धनात्मक संख्या रेखा के निचले छोर पर रखा।

जैसे-जैसे शून्य के रूबरू ज़्यादा बड़ी संख्याओं को प्रस्तुत किया गया, मधुमक्खियों के चुनाव की सटीकता भी बढ़ती गई। उदाहरण के लिए, संख्याएँ  शून्य  और  1  होने  पर मधुमक्खियाँ हर बार भेद नहीं कर पाईं किन्तु पाँच-छ: को शून्य के रूबरू रखने पर लगभग हर बार उनका निर्णय सही रहा। इससे यह निष्कर्ष और भी पुख्ता हो जाता है कि मधुमक्खियाँ संख्याओं के निरन्तर क्रम को समझती हैं और यह भी समझती हैं कि इस निरन्तरता में रिक्त समूह का स्थान कहाँ है।

उक्त परिणाम यह दर्शाते हैं कि मधुमक्खियाँ शून्य को उपरोक्त चरण 3 तक समझती हैं। यह अपने आप में एक रोमांचक खोज है। अलबत्ता, जो चीज़ इस अध्ययन को आश्चर्यजनक बना देती है, वह यह है कि मधुमक्खियों के मस्तिष्क पक्षियों और प्रायमेट्स से बहुत भिन्न होते हैं। हालाँकि, कुछ हद तक सूचनाओं का प्रोसेसिंग एक जैसे ढंग से किया जाता है, किन्तु इस संज्ञान कार्य के लिए जो संरचना है वह  वैकासिक  इतिहास  (यानी फायलोजेनी) की दृष्टि से बहुत अलग-अलग है। तो सवाल यह है कि फिर इन कीटों में इतने जटिल संख्यात्मक कार्य करने की क्षमता कैसे विकसित हुई?

अध्ययन के लेखकों का मानना है कि यह अभिसारी विकास अर्थात् कॉनवर्जेंट इवोल्युशन (यानी विभिन्न रास्तों से विकास का एक ही परिणाम हासिल होने) का उदाहरण है। हो सकता है कि कीटों में यह क्षमता कशेरुकियों की तुलना में एक भिन्न मार्ग से स्वतंत्र रूप से विकसित हुई होगी।

कीट मस्तिष्क - संकेतों की प्रोसेसिंग
ब्रॉकमैन का कहना है कि “हालाँकि, कीटों के मस्तिष्क और कशेरुकियों के मस्तिष्क फायलोजेनेटिक दृष्टि से अलग-अलग हैं, किन्तु दृश्य व गन्ध प्रणालियों में कुछ समानताएँ हैं, जो सम्भवत: इसलिए विकसित हुई हैं क्योंकि दोनों को संकेतों का एक जैसा प्रोसेसिंग करना होता है।” “चूँकि हम नहीं जानते कि शून्य की अवधारणा विकसित करने के लिए किस तरह के तंत्रिका परिपथ की ज़रूरत होती है, इसलिए हम इस सवाल का जवाब नहीं दे सकते कि (इन दो किस्म के जीवों में) यह एक जैसा है या नहीं। और तो और, हमें तो यह भी नहीं पता कि शून्य की अवधारणा के लिए किसी जटिल परिपथ की ज़रूरत है भी या नहीं।”

यह विचार करना भी दिलचस्प होगा कि किस तरह के वैकासिक दबाव ने कीटों में इस क्षमता को आकार दिया है। गिनने और संख्याओं को क्रमबद्ध करने - यानी संख्यात्मक दक्षता - की क्षमता प्राणि जगत में काफी आम है और इससे आवागमन, भोजन-स्रोत के उपयोग, शिकार होने से बचने और सम्भोग-साथी तलाशने में मदद मिलती है। अर्थात् गिनती का अनुकूलक लाभ तो स्पष्ट है किन्तु ‘कुछ नहीं’ को उद्दीपन के रूप में समझने का महत्व स्पष्ट नहीं है।

वैसे यह क्षमता विभिन्न विकल्पों के बीच तुलना करने में उपयोगी हो सकती है। इस सन्दर्भ में ब्रॉकमैन की एक परिकल्पना है: ‘उदाहरण के लिए, मान लीजिए आप कुछ मधुमक्खियों को बनावटी फूलों के साथ प्रशिक्षण देते हैं। इन फूलों में अलग-अलग मात्रा में या अलग-अलग गाढ़ेपन का शकर का घोल है। अब कोई प्रायोगिक परिस्थिति ऐसी हो सकती है जिसमें फूलों के एक समूह में कम सान्द्रता का यानी कम मात्रा में शकर का पानी है। दूसरे समूह मेंकुछ ऐसे फूल हैं जिनमें बहुत अधिक या गाढ़ा शकर का पानी है जबकि अधिकांश में शकर का घोल है ही नहीं। इनमें से कौन-सा समूह ज़्यादा लाभदायक होगा, इसका हिसाब करने के लिए शायद मधुमक्खियों को शून्य की अवधारणा की ज़रूरत पड़ेगी। यह सम्भावना है।’

‘कुछ नहीं’ को एक जायज़ उद्दीपन में बदलने की क्रियाविधि एक गुत्थी है। हम जानते हैं कि संख्याओं को पहचानने के लिए कौन-सी तंत्रिकाएँ ज़िम्मेदार हैं, फिर भी ‘सिफर’ को एक जायज़ उद्दीपन के रूप में महसूस करना तंत्रिकाओं के लिए एक अनोखी समस्या है। उदाहरण के लिए, प्रकाशीय तंत्रिकाएँ तब सक्रिय होती हैं जब वे प्रकाश की अनुभूति एक उद्दीपन के रूप में करती हैं। इस संकेत की अनुपस्थिति में वे सुप्त पड़ी रहती हैं। तो संख्या प्रोसेसिंग इकाई के अन्दर ऐसे कौन-से पहचान केन्द्र हैं जो उद्दीपन के न होने पर सक्रिय होकर संकेत दागते हैं और उसे शून्य के अमूर्त सन्देश में तबदील कर देते हैं? इस बात को अभी समझा नहीं गया है।


नेहा सी वी: जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइन्टिफिक रिसर्च, बैंगलुरु में आणविक व कोशिका जीव विज्ञान की स्नातकोत्तर छात्र हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
यह अध्ययन साइंस पत्रिका के 8 जून, 2018 के अंक में प्रकाशित हुआ था।