कालू राम शर्मा

एक सरल प्रयोग के ज़रिए खुलासा
पीपल   और   तुलसी   रात   में ऑक्सीजन छोड़ते हैं। यह बात अक्सर कह दी जाती है। सोशल मीडिया पर तो इस तरह की जानकारियाँ आसानी-से उपलब्ध हैं। इसके साथ ही आजकल गाय का भी ज़िक्र आने लगा है। किसी न्यायाधीश ने रिटायरमेंट के एक दिन पहले कह दिया था कि गाय एकमात्र ऐसा प्राणि है जो श्वसन में ऑक्सीजन ही लेता है और ऑक्सीजन ही छोड़ता है। क्या यह सही है?

संदर्भ के अंक-112 में सजीव-निर्जीव के बहाने श्वसन को समझना शीर्षक से मैंने एक लेख लिखा था। इस लेख में बीजों में श्वसन का पता करने के लिए एक प्रयोग सुझाया था। यह प्रयोग हमने पिछले वर्ष गर्मी की छुट्टियों में आयोजित आवासीय कैम्प में शिक्षकोें के साथ किया था। इसी सेटअप में पीपल की पत्तियों को तोड़कर 50 मि.ली. वाली इंजेक्शन की सीरिंज में रात के अँधेरे में कुछ घण्टों के लिए रखकर देखा। दूसरे दिन अलसुबह इस सीरिंज की हवा को चूने के पानी में प्रवेश करवाया। चूने का पानी दूधिया हो गया जो कार्बन डाईऑक्साइड की उपस्थिति का प्रमाण है।

प्रयोग सफल रहा मगर शिक्षकों ने अपने ही द्वारा किए गए प्रयोग पर सवाल उठा दिया। उनका कहना था कि हमने तो पीपल की पत्तियों को तोड़ लिया। हो सकता है कि पीपल की पत्तियों को तोड़ लेने पर ये कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ रही हों। वे कह रहे थे कि प्रयोग इस तरह से डिज़ाइन किया जाए कि पत्तियाँ पेड़ पर ही लगी रहें। उनका यह सवाल वैज्ञानिक दृष्टि से जायज़ था।

समाज में यह मान्यता है कि पीपल का पेड़ दिन-रात ऑक्सीजन छोड़ता है, जबकि शेष पेड़-पौधे दिन के समय ऑक्सीजन छोड़ते हैं और रात के समय अँधेरा होने के बाद, वे भी जन्तुओं के समान कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ने लगते हैं। आगे चलकर तुलसी को भी पीपल की श्रेणी में रख लिया गया। विज्ञान व वनस्पति विज्ञान पढ़े हुए कुछ लोग भी इसकी व्याख्या कुछ इस तरह से करने लगते हैं कि वाकई में पीपल और तुलसी दिन-रात ऑक्सीजन छोड़ते हैं। मैंने वनस्पति विज्ञान की डिग्री लिए कुछ लोगों से सुना है कि इनमें रात में भी प्रकाश संश्लेषण की क्रिया चलती रहती है। वे इसमें कुछ भारी-भरकम अवधारणाओं को जोड़ देते हैं तो यह बात सही लगने लगती है। जैसे पीपल, तुलसी वगैरह में ‘लाइट रिएक्शन’ रात में भी होता रहता है। अभी इसमें नहीं जा रहे हैं कि लाइट रिएक्शन, डार्क रिएक्शन वगैरह क्या होते हैं।

तो प्रयोग पर लौटते हैं। शिक्षकों ने यह तो माना कि टूटी हुई पत्तियाँ रात में कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ती हैं मगर इस आधार पर वे यह मानने को तैयार नहीं थे कि पेड़ पर लगी पत्तियाँ भी ऐसा ही करती होंगी। इसे जाँचने की ज़रूरत है।

उन्होंने न सिर्फ इस प्रयोग पर सवाल उठाया बल्कि प्रयोग की डिज़ाइन पर भी सोचा। ज़ाहिर है कि मनुष्य द्वारा साँस में छोड़ी गई हवा की जाँच के लिए आसान-सा प्रयोग उपलब्ध है जो पाठ्यपुस्तकों में भी शामिल किया गया है। चूने के पानी में स्ट्रॉ या नली से साँस फूँकी जाए तो चूने का पानी दुधिया हो जाता है। यह प्रयोग करना आसान है क्योंकि मनुष्य साँस लेने और छोड़ने का काम एक विशेष अंग से करते हैं - या तो मुँह से या नाक से। मगर पेड़-पौधों में व्यवस्था फर्क होती है। पत्तियों में स्टोमेटा नामक बारीक छिद्र होते हैं जिनके ज़रिए वे हवा का आदान-प्रदान करते हैं। इन्हीं स्टोमेटा के ज़रिए पानी भी उड़ता रहता है (फलों, तनों इत्यादि में हवा के आदान-प्रदान के लिए लेंटिसेल होते हैं)। हम सोचने लगे कि क्या प्रयोग हो सकता है जिससे हम बिना तोड़े, पेड़ पर ही लगी पत्तियों की जाँच कर सकें।

कुछ शिक्षकों ने निहायत सरल-सा प्रयोग  सुझाया  कि  एक  पारदर्शी पॉलीथीन की थैली में चूने का पानी ले लें और उसमें पीपल के पेड़ पर लगी पत्तियों को अन्दर करके टहनी को धागे या रबर बैंड से बाँध दें। रात को पॉलीथीन में चूने का पानी रखकर और उसमें पत्तियों को अन्दर करके सुबह-सुबह अवलोकन किया जाए। अगर चूने का पानी दुधिया हो जाए तो समझेंगे कि पीपल रात में कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ता है।

हमने पीपल के पेड़ के चुनाव के लिए साइट की तलाश की। शहर में ही पीपल के कई पेड़ दिखाई दिए। उनमें से हमने ऐसी जगह को चुना जहाँ कोई पशुु इत्यादि प्रयोग के सेटअप को क्षति न पहुँचाए व हमारी पहुँच में पत्तियाँ हों ताकि पॉलीथीन बाँधने में मशक्कत कम-से-कम हो।
चूने का पानी बनाने के लिए बाज़ार से चूने की एक डिबिया लेकर प्लास्टिक बोतल में सादे पानी में चूने का घोल बना लिया गया। कुछ ही देर में चूने के घोल का पारदर्शी हिस्सा निथारकर अलग कर लिया गया।

शाम साढ़े सात बजे प्रयोग को सेट करने के लिए पीपल की पत्तियों की धूल उड़ा दी। पारदर्शी पॉलीथीन में 20-25 मि.ली. चूने का पानी लिया और पत्तियों को उसके अन्दर कर दिया। और एक टहनी के ऊपर से पॉलीथीन के मुँह को रबर बैंड लगाकर पैक कर दिया।

यही प्रयोग तुलसी, कनेर और नीम पर भी आज़माया।
लगभग पौन घण्टे के बाद देखा तो हमारी खुशी का ठिकाना न रहा! पॉलीथीन में चूने का पानी दुधिया हो गया था। इस सरल-से प्रयोग से यह साबित हुआ कि पीपल की पत्तियाँ रात में कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ती हैं।

पिछले वर्ष शिक्षकों के साथ यह चर्चा भी हुई थी कि दरअसल, श्वसन तो दिन-रात अटूट चलने वाली प्रक्रिया है। पौधों में यह दिन में भी चलती है मगर दिन में पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण भी करते हैं जिसमें भारी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड की खपत होती है। इसलिए पत्तियों में श्वसन के दौरान उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड अन्दर ही प्रकाश संश्लेषण में इस्तेमाल हो जाती है। इसलिए दिन में कार्बन डाईऑक्साइड जाँचने वाला प्रयोग सफल नहीं हो पाता। रात में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया रुक जाती है इसलिए श्वसन के दौरान निकलने वाली कार्र्बन डाईऑक्साइड को इस प्रयोग से जाँचा जा सका।

इस प्रयोग की डिज़ाइन का श्रेय कैम्प के शिक्षकों को ही दिया जाना चाहिए जिन्होंने इस मामले में सोचा और सुझाया। यह निहायत ही सरल-सा प्रयोग है जो बच्चों के साथ किया जा सकता है। यह प्रयोग आप स्वयं भी करके देखिए और बच्चों के साथ भी कीजिए।

एक और खुलासा...
पीपल, तुलसी वगैरह में श्वसन की जाँच के विचार के बाद लगा कि गाय को क्यों छोड़ दिया जाए। गाय को लेकर भी काफी चर्चाएँ हैं। उल्लेखनीय है कि कुछ महीनों पहले जयपुर के रिटायर्ड जज ने गाय द्वारा ऑक्सीजन छोड़ने को लेकर बयान दिया था।

गाय श्वसन में कौन-सी गैस छोड़ती है, इसे भी जाँच लिया जाना चाहिए। तरीका वही था। एक पॉलीथीन की पारदर्शक बड़ी थैली ली। इसमें तकरीबन 100 मि.ली. चूने का पानी लिया और इसे गाय के मुँह पर चढ़ाकर रखा गया। गाय के मुंह पर चढ़ी थैली में देखा जा सकता था कि गाय साँस ले रही है या छोड़ रही है। जब गाय साँस खींचती तो पॉलीथीन की थैली सिकुड़ती थी, जब साँस को बाहर छोड़ती तो थैली फूल जाती। जब गाय साँस छोड़ती तो थैली को थोड़ा हिला भर दिया गया ताकि छोड़ी वायु चूने के पानी के सम्पर्क में आ सके।
कोई दस बार गाय ने साँस छोड़ी और इतने में ही चूने का रंगहीन पानी दुधिया हो गया।

दरअसल, वातावरण की हवा के संघटन को देखें तो पता चलता है कि हवा में ऑक्सीजन की मात्रा 20.9%, नाइट्रोजन 78.1%, कार्बन डाईऑक्साइड 0.03% और अन्य गैसें 0.94% होती हैं। जब हम साँस लेते हैं तो हवा का यह मिश्रण नाक के ज़रिए फेफड़ों में जाता है। सजीव जगत में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जो नाक में, हवा में से ऑक्सीजन को छानकर ले सके। यह काम तो फेफड़े या गलफड़े ही कर सकते हैं। लिहाज़ा, हमारी तरह गाय भी साँस अन्दर खींचती है और फेफड़ों में हवा जाती है जहाँ फेफड़े हवा में से ऑक्सीजन को ग्रहण करते हैं और बदले में कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ देते हैं।
हम जो साँस छोड़ते हैं उसमें ऑक्सीजन का प्रतिशत कम हो जाता है। फेफड़े हवा में से ऑक्सीजन लेते तो हैं मगर पूरी-की-पूरी ऑक्सीजन नहीं ले पाते। इस तरह से देखें तो ली गई हवा में ऑक्सीजन 21 प्रतिशत के आसपास होती है और छोड़ी गई हवा में लगभग 16 प्रतिशत। और उस हवा में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा 0.03% से बढ़कर लगभग 4% हो जाती है।
यहाँ यह ज़िक्र करना प्रासंगिक होगा कि हम जो हवा छोड़ते हैं उसमें ऑक्सीजन की प्रतिशत मात्रा थोड़ी ही कम होती है। इसीलिए कई बार प्राथमिक उपचार के रूप में माउथ-टू-माउथ रेस्पिरेशन देना जीवनदान दे सकता है।


इस लेख में जो जाँच-पड़ताल की गई है, उसमें अगर तुलना (control experiment) के कुछ आयाम जोड़े जाएँ तो उनकी विश्वसनीयता और बढ़ सकती है। इसलिए सुझाव है कि पाठक/शिक्षक इस आयाम को जोड़ते हुए इन प्रयोगों को करके देखें और हमें बताएँ ताकि खोजबीन का सिलसिला आगे बढ़े।

—सम्पादक मण्डल


कालू राम शर्मा: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, खरगोन में कार्यरत। स्कूली शिक्षा पर निरन्तर लेखन। फोटोग्राफी में दिलचस्पी।

सभी फोटो: कालू राम शर्मा।