अंकित

हवा के प्रयोग बच्चों के साथ
विज्ञान पर चर्चा करते हुए हमेशा  ही यह बात ज़हन में होती है कि बच्चे विज्ञान को अपने आसपास से जुड़ा पाएँ। इसी बात का ख्याल रखते हुए आज मैंने कक्षा में बच्चों के साथ हवा पर कुछ चर्चा करने की कोशिश की।
शुरुआत इस सवाल से हुई, “ऐसा क्या है जो इस कमरे में है पर हम देख नहीं सकते?”

बच्चों ने जवाब दिए, “हमारे अन्दर के अंग जैसे दिल और फेफड़े। हम इन्हें और खुद को नहीं देख सकते, पर हम हैं।”
इस पर मैंने कहा, “दूसरे तुम्हें देखकर बता सकते हैं कि तुम हो।”

थोड़ा वक्त गुज़रने के बाद अंश (आठ साल) और अंकिता (नौ साल) ने कहा, “सर, वो हवा है।” अंश का ज़्यादा ज़ोर ऑक्सीजन और कार्बन डाईऑक्साइड पर था।
मैंने पूछा, “तुम्हें कैसे पता चला या तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि इस कमरे में हवा है?”

अंश ने कहा, “हमें विज्ञान विषय पढ़ाने वाली मैडम ने बताया था।”
फिर मैंने पूछा, “अगर ऐसा है तो क्या हवा हर जगह है?” सभी बच्चों ने एक साथ कहा, “हाँ।”

मैंने उन्हें कुछ सामान (कप, बोतल, बिना ढक्कन की बोतल, दोनों साइड से खुली बोतल, प्लास्टिक मग) दिखाते हुए पूछा, “क्या इन सभी चीज़ों में हवा है?”
उनके जवाब मिलेजुले थे। केवल देवेंद्र (दस साल) को लगता था कि सभी चीज़ों में हवा है। बाकी बच्चों को लगता था कि कुछ चीज़ों में हवा नहीं है।

आशीष, गोपाल (दस साल), अंश (आठ साल) और रोशनी (नौ साल) का जवाब था -

  • बन्द बोतल में हवा है जबकि बिना ढक्कन की बोतल में से हवा निकल  चुकी है।
  • मग में हवा नहीं है क्योंकि उसका मुँह खुला है।
  • जिस कप में से चाय पी चुके हैं  या खाली कप में हवा नहीं है।

मैंने सभी बच्चों से कहा, “आप को जो भी लगता है, अपनी कॉपी में लिख लें और क्लास के अन्त में अगर अपनी राय में कुछ बदलाव आते हैं तो बताना।”
गतिविधि की शुरुआत हमने एक पानी से भरी बोतल से की। मैंने बच्चों को बोतल देकर, उसे दबाकर देखने के लिए कहा। बच्चों ने कहा, “बोतल पूरी तरह से नहीं दबती।” मैंने पूछा, “ऐसा क्यों होता है?” बच्चों का जवाब था, “क्योंकि उसमें पानी भरा है इसलिए वो नहीं दबती।”

तब मैंने कहा, “अब बोतल का पानी निकालकर, ढक्कन लगाकर बोतल को दबाकर देखो।” बच्चों ने पाया कि अभी भी बोतल पूरी तरह से नहीं दबती है। मैंने पूछा, “ऐसा क्यों हुआ?” बच्चों ने कहा, “क्योंकि उसमें हवा है।”
फिर मैंने बोतल का ढक्कन खोल दिया और पूछा, “अब आपको क्या लगता है, इसमें हवा है या नहीं?”
ज़्यादातर बच्चों ने कहा कि इसमें हवा नहीं है। मैंने कहा, “फिर तो कप में और मग में भी हवा नहीं होगी।” बच्चों ने एक साथ कहा, “हाँ।”

मैंने बच्चों से कहा, “आप सभी अपने मँुह से अपने हाथ पर फूँक मारें। अब आपने क्या महसूस किया?” बच्चों ने कहा, “हमने हवा महसूस की।” फिर मैंने बिना ढक्कन की बोतल देते हुए कहा, “इसका मुंह अपने गाल के पास ले जाकर दबाओ।” ऐसा करने पर बच्चों ने पाया कि गाल पर हवा महसूस होती है। अब बच्चों का जवाब था, “बोतल में हवा है”। मैंने पूछा, “अब इस कप और मग के बारे में आपका क्या ख्याल है?” बच्चों ने कहा, “इसमें भी हवा होगी।”

हवा और बुलबुले
फिर बात को आगे बढ़ाते हुए मैंने पूछा, “हवा और कहाँ-कहाँ हो सकती है।” बच्चों ने कहा, “सब जगह।” मैंने बोर्ड पर लिखने वाली चॉक और ईंट का टुकड़ा दिखाते हुए पूछा, “क्या इसमें हवा है?” बच्चे एक सुर में बोले, “नहीं सर, इसमें हवा हो ही नहीं सकती है।”
मैंने कहा, “अब हम जानने की कोशिश करते हैं कि चॉक और ईंट के टुकड़े में हवा है या नहीं। (मुझे ऐसा लगता है कि यहाँ बच्चों को खुद ही इसके तरीके खोजने देना चाहिए था।)
बच्चों ने बारी-बारी से चॉक और ईंट के टुकड़े को पानी में डालकर देखा तो पाया कि दोनों वस्तुएँ पानी में डालने पर बुलबुले बनते हैं।

मैंने पूछा, “बुलबुले क्यों निकलते हैं?” सभी बच्चों के अलग-अलग जवाब थे। अंश ने कहा, “जब पानी में वस्तु नीचे जाती है तो पानी में बुलबुले बनते हैं।”
इसे समझने के लिए हमने एक और गतिविधि की, जिसमें एक पानी से भरी बाल्टी में एक कप उल्टा डाला (बिना तिरछा किए)। मैंने बच्चों से पूछा, “पानी कप में जाएगा या नहीं?” सभी बच्चों का जवाब था कि पानी कप में जाएगा। पर जब उन्होंने देखा कि पानी नहीं गया तो वे आश्चर्य  और रोमांच से भर उठे कि ऐसा क्यों हुआ। कुछ बच्चे अभी भी यह मानने को तैयार नहीं थे कि पानी अन्दर नहीं जाता। तो हमने एक कागज़ को कप के अन्दर फंसाकर कप को पानी में डाला। बाहर निकालने पर जब बच्चों ने कागज़ को सूखा पाया तो उनकी जिज्ञासा और बढ़ गई। सब सोचने पर मजबूर हो गए कि आखिर ऐसा हुआ क्यों।

मैंने पूछा, “क्या तुमने कभी गाड़ी के टायर का पंक्चर बनते देखा है?” सभी बच्चे यह जानते थे, उन्होंने बताया कि पहले ट्यूब में हवा भरी जाती है फिर उस ट्यूब को पानी में डुबोया जाता है जिससे हमें यह पता चलता है कि पंक्चर किस जगह पर है।
मैंने पूछा, “पर उस जगह पर होता क्या है?”

एक बच्चे ने जवाब दिया, “वहाँ से हवा निकल रही होती है।” मैंने पूछा, “और बुलबुले?” सभी ने कहा, “बुलबुले भी।”
फिर मैंने पूछा, “क्या पानी ट्यूब के अन्दर जा रहा होता है?” सभी का कहना था, “बुलबुले निकलते हैं और पानी अन्दर जा रहा होता है।” बच्चे ऐसा मानकर चल रहे थे कि ट्यूब के अन्दर पानी जाता है और हवा निकलती है। मुझे लगा अभी इस बात को यहीं रहने देना चाहिए, इसके आगे की बात को एक अन्य प्रयोग के माध्यम से ही स्पष्ट होने देना चाहिए (इसके लिए जो अन्य गतिविधि सोची उसका ज़िक्र आगे किया है)।
मैंने पूछा, “क्या तुम अब बता सकते हो कि चॉक से बुलबुले क्यों निकलते हैं?” सभी ने कहा, “पानी अन्दर जाता है और हवा के साथ बुलबुले बाहर आते हैं।”

दूसरा दिन
आज बच्चे सुबह से ही उत्साहित थे। उन्होंने पहले ही पीरियड में विज्ञान पढ़ने का निर्णय लिया (आनन्द निकेतन एक डेमोक्रेटिक स्कूल है जहाँ बच्चे रोज़ अपनी योजना खुद बनाते हैं कि आज क्या-क्या पढ़ना है और किस क्रम में पढ़ना है)।
पिछली क्लास में मैंने कुछ बच्चों को गुब्बारे लाने के लिए कहा था, सो वे लेकर आए थे। सबसे पहले मैंने बच्चों से पूछा, “आपको क्या लगता है, अब हवा कहाँ-कहाँ है?” बच्चों का जवाब था, “हवा सब जगह है।”

फिर मैंने बच्चों से पूछा, “पिछली क्लास में मैंने आपको बिना मुँह लगाए गुब्बारे फुलाने का जो काम दिया था उसके बारे में क्या आप कुछ सोच पाए?” ये सवाल छिड़ते ही चल पड़ा चर्चाओं का दौर। सामने पड़े सामान को देखते हुए गोपाल ने कहा, “सर मैं उस बोतल की मदद से गुब्बारा फुला सकता हूँ।” मैंने पूछा, “कैसे?” उसने कहा, “बोतल के मुँह पर गुब्बारा लगाकर, अगर बोतल के दूसरे सिरे से फूँक मारें तो गुब्बारा फूल सकता है।”

सभी बच्चों ने इस तरकीब से गुब्बारा फुलाने की कोशिश की, पर कामयाबी नहीं मिली। मैंने पूछा, “ये तरीका मुश्किल क्यों है?” सभी का जवाब था, “बोतल का मुँह पीछे से बहुत बड़ा है, इसलिए सारी हवा गुब्बारे में जाने की बजाए बाहर निकल रही है।” मैंने पूछा, “क्या और कोई तरीका हो सकता है?” गोपाल ने फिर से कहा, “सर एक और तरीका है, यदि बोतल के मुँह पर गुब्बारा लगाकर बोतल को दबाएँ तो वो फूल जाएगा।” मैंने कहा, “ठीक है, करके देखते हैं।” गोपाल ने तुरन्त पूरे आत्मविश्वास के साथ बोतल के मुँह पर गुब्बारा लगाया और कहा, “सर देखिए, हो गया।” पर बोतल को छोड़ने पर गुब्बारा वापस खाली हो गया। इसके तुरन्त बाद अंश ने कहा, “जैसे हम नल या पिचकारी से गुब्बारा फुलाते हैं, वैसे ही इस बड़ी बोतल की मदद से गुब्बारा फुला सकते हैं, यदि हम इसके पीछे वाले खुले हिस्से से पानी डालें तो।” मुझे सच में नहीं लगा था कि उस तरीके से इतना बड़ा गुब्बारा फूल पाएगा, पर जब अंश ने यह कर दिखाया तो सभी खुश होकर ताली बजाने लगे। इसके बाद मुझे किसी काम से क्लास खत्म करनी पड़ी, पर बच्चों के मन में गुब्बारा फुलाने का गुबार जाग चुका था। वे लगातार इस पर बातचीत कर रहे थे।

क्या हवा निकलने पर पानी अन्दर जाएगा?
जैसा कि मैंने लेख के शुरू में बात की थी, आगे की गतिविधि का अनुभव  आपके साथ साझा कर रहा हूँ।
आज बच्चों के साथ उस पंक्चर वाली बात पर बातचीत हुई। गोपाल, अर्जुन, देवेंद्र और आशीष को लगता था कि पानी ट्यूब के अन्दर नहीं जाता है जबकि अंश, सम्राट, रोशनी और अंकिता का मानना था कि पानी अन्दर जाता है। मैंने उन बच्चों को दो टीमों में बाँट दिया।

पहले हमने कुछ चीज़ों को पानी में डालकर देखा, जैसे प्लास्टिक की फूटी बॉल, पेन। बच्चों ने देखा कि दोनों चीज़ों में पानी भर जाता है। फिर मैंने गोपाल और उसकी टीम से पूछा, “इन चीज़ों में तो पानी जाता है, पर फिर तुम लोगों को ऐसा क्यों लगता है कि ट्यूब में पानी नहीं जाता?” गोपाल ने कहा, “सर उसमें हवा इतनी ज़्यादा होती है कि पानी उसके अन्दर नहीं जा पाता। जबकि फूटी बॉल और पेन में इतनी हवा नहीं है।” फिर मैंने अंश की टीम से पूछा, “तुमको ऐसा क्यों लगता है कि पानी अन्दर जाएगा?” अंश बोला, “हवा जब बाहर निकलेगी तो पानी अन्दर जाएगा ही।”

तभी आशीष को एक तरकीब सूझी, उसने कहा, “सर एक काम करते हैं, ये गुब्बारा फुलाकर, उसमें छेद कर पानी में डुबा देते हैं और देखते हैं कि पानी अन्दर जाता है या नहीं।” (पंक्चर वाली बात को समझने के लिए मैंने भी यही प्रयोग सोचा था)। हमने गुब्बारे में हवा तो भर ली पर फिर हमें लगा कि अब अगर इसमें पिन से छेद करेंगे तो यह फट जाएगा। तो हमने तय किया कि छेद किए बिना गुब्बारा पानी के अन्दर डालकर गुब्बारे के मुँह से थोड़ी-थोड़ी हवा छोड़ेंगे। गुब्बारे को पानी के अन्दर पूरी तरह से डुबाकर हवा को धीरे-धीरे छोड़कर यह देखने की कोशिश की कि पानी अन्दर जाता है या नहीं। हम सभी ने यह देखा कि पानी अन्दर नहीं जाता। अर्जुन ने तुरन्त कहा, “सर, गोपाल सही कह रहा था कि अन्दर हवा इतनी ज़्यादा है कि पानी अन्दर नहीं जाता।” इस तरह हमने हवा के साथ गतिविधि करके यह समझने और जानने की कोशिश की कि किस प्रकार हवा जगह घेरकर पानी को अन्दर जाने से रोकती है।

क्लास में गतिविधि करते हुए कुछ सवाल भी उभरे, उन्हें भी साझा कर रहा हूँ।

  1. अंश ने पूछा, “सर आपने तो गुब्बारे की थोड़ी-सी हवा निकाली, मुझे लगता है कि पूरी हवा निकलने पर भी पानी अन्दर नहीं जाएगा।” (आपको क्या लगता है?)
  2. और क्या प्रयोग हो सकता था जिससे हम यह बात सिद्ध कर पाएँ कि हवा पानी को अन्दर नहीं आने देती?
  3. इस प्रयोग के दौरान क्या यह बात करना सही होगा कि हवा का दाब किसी जगह ज़्यादा और किसी जगह कम होता है?
  4. गुब्बारे को पिन लगाने पर वह फट जाता है जबकि रबर का ट्यूब नहीं फटता।
  5. चॉक और ईंट के टुकड़े पानी में डुबाने पर पानी में बुलबुले निकलने का कारण उनकी संरचना है -- इनके बनने के दौरान रह गए छिद्रों में हवा फँसी रह जाती है और पानी सोखे जाने के कारण वह हवा बाहर निकल जाती है और बुलबुले बनते हैं। पर मैंने इस बात का खुलासा नहीं किया। बच्चे आगे चलकर खुद ही इस बात को समझ जाएँगे।

इस गतिविधि से मेरे दिमाग में प्रमुख बात यह उभरी कि कैसे बच्चों को एक स्वतंत्र सोच और माहौल दिए जाने पर वे इतने ज़्यादा तरीके सोच पाए और उन्होंने इसके बारे में आगे भी सोचना जारी रखा। क्या सभी विद्यालय बच्चों को ऐसे मौके देते हैं?
गतिविधि करते हुए बच्चों ने जो सीखा व अनुभव किया, वह उनका अपना था। यह किसी विद्यालय में शिक्षक के द्वारा दिए जा रहे एक-मार्गी शिक्षण जैसा नहीं था। एन.सी.एफ जिस वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करने की बात करता है वह किसी भी केवल किताब आधारित कक्षा में सम्भव नहीं है।


अंकित: पिछले तीन साल से आनंद निकेतन डेमोक्रेटिक स्कूल, भोपाल से जुड़े हुए हैं। छ: साल से बारह साल के बच्चों के साथ मुख्यत: गणित की अवधारणाओं पर काम करते हैं। साथ ही, आठ से दस साल के बच्चों के साथ विज्ञान की आधारभूत अवधारणाओं के लिए गतिविधियाँ करते हैं।

सभी फोटो: अंकित