रंजना

‘प्राथमिक स्तर पर बच्चे को अपने परिवेश में घुलने-मिलने और साथ ही खुशी-खुशी इसकी छानबीन हेतु तैयार करना चाहिए।’
(विज्ञान शिक्षा राष्ट्रीय फोकस समूह का आधार पत्र, 2008, एन.सी.ई.आर.टी.)

पर्यावरण  अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य बच्चों को ऐसे मौके प्रदान करना है जिससे वे अपने आसपास के वातावरण को अन्त:क्रिया द्वारा समझ सकें। इसके लिए कुछ बुनियादी कौशल, जैसे अवलोकन - स्थूल विवरणों पर ध्यान देना, वर्गीकरण (classification),  किसी नई वस्तु का सृजन करना, बनाई गई वस्तु को नाम देना और उसका वर्णन करना, संवेदनशीलता का विकास होना आदि अत्यन्त अहम पहलू हैं। पर्यावरण अध्ययन में न केवल विषयवस्तु महत्वपूर्ण है बल्कि यह विषय कल्पना करने के लिए खिड़कियाँ भी खोलता है। कल्पना व रचनात्मकता, दोनों ही आपस में गुथे हुए क्षेत्र हैं तथा दोनों ही आज के समय की आवश्यकता हैं क्योंकि ये समस्याओं के प्रभावी व नए हल निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसलिए बच्चों को विद्यालयों में ऐसे अवसर दिए जाने चाहिए जो उन्हें कल्पना करने व रचनात्मक  रूप  से  वस्तुओं  एवं संकल्पनाओं को देखने और उन पर क्रिया करने को बाध्य करें।

पत्तियों का अवलोकन
हमारी कक्षाओं में उपयोग होने वाली एन.सी.ई.आर.टी. की पर्यावरण अध्ययन की पाठ्यपुस्तक ऐसी अनेकों रोचक गतिविधियों से भरी हुई है जो बच्चों को खोजी बनने, कल्पना करने व अपने आसपास के वातावरण से अन्त:क्रिया करने के मौके प्रदान करती है। ऐसी ही एक गतिविधि हमने (कक्षा-3 के बच्चों व अध्यापक ने) भी की जिसके अन्तर्गत बच्चों को सबसे पहले विद्यालय में पेड़ों से गिरी पत्तियों को इकट्ठा करने के लिए कहा गया। इसके लिए सर्वप्रथम इस बात पर चर्चा की गई कि हमें पत्तियाँ पेड़-पौधों से तोड़कर इकट्ठा करनी हैं या कोई और तरीका भी हो सकता है। वैसे तो इससे पूर्व भी बच्चों को समय-समय पर विद्यालय में यह बात बताई जाती रही है कि पेड़ों को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए, बिना वजह उनके फूल व पत्तियाँ नहीं तोड़ने चाहिए, परन्तु आज बच्चों के समक्ष सिर्फ एक तथ्य रखा गया कि ‘पेड़-पौधे अपना  भोजन  अपनी पत्तियों से बनाते हैं’। इसके बाद बहुत ही जल्दी हम सब इस समझ पर पहुँच गए कि अगर पेड़ों से पत्तियाँ तोड़ी गईं तो पेड़ को कम खाना मिलेगा जो उसकी वृद्धि पर असर डाल सकता है। बच्चों की तरफ से ही यह सुझाव आया कि हम नीचे गिरी पत्तियों को इकट्ठा कर सकते हैं। अन्तत: विद्यालय में पेड़ों से गिरी पत्तियाँ इकट्ठी की गईं और बच्चों ने उन पत्तियों से सम्बन्धित अपने अवलोकन प्रस्तुत किए। इसके लिए चार मापदण्ड दिए गए:
1. पत्ती का रंग
2. पत्ती का आकार
3. पत्ती की किनार (edge)
4. पत्ती की सतह

पत्तियों के रंगों को बखूबी देखा व परखा गया। इकट्ठी की गई पत्तियों में ज़्यादातर गहरा हरा, हरा, हल्का हरा, पीला, भूरा, लाल, बैंगनी और इन रंगों के विभिन्न मेल (उदाहरण स्वरूप एक पत्ती का हरे व पीले, दोनों रंगों का होना) को देखा गया। पत्तियों के आकार की पतली, चौड़ी, लम्बी, छोटी,  बड़ी  तथा  त्रिभुज,  गोल, अण्डाकार आदि शब्दों से व्याख्या की गई। किनार की विशेषता बताने के लिए सीधी, टेढ़ी-मेढ़ी, खुरदुरी, कटी हुई आदि शब्दों का इस्तेमाल किया गया। इसी प्रकार पत्ती की सतह को बच्चों ने चिकनी, खुरदुरी, मोटी व काँटेदार  आदि  शब्दों  के  द्वारा व्याख्यान्वित किया।

इन चार मापदण्डों से सम्बन्धित अपना अवलोकन साझा करने के अलावा बच्चों ने पत्तियों के बारे में और भी जानकारी साझा की, जैसे एक बच्ची ने बताया, “मैम, मेरी पत्ती में छोटे-छोटे काँटे भी हैं।” एक अन्य बच्ची ने कहा, “इस पत्ती में से तो दूध जैसा सफेद कुछ निकल रहा है।” तीसरी बच्ची ने बताया, “मैम, ये पत्ती तो बहुत मोटी है।” बच्चों द्वारा साझा की गई जानकारी उनको अपने वातावरण के करीब लेकर जाती है जिससे वे न सिर्फ वातावरण में उपस्थित वस्तुओं की समझ विकसित करते हैं अपितु एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण व वातावरण में उपस्थित विभिन्नता (diversity) से भी रूब डिग्री होते हैं तथा उसे सराहते हैं। आज भी जब वे कोई नई या अलग तरह की पत्तियाँ देखते हैं तो कक्षा में आकर अवश्य बताते हैं। बच्चों में अब पत्तियों के बारे में जागरूकता व और जानने की इच्छा भी साफ नज़र आती है।

इसका एक खूबसूरत उदाहरण है कि जब हम अँग्रेज़ी की पाठ्यपुस्तक का अन्तिम पाठ रेगिस्तान का जहाज़ (King Of The Desert) पढ़ रहे थे, तब उसमें कैक्टस पौधे का ज़िक्र आया जो कँटीला होता है तो बच्चे उसके बारे में जानने के लिए काफी उत्सुक नज़र आए और जिन्होंने वो पौधा देखा हुआ था, वे बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहे थे तथा अपने साथी को उसके बारे में बता रहे थे। दो बच्चों ने तो चित्र बनाकर उस पौधे के बारे में बताया।

पत्तियों से आकृति बनाना
इसके बाद बच्चों ने इन पत्तियों का इस्तेमाल करके कुछ जानवरों, पक्षियों व अन्य वस्तुओं की आकृतियों को  भी  उभारा  जो  कल्पना  व रचनात्मकता से परिपूर्ण थीं। कक्षा के कुछ बच्चे जो ऐसी कोई आकृति बनाने में आत्मविश्वास महसूस नहीं कर रहे थे, उन्होंने किताब में दर्शाई गई पत्तियों से बनी आकृतियों को देख-देखकर वैसी ही आकृतियाँ बनाने की कोशिश की। बच्चों के इस कार्य की झलकियाँ आप आगे तस्वीरों में देख सकते हैं।

परन्तु ये तस्वीरें उस गतिविधि से प्राप्त हुआ उत्पाद मात्र हैं जबकि जिस प्रक्रिया से बच्चे इस उत्पाद तक पहुँचे, मेरे लिए वह अधिक मूल्यवान है। क्योंकि प्रक्रिया में बच्चे संवाद कर रहे थे, एक-दूसरे से प्रश्न पूछ रहे थे, प्रतिक्रिया दे रहे थे, एक-दूसरे की मदद कर रहे थे और मिलकर कार्य करना सीख रहे थे जो उनकी समझ को वृहत तो बना ही रहा था, साथ ही व्यवहार में लाकर वे जीवन के बुनियादी कौशल भी सीख रहे थे।

अन्त में
इस पूरे अनुभव से एक और बात जो समझी जा सकती है वह है पर्यावरण अध्ययन में एकीकरण (integration) जो बहुत ही स्वाभाविक रूप से इस शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में समाहित था। जहाँ एक ओर बच्चे विभिन्न शब्दों के द्वारा पत्तियों की व्याख्या कर रहे थे जो उनके परिवेश से सीधे सम्बन्धित थे, वहीं दूसरी ओर वे गणितीय आकृतियों को सन्दर्भ में रखकर पत्तियों के आकार का तुलनात्मक मूल्यांकन कर रहे थे। रंगों की सापेक्ष तुलना करना हो या पत्तियों के आकार की, यहाँ इन विषयों का समायोजन पूर्णत: सहज था।


रंजना: म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन, दिल्ली के विद्यालय में प्राइमरी शिक्षक हैं। केन्द्रीय शिक्षा संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.फिल. (शिक्षा) कर रही हैं। अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन में कुछ समय गणित की रिसोर्स पर्सन तथा दिल्ली के एक प्राइवेट स्कूल में गणित की शिक्षिका के तौर पर काम किया। पाठ्यक्रम डेवलपर के तौर पर भी छह वर्ष तक कार्य किया है।

सभी रेखाचित्र: शैलेश गुप्ता: आर्किटेक्ट और चित्रकार जो आज भी बचपन को संजोए रखना चाहते हैं। एमआईटीएस, ग्वालियर से आर्किटेक्चर की पढ़ाई। कहानियाँ सुनने और सुनाने का शौक है। भोपाल में रहते हैं।

पत्तियों से बनी आकृतियों के फोटोग्राफ: रंजना