वर्षा

बचपन से ही सिन्धु घाटी सभ्यता के बारे में कुछ-न-कुछ पढ़ते आए हैं।
‘यह दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है’।
‘यह एक नगरीय सभ्यता थी’।
‘सबसे पहले हड़प्पा गाँव के मिलने के कारण इसे हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है’।
‘यह एक उत्कृष्ट योजनाबद्ध शहर था, वहाँ ढँकी हुई नालियाँ थीं, समकोण पर काटती सड़कें थीं,’ आदि, आदि।
बचपन से ही किताबों और कक्षाओं में पढ़ी कहानियों से दिमाग में तामीर हो रहा था एक शहर...। लेकिन मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में यह शहर परीक्षा के सवालों के जवाब देने में ही सिमट कर रह गया।
आनन्द निकेतन डेमोक्रेटिक स्कूल में आने पर हमारी कल्पनाओं को फिर से पंख लगने लगे। बच्चों के साथ किए जा रहे इतिहास के पुनर्पाठ ने नए सिरे से हमारी इतिहास चेतना को आकार देना शु डिग्री किया। इसी क्रम में जब हमने बच्चों के साथ सिन्धु घाटी सभ्यता के इतिहास को साझा किया, तो लगभग पाँच हज़ार पुराना यह शहर हमारी कल्पनाओं में जीवित होने लगा। हमारे मन में यह इच्छा उठने लगी कि क्यों न इस प्राचीन शहर को फिर से ‘बसाया’ जाए। बच्चों से यह बात साझा की तो वे अत्यन्त उत्साहित हो गए। बच्चों के उत्साह ने हमें और प्रेरित किया। हम सभी मिलकर लगातार सोचने लगे कि इस विचार को हम साकार कैसे कर सकते हैं। अपने सहकर्मी अनिल सिंह से भी यह बात साझा की। अनिल को इस तरह के काम में महारत हासिल है। उन्होंने एक महत्वाकांक्षी राय दी, “हम छोटी-छोटी ईंटें बनाकर पकाते हैं, फिर उससे इस शहर को बनाते हैं।” आइडिया पसन्द आया लेकिन यह काम बहुत समय लेने वाला था। फिर बच्चों ने कहा कि चलिए हम लोग मिट्टी से ही इस शहर को बनाते हैं। हम लोग तैयार हो गए, चलो शुरुआत तो करते हैं। बीहू ने कहा, “ऐसा करते हैं कि कुछ अखबार गला देते हैं। पेपर मैशे तैयार कर सकेंगे तो अच्छा बनेगा।” हमने एक बाल्टी में कुछ अखबार गला दिए।

फिर शुरु हुई शहर की योजना पर बातचीत। इंटरनेट पर सिन्धु घाटी सभ्यता के कई चित्रों को कई तरह से देखा। आखिरकार सबने तय किया कि हम मोहनजोदड़ो शहर को बनाएँगे जिसमें एक साथ दुर्ग और महान स्नानागार नज़र आ रहे थे। हमने उसका प्रिंट निकाला और उस पर चर्चा की। वहाँ मिली मोहरों और खिलौनों आदि पर चर्चा की। बीहू उत्साहित हो गई। कहने लगी, “मैम, हम बिलकुल लाइव शहर बनाएँगे जहाँ लोग आ-जा रहे हों, काम कर रहे हों, बिलकुल उसी तरह।” “बिलकुल हम बना सकते हैं...,” बच्चों के उत्साह से मैं भी उत्साहित थी। अम्बर ने चित्र के प्रिंट के अनुसार शहर का रेखाचित्र बनाया। इसके बाद हम लगातार सोचते रहे कि हमें और क्या-क्या सामग्री लगने वाली है। अनिल की सलाह से हम आगे बढ़े।
सबसे पहले हमने गत्ते को जोड़कर एक मज़बूत आधार तैयार किया। उधर बच्चों ने गलाए हुए पेपर को मैश करना शुरु किया। उसे कूटकर, उसमें मिट्टी मिलाकर बढ़िया लुगदी तैयार की। बच्चों ने इसमें काफी मेहनत की। फिर हमने उस आधार और कागज़ पर बने रेखाचित्र को लेकर एक बार फिर से योजना बनाई। सभी बच्चों ने अपनी-अपनी राय रखी। कहाँ पर क्या बनना चाहिए। सभी की सहमति से एक योजना तैयार की गई। इसके बाद हमने पुन: किताबों की मदद ली कि वास्तव में कौन-सी चीज़ कहाँ थी। जब अपनी योजना से मिलान किया तो पता चला कि अरे हमने तो योजना उल्टी दिशा में बनाई थी। हमें तो ग्रेटबाथ पूरब में और सिटाडेल पश्चिम में बनाना था। सबने मिलकर एक बार फिर से अपनी योजना दुरस्त की। आपस में मत बना कि हम पहले एक परत मिट्टी की लगा देते हैं और फिर इस पर पेपर मैशे से शहर बनाएँगे। बच्चे फौरन लग गए खेत से मिट्टी निकालने में। हमने मिट्टी की एक परत लगाकर छोड़ दी। दूसरे दिन जब स्कूल पहुँचे तो देखा कि सारी मिट्टी सूखकर दरक गई थी। हमारा पहला प्रयोग ही असफल हो गया। सब मिलकर सोचने लगे कि अब क्या करें। सभी ने बैठकर इस पर विचार किया कि जब दरअसल वह शहर बसा होगा तब कितनी तरह की परेशानियाँ आई होंगी क्योंकि सिन्धु घाटी सभ्यता के पहले तो ऐसे शहरों का कोई प्रमाण नहीं है। तो कहाँ से सीखी होगी उन्होंने इस शहर को बसाने की कला? क्या मेसोपोटामियाई लोगों से जिनके साथ उनके व्यापारिक सम्बन्ध के प्रमाण मिलते हैं? पता नहीं क्योंकि अभी तक उनकी स्क्रिप्ट हम पढ़ नहीं सके हैं। इन सब सवालों पर साथ--साथ चर्चा होती रही। एक बच्चे का सवाल आया, “हम किस रास्ते से मेसोपोटामिया पहुँचे होंगे?” मैंने बताया, “हम वहाँ पश्चिम के ज़मीनी रास्ते से पहुँच सकते थे या फिर समुद्री रास्ते से पहुँचे होंगे।” बात हुई लोथल (गुजरात) में मिले एक अन्य हड़प्पाई शहर की, जहाँ एक बन्दरगाह के अवशेष मिले हैं। इसलिए सम्भव है हम समुद्री रास्ते से मेसोपोटामिया पहुँचते होंगे क्योंकि सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों को नाव की जानकारी थी।
आरम्भिक निराशा के बाद बच्चों ने फिर से काम शुरु किया। दरकी हुई मिट्टी निकालकर बच्चों ने सारी मिट्टी पेपर मैशे के साथ कूटी और काफी मेहनत के बाद मिट्टी और पेपर मैशे का एक बढ़िया मिश्रण तैयार कर लिया।

अगले दिन हमने योजनानुसार काम करना शुरु कर दिया। बच्चों ने कई बार प्रयास किया और अपने ही ढाँचे को कई बार बनाया, मिटाया। अन्तत: तैयार हुआ मोहनजोदड़ो शहर। बीच-बीच में बच्चे सवाल भी करते रहे। मसलन, भूमिका ने पूछा, “इस दुर्ग में क्या राजा लोग ही रहते थे? उनका रहन-सहन कैसा था?”
अनीशा ने पूछा, “ग्रेटबाथ में क्या वे नहाते थे, तैरते थे?”
आरती ने पूछा, “क्या वे गाते-बजाते और डांस भी करते थे जैसा कि फिल्म में दिखाया था?”
पार्थ ने पूछा, “क्या उस समय भी आज की तरह के हाट लगते थे?”
बीहू ने पूछा, “पानी का प्रबन्धन वे इतनी अच्छी तरह से कैसे कर लेते थे?” बीहू की चिन्ता भी यही थी कि सिन्धु घाटी सभ्यता तो सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध है अपनी ढँकी हुई नालियों के लिए लेकिन हम अपने प्रोजेक्ट में उन नालियों को नहीं दिखा पा रहे। मोहनजोदड़ो शहर की नालियाँ बनाने में हम कामयाब नहीं हो सके। शायद वह और बारीक काम की माँग करता था। बहरहाल, हमने ढाँचा खड़ा करने के साथ-साथ इन सवालों पर चर्चा जारी रखी।
मोहनजोदड़ो व हड़प्पा जैसे बड़े नगरों का अस्तित्व यह दर्शाता है कि यह एक ऐसे क्षेत्र के पोषण पर निर्भर था जहाँ अतिरिक्त अनाज पैदा होता था। यानी ऐसे बड़े नगर का अर्थ है राज्य का अस्तित्व। लेकिन अगर वहाँ राजा था  तो  एक  ऐसा  नगर  बिना उत्तराधिकार का चिन्ह छोड़े खत्म कैसे हो गया? ये कुछ ऐसे अनुत्तरित सवाल हैं जिनका उत्तर अभी खोजा जाना है। वहाँ मौजूद महान स्नानागार का उपयोग वे किस लिए करते थे, इसका कोई स्पष्ट उत्तर हमारे पास नहीं है। लेकिन यह स्नानागार केवल नहाने-धोने के इस्तेमाल के लिए तो नहीं होता होगा क्योंकि वहाँ मौजूद हर घर में अच्छे गुसलखाने मौजूद हैं और पानी को निकालने की उत्तम व्यवस्था है। लेकिन भारत में धार्मिक तौर पर जलाशयों और कुण्डों में स्नान की परम्परा से इसकी निरन्तरता जुड़ती है। यहाँ मिली मुहरों आदि से हम यह कह सकते हैं कि ये नगर व्यापार के फलते-फूलते केन्द्र थे। मेसोपोटामियाई सभ्यता के साथ इसके व्यापारिक सम्बन्ध के साक्ष्य मिलते हैं। वहाँ सुस, उर, नीपुर, किश आदि शहरों में दो दर्ज़न से अधिक हड़प्पाई मुहरें मिली हैं। सिन्धु सभ्यता के क्षेत्र में हालाँकि, केवल तीन मेसोपोटामियाई मुहरें ही प्राप्त हुई हैं, लेकिन इससे हम उनके साथ व्यापारिक सम्बन्ध का अन्दाज़ा लगा सकते हैं।

बच्चों ने सिटाडेल बनाया, महान स्नानागार  बनाया।  स्नानागार  में सीढ़ियाँ बनाईं। ईंटों की दीवारें बनाईं, मकान बनाए, सड़कें बनाईं, कुँआ बनाया, बर्तन बनाए, घरों में चूल्हे भी रखे। कुछ मानव मूर्तियाँ भी बनाईं। नर्तकी की एक मूर्ति भी बनाई और फिर हमने चर्चा की कि कांसे की प्रतिमा मिलने का मतलब क्या है -- कि वे टिन में तांबा मिलाकर कांसा बनाने की तकनीक से परिचित थे। टिन सम्भवत: अफगानिस्तान से आता था। यानी हड़प्पा सभ्यता कांस्ययुगीन सभ्यता थी। इसके साथ सिन्धु घाटी सभ्यता से लेकर आज तक भारत में सांस्कृतिक निरन्तरता क्या है, हमने उस समय के सम्भावित धर्म और विवादों पर भी चर्चा की।
इस बीच शहर के निर्माण की तैयारी की तस्वीरों को हमने फेसबुक पर साझा किया। इन पर प्रशंसा की कई टिप्पणियाँ हमें मिलीं। पुरातत्व में काम करने वाले एक सज्जन लैमिन लीवांग ने पूछा, “क्या बच्चे उस वक्त के सामाजिक स्तरीकरण के बारे में जानते हैं?” वैसे तो बच्चों के साथ इस विषय में अक्सर अलग-अलग मौकों पर चर्चा होती रही है लेकिन सिन्धु घाटी सभ्यता के सन्दर्भ में एक बार फिर से इस विषय पर चर्चा की।
सिन्धु घाटी सभ्यता में दुर्ग की उपस्थिति और घरों का स्तर यह बताता है कि उस समय के समाज में वर्ग स्तरीकरण मौजूद था। दुर्ग को बनाने वाले निश्चित रूप से उस दौर के मज़दूर रहे होंगे जो आजीविका के लिए आसपास के गाँव से आते होंगे। इस पर बीहू ने एक रोचक बात की, “लेकिन जब हम उनके बारे में कुछ भी ठीक-ठीक नहीं कह सकते तो सम्भव है कि उस समय का राजा खुद ही अपना घर बनाता हो।” हमने जवाब दिया, “यह सम्भव नहीं क्योंकि मानव सभ्यता के इतिहास का अनुभव यह बताता है कि निर्माण कार्य हर जगह मज़दूर ही करता आया है। फिर दुर्ग जैसी संरचना बनाने के लिए ढेर सारे लोगों की ज़रूरत होती है, अकेला व्यक्ति उसे कैसे बना सकता है। और अगर राजा ने बनाया होगा तो फिर वह भी मज़दूर हुआ न। वह राजा किस बात का।”

इसके बाद उन्हें आज का उदाहरण दिया, “सभी महानगरों के मुहाने पर झोपड़पट्टियाँ होती हैं जिनमें उस शहर का निर्माण करने वाले लोग रहते हैं जो आसपास या दूर दराज़ के गाँव से आते हैं। या फिर शहर में किसी का घर बनता है तो सबसे पहले उस ज़मीन के पास एक कच्ची खोली तैयार हो जाती है जिसमें उस घर को बनाने वाले मज़दूर का परिवार रहने लगता है। सोचने वाली बात यह भी है कि जहाँ कहीं भी बड़ी इमारतें होती हैं वहाँ अतिरिक्त श्रम होता है। जहाँ अतिरिक्त श्रम होता है, वहाँ सामाजिक स्तरीकरण होता ही है। इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि जहाँ भी अतिरिक्तश्रम मौजूद है वहाँ खेती की उत्पादकता बढ़ चुकी होती है। यानी कुछ ऐसे लोग हैं जो खेती के अलावा भी कुछ काम कर सकते होंगे। जैसे हम आज यह प्रोजेक्ट बना रहे हैं तो हमारे पेट भरे हुए हैं। इसके लिए हमारे घर में किसी ने मेहनत की होगी। इसी तरह मोहनजोदड़ो के वक्तभी आसपास के गाँव से मज़दूर उस शहर का निर्माण करने आते होंगे जिनके उदर की पूर्ति भी उसी गाँव के लोग कर रहे होंगे। इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि जब भी हम सिन्धु घाटी सभ्यता की बात करते हैं तो उसके आसपास के गाँव को भूल जाते हैं जिसने उस शहर के आबाद होने में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया होगा। अपर टाउन के नीचे की ओर बसा लोअर टाउन यही कहानी कहता है जिसकी निरन्तरता आज भी बनी हुई है।”

अन्त में हमने चर्चा की कि ये महान सभ्यता नष्ट कैसे हुई होगी। इसके लिए विभिन्न इतिहासकारों द्वारा प्रस्तुत परिकल्पनाओं एवं सम्भावनाओं पर बात हुई। सिन्धु नगरों के पूर्ण विनाश का सम्भवत: एक कारण था - उनकी कृषि व्यवस्था का नष्ट हो जाना। इसके अलावा अगर आक्रमण से नष्ट होने की थ्योरी को मानें तो शायद आक्रमणकारी मूलत: कृषक नहीं थे। उन्होंने शायद बाढ़ के पानी को रोकने और सिंचाई के लिए बनाए गए बाँधों को तोड़ डाला। बीहू का कहना था, “अगर बाढ़ से यह शहर नष्ट हुआ था, फिर तो पूरा शहर ही मिट जाना था। उसके इतने स्पष्ट प्रमाण कैसे बचे रहे?” तो क्या आर्यों का आक्रमण इस सभ्यता के विनाश का कारण था? बच्चे सोच में पड़ गए। तो फिर आर्यों ने अगर उन्हें मारकर अपना ‘राज्य’ बनाना शुरु किया तो उन्होंने हड़प्पा सभ्यता के लोगों से कुछ सीखा क्यों नहीं? फिर उनके जैसे शहरों को क्यों नहीं बसाया, हम फिर से गाँव बनाने की ओर कैसे मुड़ गए? इतनी फलती-फूलती सभ्यता अचानक कैसे नष्ट हो गई? क्या सूखे और अकाल के एक लम्बे दौर ने इस सभ्यता का नामोनिशान मिटा दिया? सवाल बहुत सारे हैं, जवाब कोई एक नहीं! विवाद अपनी जगह हैं, हम कोशिश करें जवाब को पाने की। बीहू ने घोषणा कर दी, “मैंने तय कर लिया है कि मैं बड़ी होकर आर्कियोलॉजिस्ट ही बनूँगी।”


वर्षा: विगत कई वर्षों से आनन्द निकेतन डेमोक्रेटिक स्कूल से सम्बद्ध। अब उसके साथ तालीम प्रोजेक्ट में बच्चों के साथ सामाजिक विज्ञान व संगीत सीखने-सिखाने का सिलसिला जारी है।
फोटोग्राफ: वर्षा
सभी रेखाचित्र: निशित मेहता: महाराजा सयाजीराव युनिवर्सिटी ऑफ वडोदरा से विज़ुअल आर्ट्स में स्नातक। वर्तमान में महाराजा सयाजीराव युनिवर्सिटी से कला का इतिहास विषय में स्नातकोत्तर कर रहे हैं।