किशोर पंवार

जिस कॉलेज में कार्यरत हूँ उसका परिसर बहुत विशाल एवं हरा-भरा चौंतीस एकड़ का है। यहाँ पर लगभग छोटे-बड़े 10-12 बगीचे हैं। इनमें से एक मेरे ज़िम्मे है। इसमें तरह-तरह के पेड़-पौधे हैं। कुछ पेड़, कुछ झाड़ियाँ।
वनस्पतिशास्त्र का विद्यार्थी होने के कारण मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपने बगीचे के सभी पेड़-पौधों को उनके वैज्ञानिक नामों से भी जानूँ। पर एक झाड़ी ऐसी थी जिसे मैं पिछले दो-तीन साल से जानने-पहचानने की कोशिश कर रहा था। यह एक छोटी झाड़ी है जिसकी शाखाएँ लम्बी, पतली और झुकी हुई रहती हैं। इस परिसर में यह एक मात्र है जिसे बचाने के लिए पानी आदि की व्यवस्था की गई। अब यह काफी फैल चुकी है और इस पर फूल भी आते हैं। इसके फूलों पर गर्मियों में कीट-पतंगे भी चक्कर काटते रहते हैं।
जो भी वनस्पति विज्ञानी मेरे विभाग में प्रायोगिक परीक्षा कराने हेतु परीक्षक के रूप में आता था, मैं उसे यह अनजान पौधा ज़रूर दिखाता। इस आशा से कि शायद उसका नाम पता चल जाए। पर सफलता न मिली।
इसी बीच तितलियों के अध्ययन में मेरी रुचि जागी। मेरे हाथ एक किताब भी लगी - कॉमन बटरफ्लाइज़ ऑफ इंडिया। इसकी वजह से मेरी जान-पहचान तितलियों से बढ़ने लगी। मैंने जाना कि अपना जीवन-चक्र पूरा करने के लिए तितलियों को दो प्रकार के पौधों की ज़रूरत होती है। और यह भी पाया कि कुछ तितलियों का कुछ पौधों के साथ एक खास रिश्ता होता है।

होस्ट प्लांट बनाम नेक्टर प्लांट
तितलियाँ फूलों के साथ ही कुछ खास पौधों की पत्तियों पर भी बार-बार चक्कर लगाती रहती हैं। दरअसल, ये अपने अण्डे देने के लिए इन खास पत्तियों को ढूँढ़ती हैं। जिन खास पौधों को मादा तितलियाँ ढूँढ़ती रहती हैं उन्हें इनके इल्ली-पोषक यानी लार्वल होस्ट प्लांट कहते हैं। जिन फूलों पर  बिना  किसी भेदभाव के तरह-तरह की    तितलियाँ मण्डराती हैं, वे नेक्टर प्लांट अर्थात् मकरन्द पौधे कहलाते हैं। अनुभव से मैंने यह भी जान लिया कि पत्तियाँ ढूँढ़ने वाली सभी तितलियाँ मादाएँ होती हैं जबकि फूलों पर चक्कर काटने वालों में नर-मादा, दोनों शामिल होते हैं।
पोषक पौधे पर दिए गए अण्डों से निकलने वाली इल्लियाँ इन पत्तियों को कुतर-कुतरकर खाती रहती हैं जिन पर उनकी माँ ने उन्हें चिपकाया था। इल्लियाँ पत्तियाँ खा-खाकर बढ़ती जाती हैं। छोटी इल्ली से बड़ी इल्ली बनती जाती है। इस हेतु उन्हें तीन-चार बार अपनी केंचुली उतारनी होती है। वैज्ञानिक इसे मोल्टिंग कहते हैं और इल्लियों के विभिन्न रूपों को एक, दो, तीन इंस्टार लार्वा (चित्र-1)।
सबसे बड़ी इल्ली कुछ समय बाद पत्तियाँ खाना बन्द कर देती है और किसी सुरक्षित स्थान पर छिपकर धीरे-धीरे एक बिलकुल ही नया रूप धारण कर लेती है जो प्यूपा (शंखी) कहलाता है (चित्र-2)। तितलियों के जीवन-चक्र की यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें उनका खाना-पीना व चलना-फिरना -- सब बन्द हो जाता है। हम कह सकते हैं कि वे 10-15 दिन के लिए समाधि में चली जाती हैं। इसी दौरान उनका रूप परिवर्तन होता है और एक ‘भद्दी-सी’ लिजलिजी दिखने वाली लम्बी-पतली, बिना टाँगों व आँखों वाली इल्ली एक खूबसूरत, चंचल, रंगीन, मनमोहक तितली में बदल जाती है। ये तितली का नया रूप है जो शंखी से बाहर आकर मकरन्द पौधों यानी ऐसे पौधों के फूलों पर जाती है जो मकरन्द से भरपूर हों।

मतलब यह हुआ कि तितली की इल्ली का भोजन पत्ती और वयस्क पंखों वाली तितली का भोजना मीठा मकरन्द। इल्ली का भोजन ठोस जिसे कुतरना पड़ता है और तितली का तरल। एक ही जीव की दो अवस्थाओं में भोजन ग्रहण करने की यह विविधता तितलियों के जीवन-चक्र का एक मज़ेदार और विशिष्ट पहलू है।
तो अब तक तितलियों के बारे में मुझे पक्के तौर पर यह पता चल चुका था कि मादा तितलियाँ अपने अण्डे कुछ चुनिन्दा पौधों की पत्तियों पर ही देती हैं। इस अनजान अनाम पौधे की पत्तियों पर मैंने दो-तीन प्रकार की तितलियों को बार-बार चक्कर काटते देखा। एक बार बरसात के तुरन्त बाद यानी जुलाई-अगस्त में और फिर मार्च-अप्रैल में। ये तितलियाँ थीं पायनियर और कॉमन गुल। बिना फूल के भी ये पत्तियों पर बार-बार बैठती हैं, फिर उड़ जाती हैं। पत्तियों को उलट-पलटकर देखा तो हल्के हरे-पीले रंग के अण्डे दिख गए और कुतरी हुई पत्तियों पर हरे-पीले रंग की छोटी-बड़ी इल्लियाँ भी मिलीं जो पत्तियों को कुतर रही थीं। यानी यह तो पक्का हो गया कि  ये झाड़ी इन तितलियों का लार्वल होस्ट प्लांट है।
मिल गया पौधे का नाम
इन तितलियों के पोषक   पौधों   की खोजबीन की तो तीन-चार दावेदार सामने आए। पता चला कि ये तितलियाँ केपेरिस नाम के पौधों पर अपने अण्डे देती हैं। परन्तु जिन केपेरिस को मैं जानता था, यह उनमें से नहीं है। न तो ये केपेरिस ज़ेलानिका है, न ही केपेरिस सेपीऐरिया। केपेरिस इंडिका भी यह नहीं था। इन सब पर काँटे होते हैं पर इस पर एक भी काँटा न था। केपेरिस ज़ेलानिका के फूल हल्के जामुनी रंग के होते हैं। पर इसके हल्के हरे-क्रीमी। नेट पर और फ्लोरा ढूँढ़े तो पता चला कि इस झाड़ी का रूप-रंग, आकार-प्रकार और आवास तथा फूल जिससे मेल खाते हैं,   उसका   नाम   मेरुआ ऑबलॉन्गीफोलिया है।

मेरुआ का फूल
मेरुआ में ढेर सारे फूल गुच्छों में, विशेषकर मार्च-अप्रैल में खिलते हैं। फूलों में बहुत सारे लम्बे सफेद पुंकेसर प्रमुखता से पाए जाते हैं, जिनके कारण फूल सुन्दर दिखते हैं। प्रत्येक फूल में चार-चार अंखुड़ियाँ और पंखुड़ियाँ होती हैं। अंखुड़ियाँ हरी और नीचे की ओर मुड़ी होती हैं तथा पंखुड़ियाँ क्रीम रंग की होती हैं। पुंकेसर गिनो तो 20-25 से भी ज़्यादा। इनकी सफेद, पतली, चमकीली डण्डियों पर हरे रंग के पराग कोष लगते हैं। फूल के केन्द्र में एक सफेद पतली डण्डी पर आसन जमाए हरे रंग का लम्बा-सा अण्डाशय लगा होता है। डण्डी के ऊपर अण्डाशय लगना इस फूल की विशेषता है। जिस डण्डी पर अण्डाशय लगा होता है उसे स्त्रीधानीधर यानी गायनोफोर कहते हैं। यह रचना इस बात का प्रमाण है कि फूल एक रूपान्तरित तना है। जैसे तने पर पर्व और पर्व-सन्धियाँ होती हैं, उसी तरह कुछ फूलों में अपवाद स्वरूप एक-दो पर्व और पर्व-सन्धियाँ पाई जाती हैं। इस फूल का गायनोफोर भी एक पर्व है।

फूल आकर्षक होते हैं, इस पर तितलियों के  अलावा  मधु-मक्खियाँ एवं चींटियाँ भी आती-जाती रहती हैं। ये फूल सुगन्धित और एक मिठाई की दुकान की तरह हैं। मिठाई की इस दुकान पर सुबह-शाम तरह-तरह के ग्राहक आते रहते हैं। इस पौधे के फूलों पर मैंने तीन-चार तरह की तितलियों को मण्डराते देखा है। इनमें कॉमन इमीग्रेंट, ग्रास यॅलो, स्पॉटलैस ग्रास यॅलो, कॉमन गुल और पायनियर शामिल हैं। इनके अलावा एक बहुत ही प्यारी, इन सबसे छोटी तितली व्हाइट ऑरेंज-टिप भी इसके चक्कर लगाती है। ये गर्मियों में ही मार्च से अप्रैल-मई तक दिखती हैं। बरसात के बाद और ठण्ड में नहीं। इन दिनों इस झाड़ी पर इन तितलियों की बहार है क्योंकि फिलहाल अन्य फूल कम हैं और इस पर खूब फूल खिल रहे हैं।

स्मॉल ऑरेंज-टिप
इसी पौधे पर मुझे एक दिन एक छोटा-सा लगभग सफेद रंग का नावनुमा प्यूपा चिपका दिखा। मैंने वह पत्ती तोड़कर छेद वाली उसी पारदर्शी प्लास्टिक की डिब्बी में रख दी जिसमें मैं पहले भी कई तितलियों का जन्म करा चुका था (चित्र-5)।

यह एक छोटा-सा ‘तितली प्रसवगृह’ है। कुछ दिनों बाद उस प्यूपा में से एक बहुत ही सुन्दर, सफेद-नारंगी रंग की तितली निकली।
 यह न तो कॉमन गुल थी, न ही पायनीयर। किताब पलटी तो पता चला कि यह तो स्मॉल ऑरेंज-टिप है। सफेद-नारंगी किनारे वाली एक छोटी, चंचल तितली नीचे-नीचे ही उड़ती रहती है। बैठ जाए तो बाहर से सफेद दिखती है। पंखों के सिरों पर नारंगी रंग के पट्टे, जब यह उड़ती है तब ही नज़र आते  हैं।  मेरुआ ऑबलॉन्गीफोलिया इस तितली का भी लार्वल होस्ट प्लांट है।
तो  यह  एक कहानी है पौधे के नाम की खोज की जो दो विभिन्न प्रकार के जीवों के आपसी रिश्तों की गहरी छानबीन करता है।
यहाँ तो तितली से पौधे का पता चला है पर इसका उल्टा भी हो सकता है। पौधे का नाम पता हो तो उन पर आने वाली तितलियों के नाम पता किए जा सकते हैं। जीवों के पारस्परिक सम्बन्धों की जानकारियाँ बड़ी रोचक होती हैं जो ज्ञान के नए अध्याय हमारे सामने खोलती हैं।


किशोर पंवार: शासकीय होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर में बीज तकनीकी विभाग के विभागाध्यक्ष और वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक हैं। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से लम्बा जुड़ाव रहा है जिसके तहत बाल वैज्ञानिक के अध्यायों का लेखन और प्रशिक्षण देने का कार्य किया है। एकलव्य द्वारा जीवों के क्रियाकलापों पर आपकी तीन किताबें प्रकाशित। शौकिया फोटोग्राफर, लोक भाषा में विज्ञान लेखन व विज्ञान शिक्षण में रुचि।
सभी फोटो: किशोर पंवार।